जब ब्रिटेन में भारत को आज़ाद करने पर चर्चा हो रही थी तो उनके पूर्व प्रधानमंत्री विंसेंट चर्चिल ने अपनी संसद में विलाप करते हुए चेतावनी दी थी, “अंग्रेजों के जाने के कुछ समय बाद भारत अपनी सदियों पुरानी रूढ़ियों के कारण मध्यकालीन और प्राचीन व्यवस्था में पहुँच जाएगा। ऐसे में अगर भारत 50 वर्ष भी आज़ाद रहे तो गनीमत होगी अन्यथा वह फिर गुलाम हो जाएगा…”। चर्चिल का कहना था कि “यह तिनकों से बने लोग हैं जिनका कुछ वर्षों के बाद नामोनिशान भी नहीं मिलेगा”। इस 15 अगस्त को जब हम जोश और आत्मविश्वास से अपनी आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं और हमारी अर्थव्यवस्था शीघ्र चर्चिल के देश से आगे निकलने वाली है, यह संतोष है कि हमने चर्चिल जैसे बदमाश और दूसरे जो हमारे अंत और बिखराव का इंतज़ार कर रहे थे, को ग़लत साबित कर दिया है। अपनी लाख कमज़ोरियों और विभिन्नता के बावजूद भारत एक उभरती महाशक्ति है जिसे हर कोई अपने साथ रखना चाहता है।
आज के दिन ज़रूरी है कि हम उन्हें याद करें जिन्होंने आजादी के लिए संघर्ष किया, क़ुर्बानियाँ दी और उसे हासिल किया। सूची बहुत लम्बी है। गांधीजी के नेतृत्व में हमारा आज़ादी का संघर्ष दुनिया के लिए मिसाल बना और बहुत और देशों ने बाद में आज़ादी प्राप्त की। मैं पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का विशेष उल्लेख करना चाहता हूँ कि उन्होंने स्वस्थ परम्पराएँ क़ायम की जो आज तक हमारे काम आ रही हैं। अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में वह लिखतें हैं, ‘ हम प्राचीन हैं और हमारा सम्बंध मानवीय इतिहास के शुरुआती दौर से है, पर हमें वर्तमान समय के साथ फिर से युवा रहना है’।अर्थात् अपनी परम्पराओं को सम्भालते हुए हमें आधुनिक दुनिया से संपर्क रखना है। ठीक है उनसे ग़लतियाँ हुईं पर जैसे राजनाथ सिंह ने भी कहा है कि उनकी नीयत या इरादे पर कोई शक नहीं है। आशा है कि और भी नेता इसी तरह नेहरू के योगदान को सही दृष्टिकोण से देखेंगे। वैसे ग़लतियाँ किस प्रधानमंत्री और किस सरकार से नहीं हुईं? अगर भारत पाकिस्तान की राह पर नहीं चला तो इसका बड़ा श्रेय नेहरू के नेतृत्व को जाता है। आज़ादी के समय 18 लाख विस्थापित थे, 10 लाख मारे गए थे। दंगे हो रहे थे। भुखमरी थी। चारों तरफ़ आग लगी थी। ऐसे टूटे हुए देश को सम्भालना कितना बड़ा काम रहा होगा? 500 से अधिक रियासतों को शामिल कर सरदार पटेल ने वह काम कर दिखाया जो कोई महामानव ही कर सकता था। आज़ाद हिंद फ़ौज खड़ी कर सुभाष बोस ने भी अंग्रेजों को संदेश दे दिया कि भारत को अधिक देर पराधीन नहीं रखा जा सकता। भगत सिंह ने कहा था कि अगर वह शहीद की मौत मारे गए तो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करते जाएँगे। वह कितने सही निकले !
देश को इकट्ठा करना और भविष्य की नींव रखना कितना मुश्किल है यह हमारी विभिन्नता से पता चलता है। यहाँ 780 भाषाएँ बोली जाती है। अब 22 सरकारी भाषाएँ हैं। देवी देवता कितने है यह ही कोई निश्चित नहीं कह सकता। अनुमान लाखों से करोड़ों तक का है। अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘यह अद्भुत देश है जहां एक पत्थर को भी तिलक लगा कर पूजा जा सकता है’। और अगर आप पूजा नहीं करना चाहते तो भी आप हिन्दू हैं। विभिन्न जातियों की संख्या कितनी है यह भी पक्का नहीं है। इसके बावजूद, राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद, कई बार अस्तित्व को ख़तरे के बावजूद, देश दृढ़ता पूर्ण ढंग से आगे बढ़ रहा है और दुनिया के ताकतवार लोकतांत्रिक देशो में गिना जा रहा है। जब हम आज़ाद हुए तो यहाँ निरक्षरों की दर 84 प्रतिशत थी आज साक्षरता दर 80 प्रतिशत के क़रीब है। अब तो हम इस स्थिति में आ गए हैं कि फाइटर प्लेन निर्यात कर रहें हैं।
हमारा अतीत गौरवशाली रहा है। प्राचीन मंदिरों पर नक़्क़ाशी एक उत्कृष्ट सभ्यता का प्रमाण देती है।हमने दुनिया को बहुत बुद्धिजीवी, दार्शनिक, वैज्ञानिक,लेखक, वैचारिक दिए हैं। टैगोर ने कहा था, “ मैं भारत से प्यार करता हूँ इसलिए नहीं कि मैं इसके भूगोल की पूजा करता हूँ … पर इसलिए कि इसने अपने महान लोगों की प्रबुद्ध शिक्षा को सम्भाल कर रखा है”।लेकिन बीच में कहीं हमारा पतन हो गया। हम आपस में लड़ते मरते रहें और विदेशी दुश्मन फ़ायदा उठा गया। मुग़लों ने अनगिनत मंदिर गिराए, लेकिन वह बाद में यहाँ ही शादी विवाह कर बस गए। जिन राजाओं ने अपनी बेटियाँ या बहनें मुग़लों को विवाह में दी, उनके बारे क्या कहा जाए? अगर मुग़लों का और बाद में अंग्रेजों का यहाँ विस्तार हुआ तो उनकी मदद करने वाले हमारे ही हमवतन थे। यह हमारे चरित्र में जो खोट है वह बहुत बड़ी कमजोरी है। जलियाँवाला बाग में गोली चलाने का आदेश डायर ने दिया था, पर निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने वाले तो अपने ही थे।
ब्रिटिश इतिहासकार एंगस मैडिसन ने लिखा है कि अनुमान है कि सन् 1700 में विश्व की जीडीपी का आधा हिस्सा भारत और चीन का था जो अंग्रेजों के जाने के समय कम हो कर 10 प्रतिशत रह गया था। शशि थरुर ने भी अपनी किताब, एन इरा ऑफ डारकनैस में लिखा है कि मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश पर नियंत्रण किया तो दुनिया की जीडीपी में भारत का हिस्सा 23 प्रतिशत था, और जब वह गए तो यह मात्र 3 प्रतिशत रह गया था। आज़ादी से पहले रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजों को फटकार लगाते लिखा था, “वह कैसा भारत छोड़ जाएँगे? कैसी ग़रीबी, कैसी तबाही ? जब उनके प्रशासन की नदी आख़िर में सूख जाएगी तो पीछे वह कितना कीचड़ और गंदगी छोड़ जाएगी”?
आज हम अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और यूके के बाद दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं लेकिन बीच में जो पतन हुआ उससे सबक़ सीखने की ज़रूरत है। भारत तब ही तरक़्क़ी करेगा अगर आंतरिक शान्ति और सौहार्द होगा। दुनिया के नए नए सही विचारों के लिए हमें खुलें रहना है। यहाँ लगातार हिंसा,बढ़ती असहिष्णुता, गहराता टकराव सब एक अस्वस्थ समाज के अनिष्टसूचक हैं। बढ़ती बेरोज़गारी, विशेष तौर पर पढ़ेलिखे युवाओं में, बहुत ख़तरनाक संकेत हैं। राजनेताओें का दलबदल बताता है कि करैक्टर ढीला है! अल्पसंख्यकों में फैल रही बेचैनी भी देश की सेहत कि लिए शुभ संकेत नहीं है। इसे ख़त्म करने की तरफ़ विशेष ध्यान देना चाहिए। इतिहास बार बार बताता है कि हम पर दुश्मन तब ही हावी हुआ है जब जब हम आंतरिक तौर पर कमजोर हुए हैं।
राहुल गांधी की शिकायत है कि ‘देश के लोकतंत्र की मौत हो गई है’। यह दावा उन्होंने उस दिन किया जिस दिन खुद उन्होंने और उनके पार्टीजनों ने काले कपड़े डाल कर सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किया। यह ही बताता है कि देश लोकतंत्र मरा नहीं, उल्टा पूरी तरह से जीवित और दबंग है। अगर तानाशाही होती तो राहुल गांधी और पार्टी उग्र प्रदर्शन न कर सकते। वह बार बार मीडिया से मिलते है, क्या कोई रोक है? हाल ही में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नीति आयोग की बैठक हुई है। विपक्षी प्रादेशिक सरकारों के मुख्यमंत्रियों ने खूब सरकार की आलोचना की है। बिहार और तेलंगाना के मुख्यमंत्री तो बैठक में आए नहीं। बिहार का ताज़ा घटनाक्रम जहां नीतीश कुमार ने भाजपा को तलाक़ दे दिया है, भी बताता है कि नेता पहले की तरह अवसरवादी हैं और लोकतंत्र को यहाँ कोई ख़तरा नहीं। लोकतंत्र अंग्रेज़ी के मुहावरे के अनुसार अलाइव एंड किकिंग है! चुनाव यहाँ सदैव निष्पक्ष होते है। लेकिन सरकार को ज़रूर यह प्रभाव ख़त्म करना चाहिए कि उसने सरकारी एजेंसियों को विपक्षी नेताओं के पीछे छोड़ रखा है।
जश्न का दूसरा बड़ा कारण है कि श्रीमति द्रौपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति बन गई है। उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले की एक आदिवासी संथल महिला का राष्ट्रपति बनना बड़ा सकारात्मक कदम है। यह देश का दूसरा सबसे पिछड़ा ज़िला है। संथल समुदाय की केवल 60 लाख जनसंख्या है लेकिन द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से पूरे आदिवासी समुदाय, जो विकास के हाशिए पर है, को संदेश गया है कि वह सदा उपेक्षित नहीं रहेंगे। नए राष्ट्रपति ने कहा भी है कि उनका राष्ट्रपति बनना इस बात का प्रमाण है कि गरीब सपने देख सकता है, और उन्हें पूरा भी कर सकता है। जो 6000 से अधिक साल से पीड़ित हैं, जो शिकायत दिसम्बर 1946 में संविधान सभा में बोलते हुए जयपाल मुंडा ने कही थी, उन्हीं की प्रतिनिधि को सर्वोच्च पद पर बैठाना वास्तव में लोकतंत्र का जश्न है। द्रौपदीजी के चुनाव के लिए मैं विशेष तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच की प्रशंसा करना चाहता हूँ। वह वहाँ पहुँच गए जहां आजतक कोई नहीं पहुँचा और साबित कर गए कि हमारे लोकतंत्र में खुद को सही करने की पूरी क्षमता।
अपना कार्यकाल गरिमा से पूरा कर रामनाथ कोविंद सेवामुक्त हो गए हैं। वह अब सोनिया गांधी के बग़ल वाले 12 जनपथ के बंगले में रहेंगे। उन्हें पैंशन के इलावा मुफ़्त आवास, ट्रैवल और सचिव स्टाफ़ मिलेगा। यह केवल हमारे देश में ही होता है कि जब हमारे राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ‘पूर्व’ हो जाते हैं तो उन्हें बड़े सरकारी बंगले में रहने के लिए भेज दिया जाता है, ख़र्चा करदाता उठातें है। मुझे तब बड़ी निराशा हुई थी जब अब्दुल कलाम और मनमोहन सिंह रिटायर हो कर सरकारी बंगले में चले गए। आशा थी कि ऐसे साफ़ सुथरे लोग तो सही परम्परा क़ायम करेंगे कि बहुत हो चुका, अब हम जनता पर और बोझ नहीं बनना चाहते। अमेरिका और ब्रिटेन के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री रिटायर हो कर निजी मकान या किराए के मकान में चले जाते हैं, पर हमारे माननीय एक सरकारी बंगले से हट कर दूसरे सरकारी बंगले में शिफ़्ट हो जाते हैं और खर्चा पहले की तरह हम उठाते हैं। चुनाव के समय जो मुफ़्त करने की घोषणाएं की जाती हैं को लेकर आजकल बहुत बहस चल रही है। यह ‘फ़्रीबीज’ निश्चित तौर पर ख़ज़ाने पर बोझ है। लेकिन जिस ‘फ़्रीबी’ का लुत्फ़ माननीय उठाते हैं, वह क्या बोझ नहीं है? रिटायर होने के बाद वह हमारे मेहमान क्यों रहें ? अरविंद केजरीवाल ने सही सवाल उठाया है कि अगर मंत्री मुफ़्त बिजली के अधिकारी हैं तो आम आदमी क्यों नहीं ? 75 साल के बाद इस एकपक्षिए उदारता पर पुनर्विचार की ज़रूरत है।