14 अक्तूबर 1997 को इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय अपने पति प्रिंस फ़िलिप के साथ अमृतसर के जलियाँवाला बाग आईं थीं। वहाँ उन्होंने पुष्पांजलि अर्पित की और विज़िटर बुक में हस्ताक्षर कर लौट गईं। जो कई सौ निहत्थे अंग्रेजों की बर्बरता के शिकार हुए उनकी मौत पर कोई शोक व्यक्त नहीं किया गया, डायर की क्रूरता की निन्दा करना तो दूर की बात है। वहाँ लिखा हुआ था कि ‘लगभग 2000 हिन्दू, सिख और मुसलमान यहाँ अहिंसक आंदोलन के दौरान शहीद हुए थे’। इस पर फ़िलिप ने यह कह कर विवाद खड़ा कर दिया कि ‘आँकड़ा कुछ अधिक लगता है और इसमें घायल शामिल लगते हैं’। उनके अनुसार ऐसा उन्हें डायर के पुत्र, जो नौसेना में उनके साथ था, ने बताया था। अर्थात् न माफ़ी माँगी, न शोक ही प्रकट किया और मरने वालों के आँकड़े पर सवालिया निशान लगा ब्रिटेन की शाही दम्पति अमृतसर से लौट गई। और अपना गवाह उस कसाई का बेटा बनाया जिसने निहत्थे लोगों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था और जिसने बाद में संतोष मनाया था कि ‘एक भी गोली बेकार नहीं गई’।
इस खामोशी पर जब विवाद उठा तो दिल्ली में एक राजकीय भोज में एलिज़ाबेथ ने इतना जरूर कहा कि ‘ यह छिपा नहीं कि हमारे अतीत में कुछ मुश्किल घटनाएँ घटी थीं। जलियाँवाला बाग़ उसकी कष्टप्रद मिसाल है’। बस इतनासा कह कर ब्रिटेन की महारानी ने उस खूनी घटना को रफ़ा दफ़ा कर दिया जो आज तक हमें परेशान कर रही है। इस लापरवाह रवैये से नाराज़ हो कर तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल ने ब्रिटेन को मात्र ‘छोटा टापू’ कहा था। क्योंकि महारानी ने ऐसा नहीं किया, इसलिए बाद में भी वहाँ गए ब्रिटेन के किसी भी प्रधानमंत्री ने इस बर्बर घटना के लिए माफ़ी नहीं माँगी। सब इधर उधर की बातें कर लौट आए। इसलिए हमारे देश में जो लोग एलिज़ाबेथ की ‘ग्रेस’ और ‘चार्म’ के क़सीदे पढ़ने में लगे हुए हैं वह यह कैसे भूल गए कि महारानी एलिज़ाबेथ कुछ भी थी पर सबसे पहले उस ब्रिटिश साम्राज्य की महारानी थी जिसने कभी अपने क्रूर और असभ्य अतीत के लिए माफ़ी माँगने की ग्रेस नहीं दिखाई। एलिज़ाबेथ को उनके देश की करतूतों से अलग नहीं किया जा सकता। वह उस साम्राज्य और उस ‘क्राउन’ की प्रतीक थी जिसने एक समय एशिया और अफ़्रीका के लगभग 60 देशों पर क़ब्ज़ा किया हुआ था। वहाँ से खरबो पाउंड लूटे गए थे, लोगों पर भारी अत्याचार किया गया और एक प्रकार से उनकी आत्मा को कुचलने की कोशिश की गई। 2006 मे ब्रिटिश समाजवादी कवि अरनस्ट जॉन ने ब्रिटिश साम्राज्य के बारे कविता लिखी थी, ‘उनके उपनिवेश पर सूर्य कभी अस्त नहीं होता, पर वहाँ खून भी कभी नहीं सूखता’।
ब्रिटेन के लोग उनसे बहुत प्यार करते थे क्योंकि वह उनकी महारानी थी और 70 साल उन्हें वहाँ स्थायित्व दिया। निश्चित तौर पर वह एक असाधारण और विशिष्ट महिला थीं जिन्होंने 15 प्रधानमंत्रियों को शपथ दिलाई थी और अमेरिका के 14 राष्ट्रपतियों से मिल चुकीं थीं। पर वह उनकी महारानी थी। हमारे यहाँ जो शोक मनाया गया वह मेरी समझ से बाहर है। ऐसा जवाहरलाल नेहरू के समय होता तो समझ आता पर नरेन्द्र मोदी ने तो ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ समाप्त करने के लिए कदम उठाए हैं। हमारे विदेश विभाग का कहना है कि उन्होंने ‘ राष्ट्रमंडल के प्रमुख के तौर पर लाखों लोगों का कल्याण किया’। सचमुच ? क्या विदेश मंत्रालय का अपने इस प्रचार में विश्वास है? राष्ट्रमंडल की तो अपनी एक्सपायरी डेट निकल चुकी है। आख़िर इस जमघट में क्या साँझ है इसके सिवाय कि सब कभी ब्रिटेन के अधीन थे? जवाहरलाल नेहरु की सरकार ने यह स्वीकार किया था कि राष्ट्रमंडल की मुखिया एलिज़ाबेथ होंगी, नरेन्द्र मोदी की सरकार भी स्वीकार चुकी है कि आजीवन चार्ल्स मुखिया होंगे। राष्ट्रमंडल तो ग़ुलामी के समय का बचा खुचा है और आज की परिस्थिति में अप्रासंगिक है।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य पर लिखी अपनी किताब, ‘एक अंधकारमय युग’ में शशि थरूर ने बताया है कि मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश का नियंत्रण सम्भाला तो विश्व की जीडीपी में भारत का हिस्सा 23 प्रतिशत था और जब अंग्रेज गए तो यह हिस्सा कम होकर 3 प्रतिशत रह गया था। इस बात की पुष्टि और भी विद्वान करतें हैं। जेएनयू की प्रोफ़ेसर उतसा पटनायक के अनुसार ब्रिटेन ने भारत से 450 खरब डालर जितना चुराया था। 1795 और 1945 के बीच भारत में 11 बार अकाल पड़ा था जिसमें लाखों लोग मारे गए थे। जर्मन विद्वान आर्नोल्ड हरमन लुडविग हीरेन (1760-1842) ने लिखा था, ‘ हिन्दोस्तान को प्राचीन समय से अपनी समृद्धि और दौलत के लिए जाना जाता है। जब सिकन्दर हिन्दोस्तान के लिए रवाना हुआ तो उसने अपने सैनिकों को बताया था कि वह ‘सुनहरे हिन्दोस्तान’ जा रहें हैं जहां असीमित धन-दौलत हैं’। अमेरिकी लेखक विल डुरेंट जो भारतीय सभ्यता का अध्ययन करने के लिए 1930 में आया था, ने ब्रिटिश साम्राज्य के बारे घृणा से लिखा था कि ‘ यह इतिहास में सबसे बड़ा अपराध है’।
यह सब बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कुछ लोग दावा करते हैं कि अंग्रेजों ने हम पर बहुत उपकार किया था। हमें सभ्य बनाया और जाते जाते वह एक सभ्यता छोड़ गए है। जबकि हक़ीक़त है कि हम तो अंग्रेजों के आने से पहले कई सहस्राब्दियाँ से सभ्य और दौलतमंद थे, अंग्रेज तो हमें कंगाल छोड़ गए। मुस्लिम हमलावरों की लूटपाट के बावजूद यह देश अमीर था। एक इतिहासकार ने बताया है कि औरंगजेब योरुप के सभी राजाओं को मिला कर भी अधिक अमीर था। अंग्रेजों ने यहाँ सभ्यता नहीं छोड़ी उल्टा हमारी सभ्यता को नष्ट करने का भरसक प्रयास किया। अमेरिका के फ़ॉक्स न्यूज़ का पत्रकार टकर कार्लसन कहता है कि ‘हम कभी भी ऐसा साम्राज्य नही देखेंगे जो ब्रिटिश जैसा दयालु और हितकारी हो’। यह कोरा बकवास है। जहां जहां उन्होंने शासन किया उन देशों की दौलत अंग्रेज लंडन ले गए। लाखों लोगों को गुलाम बनाया और भूखा मारा गया। अनाज का बड़ा हिस्सा अंग्रेज अपने देश ले जाते थे। सबसे बड़ा खलनायक एलिज़ाबेथ और अंग्रेजों का सबसे प्रिय प्रधानमंत्री चर्चिल था। ऐसे ऐसे अत्याचार किए जिनकी बराबरी नहीं की जासकती। 1943-44 के बंगाल का
अकाल जिसमें लाखों लोग मारे गए थे, चर्चिल की देन थी क्योंकि उसने अनाज के जहाज़ अपने देश भेज दिए थे। अंग्रेजों ने यहाँ रेल या अंग्रेज़ी भाषा जैसी संस्थाएँ जो क़ायम की वह अपनी शासकीय सुविधा के लिए की थी, हमारे उद्धार के लिए नही। ब्रिटिश साम्राज्य के लिए तो हम ‘बल्डी इंडियनज़’ ही थे।
अंग्रेजों ने केवल धन दौलत ही नहीं अपने अधीन देशों की सांस्कृतिक चोरी भी की थी। प्रमुख उदाहरण कोहीनूर का हीरा है जो आंध्र प्रदेश की गोलकुंडा खान से निकाला गया था। बाबर, नादिर शाह से होता हुआ 1813 में यह महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुँच गया। पर एंग्लो-सिख युद्ध के बाद महाराजा रणजीत सिंह के वंशज राजा दिलीप सिंह को इसे अंग्रेजों को सौंपने के लिए मजबूर किया गया और महारानी विक्टोरिया के ताज में जड़ दिया गया। यही ताज महारानी एलिज़ाबेथ के सर पर भी देखा गया और उनके ताबूत पर भी रखा हुआ था। अब शायद कैमिला इसे पहनेंगी। और भी बहुत सांस्कृतिक ख़ज़ाना है जो अंग्रेज यहाँ, और कई अफ्रीकी देशों से, लूट कर ले गए और वह ब्रिटिश म्यूज़ियम की शोभा बढ़ा रहें हैं। दक्षिण अफ़्रीका अपना 500 कैरेट का ‘द ग्रेट स्टार’ हीरा वापिस माँग रहा है। 70 साल महारानी एलिज़ाबेथ राजसिंहासन पर बैठी रही पर इस चोरी के माल को लौटाने में उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसी से पता चलता है कि वह किस स्वभाव की मालिक थीं। उनके एक प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने तो बेबाक़ जवाब दिया था कि ‘अगर हम सब कुछ लौटाने लगे तो ब्रिटिश म्यूज़ियम में कुछ नहीं बचेगा’! नाइजीरिया के अख़बार ‘द गार्डियन नाइजीरिया’ ने लिखा था कि ‘ब्रिटिश म्यूज़ियम में ब्रिटिश कुछ भी नहीं है’।
हम भी कोहीनूर हीरा वापिस लाने की बहुत कोशिश कर चुकें है। वहाँ हाईकमीशनर रहते कुलदीप नैयर ने विशेष प्रयास किया था। पर हर बार इंकार का सामना करना पड़ा। बहाना है कि किस को वापिस दें, इंडिया को,पाकिस्तान को या बांग्लादेश को? जब मन बईमान हो तो बहाना तो मिल ही जाता है। बारबाडोस और जमैका जो अभी तक एलिज़ाबेथ को अपनी महारानी मानते थे, अब न केवल यह साँझ हटाना चाहते हैं बल्कि वह शताब्दियों की ग़ुलामी का हर्जाना भी माँग रहें हैं। हम हर्जाना नहीं माँग रहे। लेकिन हमारी सांस्कृतिक धरोहर तो हमें लौटाई जानी चाहिए। आख़िर, जैसे शशि थरूर ने भी लिखा है, अगर नाजियों द्वारा लूटे गए ख़ज़ाने पश्चिमी देशों में उनके सही मालिकों को लौटाए जा सकते है तो यही नियम अंग्रेजों द्वारा लूटे गए मॉल पर क्यों नहीं लग सकता?
वहाँ इतना शोक पहले कभी नहीं देखा गया। यह स्वभाविक है। वह ब्रिटेन की महारानी थी और उन्होंने ब्रिटिश हितों पर सख़्ती से पहरा दिया था। वह इतनी लोकप्रिय थी कि नए महाराजा चार्ल्स के लिए समस्या है। इसीलिए वह बार बार ‘माई डार्लिंग मदर’, ‘माई मामा’ कह कर अपनी माँ कीं विरासत से खुद को जोड़ना चाहते है। पर हमारे लिए उनकी विरासत उस ब्रिटेन के साथ जोड़ती है जिसने हम पर शासन किया और दोनों हाथों से हमें लूटा। मुग़ल तो यहाँ बस गए थे अंग्रेज सब कुछ अपने देश भेजते रहे। जिस गद्दी पर महारानी एलिज़ाबेथ आसीन थी वह साम्राज्यवाद की देन थी इसलिए महारानी को ब्रिटेन के साम्राज्यवादी अतीत से जुदा नहीं किया जा सकता। ठीक है वह सीधे तौर पर अंग्रेज़ी क्रूरता के लिए ज़िम्मेवार नहीं थी पर वह इस क्रूरता की वारिस थी। अगर वह इसके लिए माफ़ी माँग लेती या, या ज़ख़्मों पर ईमानदारी से मरहम लगाने की कोशिश करती तो उन्हें बेहतर नज़रिए से देखा जाता। पर वह तो लूट कर लाई गई धन दौलत की आभा में चमकती रही। जो लूटा है उसे सम्भाल लिया, और जो बाक़ी है उसे ‘कष्टप्रद घटनाओं’ में डाल दिया !