अच्छी बात है कि संसद की कार्यवाही पटरी पर लौट आई है। आशा है अब दुर्घटना नहीं होगी। पर पहले 15 दिन इधर उधर के तमाशों पर बर्बाद कर दिए गए। महंगाई,जीएसटी, अग्निपथ, चीन का अतिक्रमण, बढ़ती बेरोज़गारी, रूपए की स्थिति, जैसे मामलों पर सार्थक बहस होनी चाहिए। अगर यह प्रभाव फैल गया कि संसद मसलों का हल करने में प्रभावहीन है या प्रासंगिक नहीं रही तो लोगों के पास सड़कों पर उतरने का ही विकल्प रह जाएगा। कई संकेत है कि धीरज कम हो रहा है। संसद में टकराव नफ़रत से भरा और व्यक्तिगत बनता जा रहा है। तू तू मैं मैं उन मसलों पर होती रही है जिनका आम जनता से कोई मतलब नहीं। दो दर्जन के क़रीब विपक्षी सांसद निलम्बित हो चुकें हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण पूर्ण है पर यह पहली बार नहीं हुआ। विपक्ष चाहे कितना भी चिल्लाए, हर सरकार ने अपने विपक्ष साथ ऐसा ही सलूक किया है। राजीव गांधी के समय लोकसभा के 63 सांसदों को निलम्बित किया गया था।
संसद की एक मिनट की कार्यवाही का खर्चा 3 लाख रूपए के लगभग है। अर्थात् हर अधिवेशन में हंगामे के कारण जनता का करोड़ों रूपए बर्बाद होता है। उससे भी अधिक महत्व यह रखता है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने प्रति लोगों के विश्वास को बर्बाद कर रहें हैं। चुनावों का क्या फ़ायदा, वोट का क्या फ़ायदा, अगर हमारे मसलों पर विचार ही नहीं होना ? संसद की गरिमा लगातार कम होती जा रही है। ज़िम्मेवारी दोनों पक्षों पर है पर जैसे विपक्ष में रहते एक बार सुषमा स्वराज ने भी कहा था, संसद सही चलाने की असली ज़िम्मेवारी सरकार की है। सरकार के पास अपना प्रचंड बहुमत है फिर भी विपक्ष को साथ लेकर चलना है। संसद देश की सर्वोच्च संस्था है जहां सबको, विशेष तौर पर विपक्ष को, अपनी बात कहने का अधिकार होना चाहिए। जिस तरह पिछले सप्ताह सोनिया गांधी को टार्गेट किया गया वह अशोभनीय था। सोनिया गांधी की राजनीति से मतभेद हो सकता हैं पर एक बात तो माननी पड़ेगी कि संसद के अन्दर उन्होंने कभी अमर्यादित व्यवहार नहीं किया।
लेकिन सारी ज़िम्मेवारी सरकार की ही नहीं। विपक्ष भी बहुत सयाना नज़र नहीं आता। एक तरफ़ कहा जा रहा है कि हम महंगाई और दूसरे मसलों पर बहस चाहते हैं तो दूसरी तरफ़ संसद के अन्दर हुल्लड़बाजी कर खुद निश्चित किया गया कि बहस न हो। सदन के अन्दर वैल में तख़्तियों के साथ जाना और पीठासीन अधिकारी को काम करने से रोकने का प्रयास करना तो जानबूझकर उत्तेजना देना है। विपक्ष के एक वरिष्ठ सांसद तो काग़ज़ फाड़ कर पीठासीन अधिकारी पर फेंक रहे थे। यह अनुचित ही नहीं बेहूदा व्यवहार और बदतमीज़ी है। उसके बाद विपक्ष कैसे कह सकता है कि हमसे ज़्यादती की गई है? अगर विपक्ष ऐसे मौक़े न देता तो सरकार को भी उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही का मौक़ा न मिलता। अच्छी बात है कि अब आश्वासन दिया गया कि वह तख़्तियों को अंदर लेकर नहीं आएँगे। संसद चलेगी तब ही वह सरकार से सवाल कर सकेंगे।सांसदों को यह भी समझना चाहिए कि जो सदन के अंदर होता है उसका असर देश भर पर पड़ता है। छात्र भी कहतें हैं कि संसद के अंदर यह हो सकता है तो हम क्यों अनुशासनहीन नहीं हो सकते?
लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी का व्यवहार देखिए जिन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को ‘राष्ट्रपत्नि’ कह दिया। बाद में उन्होंने माफ़ी माँग ली पर उनके बेहूदा कथन के बाद संसद में जो हंगामा हुआ उसके लिए वह सीधे तौर पर ज़िम्मेवार है। यह कोई बहाना नहीं कि मुझे हिन्दी सही नहीं आती क्योंकि मैं बंगलाभाषी हूँ इसलिए चूक हो गई। वर्षों संसद में गुज़ारने के बाद भी अगर वह सेना के सर्वोच्च कमांडर को ‘राष्ट्रपत्नि’ कह रहें हैं तो साफ़ है कि वह पद के उपयुक्त नहीं हैं। पिछले आठ वर्षों में वह कई विवादित बयान दे चुकें है। उन्हें तो कभी का हटा दिया जाना चाहिए था। कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि वह बदलने को तैयार नहीं। घिसेपिटे मोहरों से वह भाजपा से बाज़ी नहीं जीत सकते। भाजपा लगातार अपना नवीनीकरण करती जा रही है पर कांग्रेस वहीं की वहीं जमी हुई है।पवन खेड़ा या श्रीनिवास बीवी जैसे लोग जो आगे आकर पार्टी और परिवार के विरोधियों का सामना कर रहें हैं, उन्हें मौक़ा कब मिलेगा? पवन खड़ा ने अफसोस के साथ कहा भी है कि ‘शायद मेरी तपस्या में कोई कमी रह गई है’। समय के साथ भाजपा बदली है यहाँ तक कि दलबदलुओं को स्वीकार करने लगी है, पर कांग्रेस के प्रथम परिवार ने पार्टी को खुद की कमर से बांध लिया है। यही कारण है कि अधीर रंजन चौधरी जैसे धारावाहिक दोषी वहाँ फल फूल रहें हैं। शायर शाहीन भट्टी के साथ कहना चाहूँगा,
उन्वान बदल गए है, फँसाने बदल गए
तू भी बदल कि अब तो ज़माने बदल गए !
‘राष्ट्रपत्नि’ विवाद के बाद सोनिया गांधी ने सवाल किया था कि, मेरा क़सूर क्या है? उनका क़सूर है कि उन्होंने अधीर रंजन चौधरी जैसे, जिनकी बात न उन्हें खुद समझ आती है न दूसरों कों, को देश पर लाद दिया है। निश्चित तौर पर कांग्रेस में अधिक प्रतिभाशाली लोग मौजूद हैं। न ही कांग्रेस लोगों की समस्याओं को लेकर ही सत्तापक्ष को घेरने में सफल रही है। 20-24 वर्ष के युवाओं में बेरोज़गारी की दर 44 प्रतिशत है। क्या विपक्ष को इसकी चिंता भी है? महंगाई को लेकर प्रदर्शन उस दिन किया गया जिस दिन सोनिया गांधी से ईडी पूछताछ कर रही थी। अगर लोग समझें कि प्रदर्शन उनकी तकलीफ़ों को लेकर नहीं, अपनी तकलीफ़ों को लेकर हो रहा है तो ग़लत नहीं होगा। पार्टी यह प्रभाव दे रही है कि वह केवल एक परिवार के लिए ही सड़क पर उतर सकती है।
इस देश में उन लोगों के साथ कोई सहानुभूति नहीं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहें हैं। इस संदर्भ में ममता बैनर्जी और उनकी टीएमसी ने खोया ही खोया है। जिस तरह टीएमसी में दूसरे नम्बर पर रहे पार्थ चटर्जी की निकटवर्ती अर्पिता मुखर्जी के घरों से लगातार नोट निकल रहें है, उसने इस समय तो दीदी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को पलीता लगा दिया है। भर्ती के लिए शिक्षिको की मजबूरी का फ़ायदा उठा कर ममता के दो नम्बर के मंत्री अपनी सहायक के द्वारा करोड़ों रूपए इकट्ठे करते रहें। और पास बैठी मुख्यमंत्री को पता ही नहीं चला? इससे पहले भी पश्चिम बंगाल में शारदा और नारदा घोटाले हो चुकें हैं। टीएमसी लगातार चुनाव जीतती आ रही है पर हैरानी की बात है कि इस ताक़त का इस्तेमाल खुद को साफ़ रखने और पार्थ चटर्जी जैसी काली भेड़ों को अलग करने में नहीं लगाया गया। जैसे जैसे नोट बाहर आ रहें है, ममता बैनर्जी की छवि गिरती जा रही है। देश को चलाने के लिए केवल तीखी भाषा का इस्तेमाल ही काफ़ी नहीं। यह ‘बंगाल मॉडल’ आकर्षित नही करता।
ईडी के बार-बार इस्तेमाल को लेकर विवाद है। संसद में बताया गया कि मोदी सरकार के आठ सालो में ईडी के छापों में 27 गुना वृद्धि हुई है। 2005-14 के बीच केवल 112 छापे मारे गए थे जबकि 2015-22 के बीच 3010 छापे मारे गए हैं। राहुल गांधी से 50 घंटे पूछताछ का क्या तुक है? क्या यही काम 10 घंटे में पूरा नहीं हो सकता था? सरकार को इस आलोचना से बचना चाहिए कि वह सरकारी एजेंसियों के द्वारा अपने विरोधियों पर निशाना बना रही है और विपक्षी पार्टियों को तोड़ना चाहती है। शायद ही कोई विपक्षी पार्टी बची हो जिसके किसी न किसी नेता को निशाना न बनाया गया हो। और भाजपा में कोई नहीं जो भ्रष्ट है? जो एजेंसियों से बचने के लिए दलबदल कर भाजपा में शामिल हुए, वह वाइटवॉश हो गए क्या? सरकार को इन एजेंसियों की विश्वसनीयता का ध्यान रखना चाहिए विशेषतौर पर इसलिए भी कि अपराध सिद्धि की दर 5 प्रतिशत से कम है। इससे यह प्रभाव मिलता है कि क़ानूनी प्रक्रिया ही सजा है, चाहे बाद में सजा हो न हो।
दोनों पक्षों को अपनी अपनी भूमिका पर गौर करना चाहिए। केवल नरेन्द्र मोदी की आलोचना विपक्ष का एकमात्र मक़सद नहीं होना चाहिए। विशेष तौर पर जब खुद विपक्ष बुरी तरह से विभाजित है जैसा राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के चुनाव को लेकर पता चलता है। राष्ट्रपति के चुनाव में कई विपक्षी पार्टियों ने द्रौपदी मुर्मू का समर्थन किया और उपराष्ट्रपति के चुनाव में टीएमसी बहिष्कार करने जा रही है क्योंकि ‘उनसे बात नहीं की गई’। विपक्ष का यह जो बिखराव है वह भाजपा की सबसे बड़ी ताक़त है। सब विपक्षी पार्टियों अपनी अपनी डफली बजा रहीं हैं।सबकी अपने प्रदेश या अपने नेतृत्व के निजी हित से आगे कोई सोच नहीं। भाजपा का मुक़ाबला करने का दम नहीं है, और न ही इच्छा शक्ति नज़र आती हैं।
भाजपा अध्यक्ष नड्डा का कहना है कि भाजपा से लड़ने की क्षमता किसी में नहीं हैं। बात ग़लत नहीं पर क्या लोकतन्त्र की सेहत के लिए यह सही है? भाजपा ज़रूर कहेंगी कि अगर विपक्ष आत्महत्या करना चाहता है तो हम क्या कर सकते हैं पर लोकतंत्र को सही चलाने के लिए दोनों सत्तापक्ष और विपक्ष की ज़रूरत है। अगर कोई रोकने वाला नहीं होगा तो भाजपा भी तानाशाह बन जाएगी जो न देश के लिए सही होगा, न भाजपा के अपने लिए। अगर देश में तनाव बढ़ता गया तो शासन के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। उदयपुर और अमरावती की भयानक घटनाएँ बताती हैं कि अगर साम्प्रदायिक जुनून हद से बढ़ जाए तो उग्रवादी और हिंसक तत्वों को मौक़ा मिल जाता है। ज़रूरत से अधिक ध्रुवीकरण का प्रयास भी देश के अन्दर और बाहर परेशानी पैदा कर सकता है। बहरहाल संतोष है कि संसद चल रही है। संसद भवन के ठीक सामने महात्मा जी की विशाल प्रतिमा लगी है। उनकी दयालु नज़र अंदर की तरफ़ है।वह कभी अराजकता की अनुमति न देते। फिर कभी अन्दर अशोभनीय हंगामा करना हो तो पहले उनसे निवेदन कर लें कि बापू, अपनी पीठ कर लो !