अमेरिका की 82 वर्षीय स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा से यूक्रेन के बाद दुनिया में एक और बड़ा संकट खड़ा हो गया है। अमेरिका यूक्रेन के कंधे पर बंदूक़ रख रूस की तरफ़ चला रहा है पर ताइवान में चीन के नेतृत्व को सीधी चुनौती दे दी गई है। चीन के घोर विरोध के बावजूद नैंसी पेलोसी ने ताइवान की यात्रा की और वहाँ घोषणा की कि अमेरिका सदा ताइवान के साथ रहेगा। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन भी एक प्रकार से कह चुकें हैं कि अगर चीन वहाँ हमला करता है तो अमेरिका हस्तक्षेप करेगा। अमेरिकी सरकार का ज़रूर कहना था कि पेलोसी की यात्रा में हमारा कोई हाथ नहीं और स्पीकर अपना कार्यक्रम खुद बनातीँ हैं, पर यह सम्भव नहीं कि ऐसी हाई प्रोफ़ाईल यात्रा वहाँ की सरकार की अनुमति के बिना आयोजित की गई हो। क्योंकि चीन धमकियाँ दे रहा था और ताइवान के आकाश में अपने फ़ाईटर प्लेन उड़ा रहा था इसलिए नैंसी पेलोसी के विमान को अमेरिका के फ़ाईटर जहाजों ने एस्कॉर्ट किया था। आसपास के समुद्र में अमेरिका का जंगी बेड़ा गश्त कर रहा था। पेलोसी की ताइपे यात्रा के 12 दिन के बाद अमेरिकी सांसदों के एक और प्रतिनिधि मंडल की वहाँ की यात्रा बताती हैं कि सब सोची समझी नीति का हिस्सा है। अमेरिका चीन को ललकार रहा है और नपुंसक क्रोध में जहाज़ और मिसाईले इधर उधर चलाने के सिवाय चीन कुछ नहीं कर सका। पेलोसी की यात्रा से कुछ दिन पहले चीन के राष्ट्रपति शी जीनपिंग ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन को बातचीत में धमकी दी थी कि वह ‘आग से न खेलें’। बाइडेन झुके नही और शी जीनपिंग कुछ विशेष नहीं कर सके।
चीन के उत्थान में अमेरिकी सहयोग और टेक्नोलॉजी का बड़ा हाथ रहा है। चीन को दुनिया का मैनुफ़ैक्चरिंग हब अमेरिका ने बनाया है। सोच थी कि हमारा उनके साथ हितों का टकराव नही है। तब चीन के समझदार नेता डैंग ज़ियाओपिंग ने कहा था, ‘अपनी क्षमता को छिपाओ, अपनी स्थिति को मज़बूत करो, अपने समय का इंतज़ार करो, पर कभी नेतृत्व पर दावा न करो’। यह समझ शी जीनपिंग ने नहीं दिखाई और समय से पहले अमेरिका को चुनौती दे बैठे। उन्होंने अपने पड़ोस में भी उत्पात मचा रखा है। यह तो शायद अमेरिक बर्दाश्त कर जाता पर चीन ने तो अमेरिका की सरदारी को चुनौती दे दी। वह डालर की जगह वैकल्पिक मुद्रा व्यवस्था तैयार करने की बात करने लगे जो अमेरिका कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसलिए अब चीन और विशेष तौर पर शी जीनपिंग जो वर्षांत में कम्युनिस्ट पार्टी के 20वें सम्मेलन में तीसरी बार राष्ट्रपति बनना चाहते हैं, और माओ जेडांग की तरह ‘चेयरमैन’ का पद हासिल करना चाहते हैं, को सीधी चुनौती दी गई है।
अभी तक अमेरिका ताइवान के मामले में ‘सामरिक अस्पष्टता’ का प्रयोग करता रहा है। एक तरफ़ वह ‘वन चायना’ नीति का समर्थन करता रहा तो दूसरी तरफ़ चीनी हमले की सूरत में ताइवान की सुरक्षा के प्रति अपनी कटिबद्धता व्यक्त करता रहा है। पेलोसी की यात्रा के बाद यह अस्पष्टता अधिक देर जारी रखना मुश्किल होगा। एक बड़ा कारण है कि अमेरिका के लोग अब चीन को खलनायक देखने लगे है जिसने अमेरिकी नौकरियाँ चुरा ली, अमेरिका के कारख़ाने बंद करवा दिए, कोविड को दुनिया भर में फैला दिया और अमेरिकी हितों को चुनौती दे रहा है। चीन की यह अलोकप्रियता सारे पश्चिमी दुनिया में फैल गई है। कुछ प्रभाव कम होने के बावजूद अमेरिका अभी भी सुपरपावर है और वैश्विक संस्थाओं पर उसका नियंत्रण है। ऐपी की रिपोर्ट के अनुसार हाल ही में अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए की बैठक में यह तय किया गया कि अल क़ायदा और दूसरे उग्रवादी संगठनों से निबटना जारी रहेगा पर ‘ एजेंसी का पैसा और साधन चीन पर अधिक से अधिक फ़ोकस किए जाऐँगे’। रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियां कई सौ अधिकारियों को आतंकवाद का सामना करने से हटा कर चीन पर केन्द्रित कर रहीं है।
चीन फँस गया है। वह आसपास के देशों पर अपनी धौंस जमा सकता है पर अपनी बढ़ी ताक़त के बावजूद अमेरिका से मुक़ाबला करना अभी उसके बूते से बाहर है। क्वाड जैसे गठबंधन बना अमेरिका ने चीन की परेशानी बढ़ा दी है। वाशिंगटन में चीनी मूल के विशेषज्ञ युन सॉन लिखतें हैं, ‘चीन ज़रूरत से अधिक धमकियाँ देता रहा है। वह समझते हैं कि युद्ध भड़काने की धमकियाँ दे कर वह अपना काम निकाल लेंगे। लेकिन उन्हें अपनी विश्वसनीयता की क़ीमत चुकानी पड़ रही है’। नैंसी पेलोसी की यात्रा को रोकने में असफल रहना चीन के नेतृत्व के लिए भारी शर्मिंदगी है। चीन की असफलता के तीन कारण नज़र आते हैं। एक, वह अभी अमेरिका का मुक़ाबला नहीं कर सकते। शी जीनपिंग अपनी ताक़त को अधिक और अमेरिका की ताक़त को कम आंकने की गलती कर गए हैं। सिंगापुर की नैशनल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर चॉग जा इयान लिखते है, ‘ बीजिंग लड़ाई बढ़ाना नहीं चाहता क्योंकि वह इसे नियंत्रित नहीं कर सकता’। सीएनएन ने एक रिपोर्ट में लिखा है कि पेलोसी की यात्रा का अमेरिका-चीन के रिश्तों पर ‘गम्भीर प्रभाव’ पड़ा है। इससे चीन और शी जीनपिंग की छवि को धक्का पहुँचा है। वह अमेरिका के साथ बढ़ते टकराव में कमजोर नज़र आ रहे है जिसका इस क्षेत्र के देशों पर चीन के प्रभुत्व पर असर पड़ेगा। दूसरी तरफ़ अमेरिका भी जानता है कि सुपरपावर की उसकी विश्वसनीयता इस बात पर निर्भर करती है कि वह ताइवान को चीन द्वारा निगलने से कैसे बचाता है? उनके लिए भी परीक्षा की घड़ी है।
दूसरा, कारण है कि ताइवान यूक्रेन नहीं। वैसे तो पश्चिम की सहायता से यूक्रेन भी छ: महीनों से रूस से बराबर लड़ रहा है और वहाँ गतिरोध की स्थिति है। कोई भी विजेता नहीं और न ही यह नज़र आता है कि युद्ध जल्द ख़त्म होने वाला है। ताइवान यूक्रेन से अधिक ताकतवार है। ताइवान के इर्द-गिर्द अभ्यास में चीन वहां तक इस बार गया है जहां तक वह पहले नहीं गया। संदेश है कि वह जब चाहे ताइवान का दाना पानी यानी आकाश और समुद्र के प्रवेश मार्ग रोक सकता है पर चीन जानता है कि ताइवान पर सैनिक विजय उनके बल से बाहर है। लड़ाई लम्बी चलेगी जिसके अनपेक्षित परिणाम निकल सकते हैं। अमेरिका का सीधा दखल भी चीन नहीं चाहेगा। ताइवान सैमीकंडकटर के निर्माण का हब है। दुनिया के 47 लाख चिप-सैमीकंडकटर का आधा हिस्सा ताइवान में बनता है। यह चिप स्मार्टफ़ोन से लेकर कम्प्यूटर, कारों और विमानों तक इस्तेमाल होते हैं। अगर जंग छिड़ी तो चीन समेत सारी दुनिया पर बुरा असर पड़ेगा।
तीसरा, बड़ा कारण है कि चीन की अर्थव्यवस्था इस वकत बहुत सेहतमंद नहीं है। चीन का रियेल एसटेट जहां चीन की दौलत का 70 प्रतिशत लगा है, बहुत संकट में है क्योंकि माँग नहीं रही। डीफ़ॉल्ट के कारण कई बैंक खतरें में आ गए हैं और अनुमान है कि 500000 डिपासिटर का पैसा डूब गया है। कई शहरों में प्रदर्शन हो चुकें हैं। कोविड के कारण बार बार लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा है। वहाँ ज़ीरो-कोविड नीति है अर्थात् कोई छूट नहीं। उन्हें आशंका है कि प्रतिबंध हटाने से लाखों लोगों की मौत हो सकती है। 20 करोड़ की आबादी ऐसे प्रतिबंधों के दायरे में है। परिणाम है कि मैन्यूफ़ैक्चरिंग बुरी प्रभावित हुई है और पहली बार निर्यात 4 प्रतिशत से नीचे गिर गए हैं। आईएमएफ़ ने 2022 में चीन की विकास की दर नीचा कर 3.3 प्रतिशत रखी है जो 40 वर्षों में सबसे कम है और हम से आधी से कम है। अगर ऐसी हालत में चीन जंग करता है तो वह दस साल पीछे चले जाएगा। इस मामले में चीन की बेबसी जगज़ाहिर हो चुकी है। अमेरिका के पास अपना तेल है, चीन को अधिकतर आयात करना पड़ता है। मल्लका स्ट्रेट बंद कर अमेरिका चीन की यह लाईफ़लाइन बंद कर सकता है। अगर चीन अमेरिका का मुक़ाबला कर सकता हो तब ही वह ताइवान पर हमला करेगा, ऐसी स्थिति नहीं है। यह चीन की बड़ी दुविधा है। चीन ने भारत समेत दक्षिण और पूर्वी ऐशिया को संदेश भेजने की कोशिश की थी कि अगर चीन का प्रतिरोध किया गया तो सैनिक दबाव के लिए तैयार रहें। अमेरिका को भी बताया गया कि उसे चुनौती मिल रही है और वैश्विक पावर-पालिटिक्स का नया युग शुरू होने जा रहा है। पर चीन का आँकलन ग़लत निकला।
नई दिल्ली की नज़रें ताइवान के संकट और चीन की हरकतों पर हैं। लददाख में उसकी कार्यवाही के बावजूद चीन चाहता है कि सम्बंध सामान्य हो जाएँ पर हमारे विदेशमंत्री ने बार बार बता दिया कि सम्बंध बुरे दौर से गुजर रहें हैं क्योंकि चीन पुराने वादे और पुराने समझौतों का पालन नहीं कर रहा। चीन के विशेषज्ञ लियू ज़ोंगयी ने उनके सरकारी पत्र गलोबल टाईम्स में दिलचस्प टिप्पणी की है, ‘भारत की इच्छा है कि वह पहाड़ की चोटी पर बैठ कर दो टाइगर की लड़ाई देखता रहे’। उनका आँकलन है कि अगर अमेरिका चीन को पूर्वी एशिया और पश्चिमी प्रशांत सागर में रोक लेता है तो भारत प्रमुख लाभार्थी होगा। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन का भी कहना है कि चीन का अपने पूर्वी समुद्र पर ध्यान भारत के लिए अच्छा है क्योंकि इससे हिन्द महासागर पर उसका ध्यान कम होगा। पर यहाँ यह राय भी है कि ताइवान से ध्यान हटाने के लिए चीन दूसरे देशों में दखल बढ़ा सकता है। हमारी सीमा पर पहले ही तनाव है। ताइवान के साथ ग़ैर सरकारी सम्बंध बढ़ाते हुए और उनकी टेक्नोलॉजी की क्षमता का फ़ायदा उठाते हुए, हमें वाशिंगटन, बीजिंग और मास्को के तिकोने रिश्तों में पैदा हुई गम्भीर अशांति से खुद को अलग रखना है और चीन के साथ ताक़त का जो फ़ासला है उसे कम करना है। पर यह संतोष की बात है कि चीन की आक्रामक महत्वकांक्षा पर किसी ने तो ब्रेक लगाई है। इससे दुनिया का भला होगा।