कांग्रेस नेतृत्व और विशेष तौर पर राहुल गांधी को कोसते हुए गुलाम नबी आज़ाद ने पचास वर्ष के कांग्रेस के साथ सम्बंध तोड़ लिए हैं। कांग्रेस के नेता कटाक्ष कर रहे हैं कि ‘जीएनए का डीएनए मोदी मय हो गया है। राज्यसभा से आज़ाद की विदाई के समय प्रधानमंत्री मोदी के भावुक होने के क्षण की याद दिलवाई जा रही है कि आज़ाद के उनके साथ गहरे सम्बन्ध है। आज़ाद द्वारा अपनी पार्टी बनाने की घोषणा को भी अमरेन्द्र सिंह जैसा प्रयास कहा जा रहा है जब उन्होंने अपनी पार्टी बना कर भाजपा के साथ गठबंधन किया था। आज़ाद की पार्टी का यह गठबंधन होता है या नहीं यह तो समय ही बताएगा। यह भी हो सकता है कि उनकी पार्टी का भी वही हाल हो जो अमरेन्द्र सिंह की पार्टी का हुआ था जो पंजाब में अपने साथ भाजपा को भी ले बैठे थे। इसका बड़ा कारण है कि खुद गुलाम नबी आज़ाद कोई आदर्शवादी सिद्धांतवादी ज़मीन से जुड़े नेता नहीं है जो अपने असूलों के कारण कांग्रेस छोड़ रहें हैं। वह इसलिए छोड़ रहें हैं क्योंकि (1) उन्हें कांग्रेस में अपना भविष्य उज्ज्वल नज़र नही आ रहा और (2) कांग्रेस का अपना भविष्य उज्ज्वल नज़र नहीं आ रहा।
सोनिया गांधी को लिखें अपने पाँच पृष्ठ के पत्र में उन्होंने बार बार राहुल गांधी की ‘कोटरी’ अर्थात् मंडली को कांग्रेस के दुर्भाग्य के लिए ज़िम्मेवार ठहराया है। लेकिन हक़ीक़त है कि खुद आज़ाद दशकों से ऐसी ही ‘कोटरी’ के चमकते सितारे रहें हैं। जिन लोगों ने मिल कर कांग्रेस का भट्ठा बैठाया है उनमें वह भी शामिल हैं। वह चार कांग्रेस प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के साथ काम कर चुके हैं। सोनिया गांधी के साथ भी काम करते रहे। क्योंकि उनका सम्बंध जम्मू कश्मीर से हैं इसलिए उन्हें भाव भी बहुत दिया गया। छ: बार राजयसभा में भेजा गया जहां वह पिछले साल तक विपक्ष के नेता भी रहे। लगभग तीन साल वह कांग्रेस के जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे। बार बार प्रदेशों के चुनावों में उन्हें प्रभारी बनाया गया जहां पार्टी हारती गई। अब नेतृत्व उन्हें कुछ देने के मूड में नहीं है, या देने के लिए कुछ रहा नहीं। इसलिए आज़ाद बमबारी पर उतर आएँ हैं।
1999 में शरद पवार, पी ए संगमा, तारीक अनवर सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर पार्टी छोड़ गए थे। सोनिया गांधी की खूब प्रशंसा करते हुए उन्होंने नम्रता से उन्हें बता दिया कि उन्हें भारत के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा नहीं पालनी चाहिए। उन्होंने लिखा, ‘…यह सम्भव नहीं कि 98 करोड़ के देश में भारतीय मिट्टी में जन्मे के सिवाय कोई और सरकार का मुखिया बन सकता है’। इसके विपरीत गुलाम नबी आजाद यह भूलते हुए कि वह खुद भी कांग्रेस की परजीवी जमात का हिस्सा रहें है और इसी रिमोट कंट्रोल के कारण पार्टी में फलते फूलते रहें हैं, वह सोनिया गांधी पर हमला करते हैं, ‘सब से बुरी बात है कि जिस रिमोट कंट्रोल ने यूपीए की संस्थागत संपूर्णता को नष्ट किया वह अब कांग्रेस पर लागू हो गया है’। लेकिन आज़ाद का असली निशाना सोनिया नहीं राहुल गांधी है। वह लिखतें हैं, ‘ आप तो नाममात्र शासक हो, सब बड़े निर्णय राहुल गांधी ले रहें हैं, या उनके सुरक्षाकर्मी या पीए ले रहें हैं’। यह पहली बार है कि किसी वरिष्ठ नेता ने इस तरह राहुल गांधी के बारे ऐसा आलोचनात्मक पत्र उनकी माता को लिखा हो और उसे सार्वजनिक किया हो। लेकिन जो वह कह रहें हैं वह बहुत ग़लत भी नहीं है। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व को शीशा दिखा दिया।
आज़ाद से पहले बहुत नेता कांग्रेस को छोड़ गए है, उनके बाद भी कई छोड़ सकतें हैं। सब की शिकायत सोनिया गांधी से इतनी नहीं जितनी राहुल गांधी से है। वह सब जानते है कि नरेन्द्र मोदी के युग में राहुल गांधी चुनाव नहीं जीत सकते। सोनिया से यह शिकायत है कि उन्होंने कंट्रोल राहुल को सौंप दिया है जो अपनी मर्ज़ी से अपनी ‘कोटरी’ की सलाह से पार्टी चला रहे हैं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण का सवाल है कि ‘क्या हम मुगलराज में हैं’ कि कुछ दरबारी फ़ैसले ले रहें हैं? बात सही है। यह लोग नरेन्द्र मोदी की शासन प्रणाली को तानाशाही कहते हैं पर असली तानाशाही तो कांग्रेस के अन्दर है जहां कोई पूछने वाला नहीं। आप चुनाव के बाद चुनाव हार रहे हो पर कोई जवाबदेही नहीं। 21साल से कांग्रेस के संगठनात्मक चुनाव नही हुए। कार्यकारिणी मनोनीत नेताओं से भरी हुई है। संसदीय बोर्ड है नही, और अगर है तो काम नहीं कर रहा। आंतरिक लोकतंत्र बिलकुल नहीं है। यह स्थिति किसी सल्तनत से कम नहीं।
आज़ाद राहुल को विलेन को तौर पर पेश कर रहें हैं। उनके अनुसार राहुल ‘अपरिपक्व’ हैं और ‘बचकाना’ हरकत करते रहते हैं। वह राहुल गांधी द्वारा सार्वजनिक तौर पर अपनी सरकार का अध्यादेश फाड़ने की घटना का ज़िक्र करते हैं जिसने, आज़ाद के अनुसार, 2014 की हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह घटना 27 सितंबर 2013 की है जब मीडिया के सामने राहुल गांधी ने जोश में अपनी मनमोहन सिंह सरकार का दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने के बारे लाया गया अध्यादेश फाड़ दिया था। इस अध्यादेश की भारी आलोचना हुई थी पर राहुल गांधी ने इसे उस समय फाड़ा जब अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति को मिलने के लिए हमारे प्रधानमंत्री अपने होटल से निकल चुके थे। कोई और होता तो उसे पार्टी से निकाल दिया जाता पर राहुल गांधी को उप प्रधान रखा गया और 2017 में उन्हें पार्टी अध्यक्ष बना दिया। उसके बाद जो हुआ सब जानते है। 2019 मई में लोकसभा में पार्टी की हार की ज़िम्मेवारी लेते हुए इस्तीफ़ा दे दिया।
यह सही कदम था और इससे राहुल गांधी की इज़्ज़त बढ़ी थी। पर यह प्रभाव अस्थायी रहा क्योंकि शीघ्र स्पष्ट हो गया कि इस्तीफ़ा तो उन्होंने दे दिया पर पार्टी का नियंत्रण छोड़ने की उनकी कोई मंशा नहीं। मोहर सोनिया गांधी की थी, पर निर्णय राहुल गांधी के थे। राजनीति में राहुल सहज नहीं है, जैसे उनकी बहन प्रियंका गांधी हैं। वह एक बार उसे ‘ज़हर का प्याला’ भी कह चुकें हैं। परिवार के साथ जो दोहरी त्रासदी हुई है उसे भूलना मुश्किल है। बेहतर होता कि वह एक तरफ़ हो जाते और कोई न कोई नेतृत्व उभर जाता। पर न खुद सम्भाला न किसी को सम्भालने दिया। और सामना नरेन्द्र मोदी की भाजपा से है। हाल के मूड ऑफ नेशन सर्वेक्षण के अनुसार देश में नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता 53 प्रतिशत है जबकि राहुल गांधी की मात्र 9 प्रतिशत है।
आज़ाद के हमले के बाद अब 17 अक्तूबर को पार्टी के अध्यक्ष का चुनाव रखा गया है। इतनी देर किस की इंतज़ार करते रहे? निर्णय तब लिया गया जब पानी सर तक पहुँचने लगा है। आशा है कि अब चुनाव निष्पक्ष होगा और किसी ग़ैर-गांधी के अध्यक्ष बनने की सूरत में परिवार पूर्ण सहयोग करेगा और नए अध्यक्ष का वह हश्र नहीं होगा जैसा सीता राम केसरी का हुआ था जिन्हें एक प्रकार से घसीटते हुए निकाला गया था कि सोनिया गांधी अध्यक्ष बन सकें। इस वकत पार्टी तेज़ी से आधार खो रही है। इस क्षरण को रोकने के लिये प्रभावी अध्यक्ष चाहिए जो लोगों की बात समझ सके और अपनी समझा सके। आप के उत्थान ने नई चुनौती खड़ी कर दी है। दिल्ली और पंजाब दोनों में आप की जीत कांग्रेस पार्टी की क़ीमत पर हुई है। दिल्ली में केन्द्रीय सरकार और एलजी सबका मुक़ाबला अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं लेकिन वह क़ाबू नही आरहे। गुजरात में आप भी चुनौती देगी। यह भी दिलचस्प है कि 7 सितंबर से शुरू होने वाली कांग्रेस की 3570 किलोमीटर ‘भारत जोड़ों’ यात्रा गुजरात और हिमाचल प्रदेश से नहीं गुजरेगी जहां वर्ष के अंत में चुनाव होने वाले हैं। ऐसा क्यों है, इसका जवाब उन्हीं के पास है जो इस यात्रा का आयोजन कर रहें है।
पिछले चुनाव में कांग्रेस को 12 करोड़ वोट मिले थे जो भाजपा के 23 करोड़ से तो बहुत कम है, पर मामूली नहीं है। बाक़ी विपक्षी पार्टियाँ करोड़ डेढ़ करोड़ वोट तक ही सीमित रही है। तब से लेकर अब तक कांग्रेस के वोट में गिरावट आई है। पर देश को कांग्रेस की ज़रूरत है क्योंकि यह एक मात्र पार्टी है जिसके निशान सारे देश में पाए जाते हैं। जिस सर्वेक्षण का मैंने उपर ज़िक्र किया वह यह भी संकेत दे रहा है कि नरेन्द्र मोदी की अपनी लोकप्रियता के बावजूद लोग महंगाई और बेरोज़गारी से चिन्तित हैं। लोग यह भी महसूस करते हैं कि सरकार की नीतियों से बिग बिज़नेस को फ़ायदा पहुँचा है और मोदी सरकार के आने के बाद उनकी अपनी आर्थिक स्थिति बदतर हुई है।कांग्रेस के लिए यह मौक़ा हो सकता है पर पहले उन्हें अपना घर सही करना है और देश को संदेश देना है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी निभाने को तैयार है।
इस वकत तो इस 140 वर्षीय पार्टी के पास न दूरदर्शी नेतृत्व है, न ठोस विचारधारा है और न संगठन। राहुल गांधी की स्थिति अजीब है। वह राजनीतिक ताक़त के बीच जन्में पले पर उसे नफ़रत से देखते हैं। उसे छोड़ना भी नहीं चाहते पर अपने उपर ज़िम्मेदारी लेना भी नहीं चाहते। लम्बे समय तक उनका कोपभवन में रहना बहुत नुक़सान कर गया है। अब देखना हैं कि वह किसी और को चलने देंगे या बैक सीट ड्राइविंग करने का प्रयास करेंगे? पार्टी को अपना स्वरूप बदलना चाहिए जैसे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने भाजपा का बदला है। यह प्रभाव मिटाना होगा कि यह विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग की पार्टी है। जो लोग सड़क पर आकर पार्टी के लिए डंडे खाते हैं उन्हे आगे करना चाहिए। पार्टी लोगों की आकांक्षाओं से कट गई है। बड़ी ज़िम्मेदारी सोनिया गांधी पर है जिन्होंने कठिन समय में बहुत हिम्मत दिखाई है। पर अब उन्हें पुत्र मोह छोड़कर कांग्रेस को सही पटरी पर डालना है। नहीं तो इतिहास उनके बारे में बेरहम होगा।