शिमला से मेरा रोमांस बचपन से है जब देश के विभाजन के बाद कुछ देर के लिए हम छोटे शिमला की डिम्पल कॉटेज में रहने लगे थे पर उधर सर्दी बहुत थी इसलिए दूसरी जगह शिफ़्ट करना पड़ा था। जवान हुए तो छुट्टियों में दोस्तों के साथ मॉल रोड और रिज के चक्कर लगाते जूते घिसा दिए। इनके जंकशन पर सकैंडल पॉइंट है जिसके बारे चर्चा है कि यहाँ से पटियाला के महाराजा भूपिन्दर सिंह वायसराय की बेटी को ले भागे थे जिसके बाद उनके शिमला आने पर पाबंदी लगा दी गई थी। बदले में महाराज ने चैल को स्थापित किया जहां एक खूबसूरत महल भी है जो अब टूरिस्ट रिसॉर्ट है। इससे कुछ दूर अमरेन्द्र सिंह का बंगला और ऑरचर्ड है। बाद में परिवार के साथ कई बार शिमला जाना हुआ। शहर का अपना अलग आकर्षण है। लेकिन हर बार कुछ निराश लौटा क्योंकि भीड़ बढ़ती जा रही थी और जलवायु गिरती जा रही थी। मॉल रोड पर ही लोग एक दूसरे से टकराने शुरू हो गए थे। अब शिमला गए कई साल हो गए। बीच में कोविड आ गया और अब शिमला के बारे समाचार सुन कर वहाँ जाने के प्रति घबराहट होती है। भीड़ और ट्रैफ़िक दोनों नियंत्रण से बाहर हो रहें हैं। शहर का स्वरूप बदल गया है। और हिमाचल सरकार जो परिवर्तन लाना चाह रही है वह तो बिलकुल शिमला को बदल देंगे। पहले ही वह कंक्रीट का जंगल बनता जा रहा है अब उसकी हरी छत भी सरकारी इरादे के कारण खतरें में है। मंत्रीमंडल के निर्णय पर स्टे लगी हुई है पर अगर यह कभी लागू हो गया तो शिमला जिसे हम जानते थे, वह शिमला रहेगा नही। क्या मेरे जैसों के लिए शिमला से रोमांस ख़त्म करने का समय आगया है?
पिछले सप्ताह मैं मलेशिया के शहर पेनॉग में था। इस शहर पर कभी अंग्रेजों का क़ब्ज़ा था। यहाँ भी एक हिल स्टेशन ‘पेनॉग हिल’ है जो कसौली जैसा है। वहीं हरियाली, वैसी ही सड़कें, यहाँ तक कि कमांडर का बंगला भी है। पर वहाँ की सरकार ने पाबंदी लगा दी है कि पर्यटक केवल एक विशेष ट्रेन द्वारा ही वहाँ पहुँच सकते है। वहाँ कुछ घंटे व्यतीत करने के बाद उन्हें लौटना है। कोई वहाँ नहीं रह सकता। केवल एक दर्जन के क़रीब ही लोग रहते हैं जिनके अंग्रेजों के समय के बंगले हैं। बाकियों के लिए केवल नजारा देखने की जगह है। कसौली से तुलना करें जहां इतना निर्माण हो चुका है कि एक दिन शिमला जैसा अर्बन स्लम बन जाएगा। हम अपनी धरोहर और उसकी अछूती प्राकृतिक सुन्दरता को सम्भाल क्यों नहीं सकते ? हर जगह हमे कमर्शिल इंटरैस्ट और पोलिटिकल इंटरैस्ट की ही चिन्ता क्यों रहती है? अटल टनल को खुले कुछ ही महीने हुए हैं पर अभी से उसके बाहर कूड़े के ढेर लग रहें है। रोहतांग दर्रे का हम क्या हाल करते हैं वह सब जानते है। मनाली में ट्रैफ़िक जाम के समाचार हैं। ठीक है हमारे लोग ढीठ और अनुशासनहीन है पर उन्हें सीधा करने का भी तो कोई रास्ता होगा? हम कब तक पर्यावरण से खिलवाड़ करते जाएँगे? पर्यावरणविद् डा.अनिल प्रकाश जोशी का सही कहना है कि ‘ अगर सुकून देने वाली धरती चाहिए तो उसकी फ़िक्र करनी होगी’।
यही मेरी हिमाचल प्रदेश सरकार से शिकायत है कि वह जो करना चाह रही है उससे शिमला क्षेत्र का सुकून छिन जाएगा। सब जानते है कि शिमला अंग्रेजों ने कुछ हज़ार लोगों के लिए बसाया था लेकिन 2011 में इसकी जनसंख्या 170000 थी। यह ग्यारह साल पुराने सरकारी आँकड़ें है। तब से लेकर अब तक स्थिति भयावह हो चुकी है। हज़ारों लोग सरकारी काम के लिए और मौज मस्ती के लिए यहाँ रोज़ आते हैं जिस कारण ट्रैफ़िक की समस्या है। जो रास्ते खच्चरों के लिए बने थे वहाँ धुआँ उड़ाती गाड़ियाँ चलती हैं। अनियंत्रित निर्माण है जिसके बारे एक बार नगर निगम स्वीकार कर चुका है कि उनके पास क़ानून लागू करने के साधन नहीं है। इस के कारण जलवायु इतनी बदल चुकी है कि कई दुकानों में ऐ सी लग चुकें हैं। शिमला स्वच्छ सर्वेक्षण में टॉप- 100 शहरों की सूचि से बाहर हो चुका है।
लेकिन शिमला बारे और बड़ी चिन्ता है कि यह भूकम्प के ज़ोन-4 में है जो सबसे घातक ज़ोन-5 के बिल्कुल नज़दीक पड़ता है। युनाइटेड नेशन डिवैलपमैंट प्रोग्राम के अनुसार शहर की 65 प्रतिशत इमारतें अत्यधिक कमजोर है। शिमला नगर निगम का अपना मानना है कि कच्ची घाटी, जहां सात मंज़िली इमारत गिर गई थी, जैसी घटना कभी भी दोहराई जा सकती है। 90 प्रतिशत इमारतें पहाड़ी ढलानों पर मुश्किल से टिकी हुईं हैं। विशेषज्ञ यह भी चेतावनी दे रहें हैं कि भूकम्प की स्थिति में भागने की जगह बहुत कम है और युनाइटेड नेशन की यह रिपोर्ट कहती है कि भूकम्प की स्थिति में 5000 से 20000 तक लोग मारे जा सकते हैं। एनजीटी भी चेतावनी दे चुकी है कि बड़े भूकंप की स्थिति में 39 प्रतिशत इमारतें ढह जाएँगी। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण एक और समस्या है कि केवल एक कालका-शिमला सड़क लाइफ़ लाइन है। भूकंप की हालत में इसके ठप्प होने की पूरी सम्भावना है। प्रदेश के 25000 अवैध निर्माण में से 20000 केवल शिमला में हैं। और ज़रूरी नही कि यह सही आँकड़ा हो। मेजर जनरल अग्रवाल जिन्होंने 2013 में उत्तराखंड की बाढ़ के बाद बचाव कार्य को सुपरवाइज़ किया था, का कहना है कि ‘यहाँ कोई इलाज नज़र नहीं आ रहा। शिमला तबाही की इंतज़ार में हैं। अब केवल बचाव कार्यों पर ही ध्यान देना चाहिए’। कई विशेषज्ञों कह रहें हैं कि स्थिति इतनी निराशाजनक है कि शायद बचाव नहीं रहा।
हिमाचल सरकार निश्चित तौर पर चिन्तित होगी पर अपने से पहले की सरकारों की तरह बेबस नज़र आती हैं। पर इनसे शिकायत है कि वह कदम उठाना चाहतें हैं जो इलाज की जगह मरीज़ का दर्द बढ़ाने जा रहा है। सरकार की जो प्रस्तावित शिमला विकास योजना (एसडीपी) है, उसके अनुसार शिमला के ‘कोर एरिया’ में निर्माण की इजाज़त दी जाएगी ताकि ‘आवास की माँग को पूरा किया जा सके’। इस योजना के अनुसार उस अतिसंवेदनशील क्षेत्र में भी निर्माण की इजाज़त दी जाएगी जो बैठने वाला है अगर ‘ भूवैज्ञानिक’ इसकी इजाज़त दें’।अर्थात् यहाँ भी पैर फँसाने का रास्ता निकाल लिया गया है! सब से आपत्तिजनक है कि शिमला की सुरक्षित 17 ग्रीन बैलट में ‘सीमित निर्माण’ की इजाज़त दी जाएगी ‘अगर कुछ शर्तें मान ली जाएँ’। यहाँ भी चोर दरवाज़ा खोल दिया गया है। योजना के अनुसार इमारत की उंचाई और मंज़िलों पर लगी पाबंदी भी कुछ हटा दी जाएगी।
इस कथित विकास योजना को पर्यावरणविद विनाश योजना कह रहें हैं। इससे शिमला की हरी छत जो इसके फेंफड़े हैं, बुरी तरह से प्रभावित होगी। यह भी चिन्ता है कि इससे निर्माण की बाढ़ आ जाएगी जिसे राजनीतिक कारणों से सरकार रोक नहीं सकेगी। सरकार की सोच की दिशा चिन्ताजनक है क्योंकि यह योजना एनजीटी के 2017 के फ़ैसले, कि शिमला में निर्माण बिलकुल रोक दिया जाए, का उल्लंघन होगी। शिमला को बचाने के लिए एनजीटी ने जो लक्ष्मण रेखा खींची थी, यह उसका पूरा मज़ाक़ उड़ाती है। हिमालय का क्षेत्र नाज़ुक है इस पर और बोझ नहीं लादा जाना चाहिए। उल्टा शहर का जमाव कम करने की ज़रूरत है। एक रास्ता वहाँ से कुछ सरकारी दफ़्तर हटाने का हो सकता है पर किसी भी हिमाचल सरकार के पास यह करने का दम नही है। शिमला स्थित पर्यावरण विशेषज्ञ योगेन्द्र मोहन सेनगुप्ता का कहना है कि, ‘ यह तो पागलपन है। इस अनर्थक योजना के लिए न कोई वैज्ञानिक अध्ययन किया गया न कोई डेटा इकट्ठा किया गया’। एनजीटी भी कह चुकी है कि बोझ उठाने की शहर की क्षमता ख़त्म हो चुकी है।
शहर पर दबाव कम करने के लिए चार सैटेलाइट शहर तैयार करने का प्रस्ताव है जो सही फ़ैसला हो सकता है अगर इसे जल्दबाज़ी में लागू न किया जाए। लेकिन ग्रीन बेल्ट और ‘कोर क्षेत्र’ में निर्माण का फ़ैसला बिल्कुल ग़लत है और हिमाचल सरकार को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए बिना इसे वापिस लेना चाहिए। हमें कम नहीं, अधिक हरियाली की ज़रूरत है। पेड़ काटने की उत्तराखंड बहुत सजा पा चुका है, इससे सबक़ सीखने की ज़रूरत है। पहले ही शिमला अवैध और अव्यवस्थित निर्माण के कारण बदसूरत नज़र आता है। पहाड़ों की रानी की झुरियां साफ़ नज़र आती हैं। लोगों के घूमने फिरने की जगह कम हो रही है, बच्चों के खेलने के लिए ग्राउंड नहीं रहे, जलवायु बदल चुकी है।
शिमला को और विनाश से बचाने की ज़रूरत है। हिमाचल का सौभाग्य है कि यहाँ बहुत प्रबुद्ध वर्ग है जो सरकार की योजना का विरोध कर रहें हैं। 24 रिसर्चर और अध्यापकों के प्रतिनिधियों ने सरकार से अनुरोध किया है शिमला में निर्माण के उच्च घनत्व को देखते हुए मामले पर फिर से गौर किया जाए। पर इस वर्ग को और सक्रिय होना चाहिए। 1973 में सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में पेड़ काटने से रोकने के लिए उत्तराखंड में चिपको आन्दोलन शुरू हुआ था। यह अहिंसक आंदोलन दुनिया भर में मिसाल बन गया था। इस अग्रणी आन्दोलन का विशेष पक्ष था कि इसमें बड़ा योगदान ग्रामीण महिलाओं का था जो जानती हैं कि पेड़ काटने की कितनी क़ीमत चुकानी पड़ती है। हिमाचल प्रदेश को उनसे सीखना चाहिए। दुनिया भर में गलोबल वार्मिंग का भयावह असर देखने को मिल रहा है। अमेरिका और योरूप बुरी तरह तप रहें हैं। बढ़ते तापमान कारण कैलिफ़ोर्निया में सीमित एमरजैंसी लग चुकी है। फ़्रांस, स्पेन और पुर्तगाल में जंगल की आग 500,000 हेक्टेयर को लील गई है। ऐसी स्थिति से हमें प्रदेश और देश को बचाना है।
हिमाचल सरकार की सोच की दिशा चिन्ता पैदा करती है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का कहना है कि प्रकृति से लेना ही नहीं, उसे लौटाना भी चाहिए। वह उस जनजाति समुदाय से सम्बंध रखतीं हैं जिसे प्रकृति से लेना ही नहीं, देना भी सिखाया जाता है। हिमाचल प्रदेश के नेतृत्व को भी समझना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों के प्रति उनकी भी ज़िम्मेवारी है। सब कुछ वोट नहीं, जीवन के प्रति भी उनका कर्तव्य बनता है। प्रदेश और विशेष तौर पर शिमला के प्रति रोमांस को ख़त्म नही होने देंना। कहीं यह न हो कि पर्यावरण की तबाही के बाद भावी पीढ़ियों को आज के नेतृत्व के बारे कहना पड़े,
जो मेरे कत्ल का इंसाफ़ करने वाले हैं,
उन्हीं के हाथ में ख़ंजर है, क्या किया जाए?