देश के चिन्ताजनक, कई तो इसे अंधकारमय कहतें हैं, माहौल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की पहल एक आशा की किरण नज़र आती हैं। उन्होंने दिल्ली की एक प्रमुख मस्जिद और मदरसे का दौरा किया जहां उन्होंने बड़े इमाम डा. उमेर अहमद इलियासी से लम्बी वार्ता की और मदरसे के 300 छात्रों से सीधा संवाद किया। यह पहली बार है जब किसी सरसंघचालक ने मस्जिद या मदरसे में कदम रखा हो। इससे एक दिन पहले उन्होंने पाँच प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवियों से भी आपसी मुद्दों पर विस्तृत चर्चा की थी। भागवत के साथ प्रमुख संघ के प्रमुख पदाधिकारी, कृष्ण गोपाल और इन्द्रेश भी बातचीत में शामिल हुए जिससे पता चलता है कि संघ ने इस संवाद की प्रक्रिया को कितना गम्भीरता से लिया है। बाद में इन्द्रेश कुमार का कहना था कि, ‘यह नहीं रूकेगा। इस तरह के संवाद की कोशिश चलती रहेगी। सर संघचालक की यह पहल अहम रणनीति का हिस्सा है’।
मोहन भागवत की इस पहल का बहुत बहुत स्वागत है। ऐसा आभास मिलता है कि इस देश में साम्प्रदायिक गतिरोध पैदा हो गया है और आपसी साँझ ख़त्म हो रही है। ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे तो पहले कभी सुने ही नहीं थे। दोनों समुदाय के बीच आपसी विश्वास फिर से क़ायम करने की बहुत ज़रूरत है। इस गतिरोध को तोड़ने का प्रयास करने के लिए दोनों मोहन भागवत और इमाम इलियासी बधाई के पात्र हैं। संवाद वैसे भी हमारी परम्परा का हिस्सा रहा है। कुछ समय से भागवत लगातार प्रयास कर रहें हैं कि देश का साम्प्रदायिक माहौल बेहतर हो। उनका मानना है कि जब हिन्दू और मुसलमानों के पूर्वज एक थे, संस्कृति एक है और मातृभूमि एक है तो टकराव की गुंजायश नहीं होनी चाहिए। उनका यह भी कहना है कि ‘हम लोकतन्त्र हैं।यहाँ हिन्दुओं या मुसलमानों किसी का भी प्रभुत्व नहीं हो सकता’। निश्चित तौर पर उनके समर्थकों को यह रास नहीं आया होगा पर भागवत रूके नहीं और बार बार दोहरा रहें हैं कि ‘हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक है”। देवबंद ने इसकी सराहना की है जबकि आलोचक कह रहे हैं कि संघ की कथनी और करनी में अंतर हैं। ऐसा कह कर भागवत उस बहस पर विराम लगाने की कोशिश कर रहें हैं कि मुसलमान बाहर से आए हैं। इमाम इलियासी का भी कहना था कि ‘ हमारा डीएनए एक है सिर्फ़ धर्म और इबादत के तौर तरीक़े अलग हैं’। मदरसे के छात्रों से भागवत ने भी कहा कि दुआ, पूजा के तौर तरीक़े अलग हो सकते हैं पर सभी धर्मों का सम्मान होना चाहिए।
इससे पहले मोहन भागवत कह चुकें हैं कि ‘हर मस्जिद में शिवलिंग ढूँढने की ज़रूरत नहीं’। आज के माहौल में ऐसी स्पष्ट बात वह ही कह सकता है जिसे अपने सिद्धांतों और विचारों पर दृढ विश्वास हो। मोहन भागवत ने वही कहा जो हमारे दर्शन का निचोड़ है। सरसंघचालक ने बहुत हिम्मत दिखाई है क्योंकि उनके उग्रवादी समर्थकों को इससे निराशा हुई है। इसी के बाद पाँच प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने उनसे मुलाक़ात की है। इस मुलाक़ात के बाद पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई क़ुरैशी ने बताया कि मोहन भागवत देश के हालात के बारे चिन्तित हैं और उन्होंने कहा कि, ‘ मैं तनाव के इस माहौल से खुश नही हूँ। देश सहयोग और एकजुटता से ही आगे बढ़ सकता है…मुसलमानों के बिना हिन्दू राष्ट्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती’। यह उन गरम ख़्यालियों को झिड़की भी है जो नियमित तौर पर मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते रहते है और साथ यह अहसास भी है कि डूबेगी किश्ती तो डूबेंगे सारे ! ऐसा आभास मिलता है कि धीरे धीरे सरसंघचालक संघ परिवार का मुसलमानों के प्रति रवैया बदलने की कोशिश कर रहे हैं। संघ प्रमुख ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह भाजपा से अलग लाईन ले सकते हैं। इससे भला ही होगा। संघ की कोई मजबूरी नहीं, उन्होंने चुनाव नहीं लड़ना। भाजपा की राजनीतिक मजबूरी है जिससे वह निकल नहीं पा रही। भाजपा मुस्लिमविहीन बन चुकी है।
मोहन भागवत के प्रयास की मुस्लिम समुदाय में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई है। हैदराबाद की यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के पूर्व उपकुलपति फैजान मुस्तफ़ा ने कुछ महीने पहले लिखा था, “नफ़रत और धर्मांधता के माहौल में संघ प्रमुख आशा की किरण बन कर उभरे हैं। प्रधानमंत्री के साथ मिल कर वह देश में विवेक, सहिष्णुता और सामंजस्य, जो हिन्दू धर्म की मूल विचारधारा है, को फिर से क़ायम कर सकतें हैं”। एस वाई क़ुरैशी ने भी कहा है कि वह संवाद में विश्वास रखतें हैं। लेकिन बहुत मुसलमान हैं जो अभी इस सारी प्रक्रिया को अविश्वास से देखतें हैं। उनका कहना है कि संघ अपने उग्रवादी तत्वों पर लगाम लगाने में नाकाम है, जिस जिन को बोतल से निकलने दिया गया अब वह वापिस जाने को तैयार नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार जावेद अंसारी लिखतें हैं, “ आज़ादी के बारह वर्ष बाद जिस भारत में मेरा जन्म हुआ था वह दयालु और उदार था… दुर्भाग्यपूर्ण वह इस तरह बदल गया है कि हम पहले कल्पना भी नहीं कर सकते थे…दोनों तरफ़ एक दूसरे के प्रति दुर्भावना पाई जाती है”।
मुसलमानों में यह धारणा पाई जाती है कि उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है। यह भी शिकायत है कि प्रधानमंत्री और संघ प्रमुख बात सही करते हैं पर अपने उग्रवादियों पर लगाम नहीं कसते। मिसाल दी जा रही है कि जिन लोगों ने रिहाई के बाद बिलकिस बानो के रेपिस्ट और उसके परिवार के हत्यारों को हार डाले और मिठाई खिलाई उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नही की गई। धर्म संसद जैसे आयोजनों को पहले रोका नहीं जाता। बुलडोज़र भी मुसलनानो के घरों पर ही चलाए जातें हैं। जो मुसलमानों को प्रताड़ित करते है उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की जाती। यह भी बड़ी शिकायत है कि देश के प्रति उनकी वफ़ादारी पर बार बार सवाल उठाए जातें हैं और उन्हें निशाना बनाया जाता हैं।लेकिन शिकायत एकतरफ़ा नहीं है। मुस्लिम नेतृत्व भी अपने समुदाय को मुख्यधारा में शामिल नहीं होने देता। हम देख रहें हैं कि किस तरह कट्टरवादी ईरान की महिलाएँ हिजाब को सरेआम जला रही हैं। वह कह रही है हम अरबों की नक़ल क्यों करें? पर हमारे सैक्यूलर लोकतंत्र में शिक्षा संसथाओ में हिजाब की इजाज़त को लेकर बड़ा आन्दोलन चलाया गया। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच चुका है।
मुस्लिम लड़कियों को मुख्यधारा से अलग रख उनका हित किया जा रहा है, या अहित? मदरसे में मोहन भागवत ने जब लड़कों से पूछा कि तुम क्या बनना चाहते हो तो एक ने कहा डॉक्टर तो एक ने कहा इंजीनियर। पर क्या कोई बच्चा मदरसा में दी जाने वाली शिक्षा से डॉक्टर या इंजीनियर बन सकता है? पर जब जब मदरसा शिक्षा में सुधार कर उसे आधुनिक बनाने का प्रयास किया जाता है तो ‘मज़हब खतरें में’ पड़ जाता है। फिर शिकायत की जाती है कि हम पिछड़ गए। पर यह भी उल्लेखनीय है कि मदरसे में मोहन भागवत का स्वागत बच्चों ने ‘वंदे मातरम’ और ‘ भारत माता की जय’ के नारों से किया। मोहन भागवत ने इमाम इलियासी के साथ और भी मुद्दे उठाए। उनका सवाल था कि जेहाद के नाम पर नफ़रत फैलाना और हिन्दुओं को ‘काफिर’ कहना कितना जायज़ है? भागवत गोहत्या को लेकर विशेष तौर पर नाराज़ थे। पाँच मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा इमाम इलियासी सबके साथ उन्होंने यह मुददा उठाया। इसके साथ मैं भी यह पूछना चाहूँगा कि अयोध्या, काशी और मथुरा के मंदिरों को लेकर मुस्लिम नेतृत्व ने जो हठधर्मिता दिखाई है वह कितनी जायज़ है? क्या वह जानते नहीं कि इनमें हिन्दुओं की कितनी आस्था है? अगर मुस्लिम पक्ष अयोध्या के मामले में समझदारी और उदारता दिखाता तो देश का इतिहास ही और होता। हर बात पर अड़ने से क्या मिलता है?
लेकिन अब आगे बढ़ना है। भारत और तेज़ी से तरक़्क़ी करेगा अगर यह विवाद और अविश्वास ख़त्म, नहीं तो कम, हो जाए। हिन्दू नेतृत्व को भी चिन्तित होना चाहिए कि कुछ धर्मांध कटटरवादियों के कारण विदेशों में हिन्दुओं की छवि भद्दी बन रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हिन्दुओं पर हमले 1000 प्रतिशत बढ़ें है। ब्रिटेन के लिस्टर और बर्मिंघम के मंदिरों पर हमले हो चुके हैं। नूपुर शर्मा के प्रकरण के बाद मध्यपूर्व में विरोध बढ़ा है जिसको रोकने के लिए प्रधानमंत्री को वहाँ जाना पड़ा। ज़रूरी है कि पहले देश को सम्भाला जाए जिसके लिए मोहन भागवत की पहल का स्वागत है। भावना में बह कर इमाम इलियासी ने तो उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ और ‘राष्ट्र ऋषि’ तक कह दिया। खुद इमाम इलियासी भी साधुवाद के पात्र हैं । लेकिन मुख्य भूमिका मोहन भागवत की है। वह जो प्रयास कर रहे हैं उसकी देश को बहुत ज़रूरत है। और कोई नज़र नहीं आता जो संकीर्ण हितों से उपर उठ कर देश को इस कुँए से निकाल सके। मस्जिद और मदरसे में उनका जाना ही एक बड़ा कदम है जिससे यह आभास मिलता है कि यह संवेदनशील सज्जन समझ रहें हैं कि हम ग़लत दिशा की तरफ़ चल दिए हैं। अगर वह यह अविश्वास ख़त्म करने में सफल रहे तो इतिहास में उनका नाम लिखा जाएगा। उन्हें सहयोग मिलना चाहिए।
जावेद अंसारी भी लिखतें हैं, ‘मुस्लिम समुदाय में यह आभास है कि दरवाज़ा बंद करने की जगह दूसरे पक्ष से बात करनी चाहिए और समाधान को मौक़ा देना चाहिए। शाहिद सिद्दीक़ी उन पाँच बुद्धिजीवियों में शामिल थे जो मोहन भागवत से मिले थें, ने लिखा है, ‘संदेह के कारण है। पर समाजिक शान्ति क़ायम करने के लिए इसके सिवाय और विकल्प भी नहीं हैं। जो आज बीजा गया है उसका फल शायद कल मिल जाए’। क्या मोहन भागवत की पहल सफल होगी? क्या देश का माहौल सुधरेगा? एक या दो मुलाक़ातें पुराने पूर्वाग्रहों को बदल नहीं सकतीं। वर्षों का अविश्वास और कड़वाहट इतनी जल्दी मिट नहीं सकते। इसलिए दोनों समुदायों के सयाने और सही लोगों की ज़िम्मेवारी है कि इस प्रक्रिया को जारी रखें। मोहन भागवत के प्रयास से आशा जगी है कि अभी भी देश में वह लोग हैं जो सही सोच रखतें हैं, और सही कोशिश कर रहे हैं। उनके इस सकारात्मक प्रयास के बारे मुझे कहना है,
कुछ नहीं तो कम से कम ख़्वाब-ए-सहर देखा तो है
जिस तरफ़ देखा न था अब तक, उधर देखा तो है!