तमिलनाडु में कन्याकुमारी से शुरू हो कर केरल में तीन सप्ताह गुजरने को बाद राहुल गांधी की 3500 किलोमीटर की ‘भारत जोड़ों यात्रा’ कर्नाटक में दाखिल हो गई है जहां वह तीन सप्ताह रहेगी। मीडिया इसे बहुत अधिक तवज्जो नहीं दे रहा, पर निकल रहे समाचारों से पता चलता है कि दक्षिण भारत में इसे अच्छा जनसमर्थन मिल रहा है। यह यात्रा 150 दिन चलेगी और 12 राज्यों से गुजरने के बाद इसका समापन कश्मीर में होगा। इसके केन्द्र में राहुल गांधी है। चाहे और 118 सहयात्री भी हैं पर लोग राहुल को ही मिलने, देखने और कई बार छूने के लिए आ रहें हैं। मैसूर में मूसलाधार वर्षा में भी बड़ी संख्या चुपचाप उन्हें सुनती रही और वह भी बिना छतरी के लोगों को सम्बोधित करते रहे। घुटने में तकलीफ़ है पर वह रोज़ सुबह 15 किलोमीटर और शाम को 10 किलोमीटर चलते हैं। बीच में कुछ दिन आराम के भी रखे गए हैं। यह यात्रा गुजरात और हिमाचल प्रदेश से नहीं गुजरेगी जहां इस साल चुनाव है। शायद आयोजक इसे ग़ैर राजनीतिक रखना और राजनीतिक मतभेदों से उपर उठ कर देश की भावनात्मक एकता का संदेश देना चाहते हैं। पर हैरानी है कि विशाल उत्तर प्रदेश के लिए केवल दो दिन रखे गए हैं। बुलंदशहर को छू कर यात्रा आगे बढ़ जाएगी। दक्षिण भारत में मिला समर्थन हैरान नहीं करता, असली परीक्षा मध्य और उत्तर भारत में होगी।
आप उन्हें पसंद करें या न करें इससे इंकार नहीं कि राहुल गांधी की छवि शरीफ़, मिलनसार और सहज इन्सान की बन रही है। अब कोई उन्हें ‘पप्पू’ कहने की कोशिश नहीं करेगा। कभी किसी बच्चे के जूते का फ़ीता बांधते हुए तो कभी दंतहीन वृद्धा को गले लगाते हुए या कभी नंगे पाँव चल रही लड़की से बात करते हुए वह विनीत और संवेदनशील इंसान नज़र आते हैं। वह बहुत चुस्त राजनेता नज़र नहीं आते। भाजपा के कई नेता उनकी आलोचना कर रहें हैं जिससे पता चलता है कि कहीं तो तकलीफ़ हुई है। किसी का कहना है कि पहले पार्टी को तो जोड़ लो, तो किसी का कहना है कि ‘यह परिवार बचाने’ का अभियान है। राहुल गांधी ने उनकी आलोचना या मज़ाक़ का कोई जवाब नहीं दिया। वह मुद्दे उठा रहें हैं जो आज बहुत प्रासंगिक है। बड़ा मुद्दा हमारी राजनीति की विभाजनकारी प्रकृति और प्रवृति है। साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है। इसके इलावा बेरोज़गारी और महंगाई के ज्वलंत मुद्दे हैं। देश का बड़ा हिस्सा भारी कष्ट में है। यह वह ज़रूरी मुद्दे हैं जो आज के साम्प्रदायिक माहौल में गुम हो गए हैं। प्रमुख टीवी चैनल इस पर बहस कर रहें हैं कि गरबा में मुसलमानों का प्रवेश होना चाहिए या नहीं ? महाराष्ट्र सरकार चाहती है कि टैलीफोन पर हैलो की जगह ‘वंदे मातरम’ कहा जाए। निश्चित तौर पर जो नहीं कहेगा उसकी देशभक्ति पर यह ठेकेदार सवाल उठाएंगे। पर देशभक्ति अन्दर से फूटती है, संस्कारों से मिलती है,फ़ोन पर पैदा नहीं की जा सकती।
अभी तक राहुल गांधी की यात्रा को जो समर्थन मिला है इसके तीन कारण नज़र आते हैं। एक, भारत में प्राचीन काल से लम्बी यात्राओं की परम्परा है। हमारे इतिहास में संत, तीर्थयात्री, यहां तक कि आम आदमी पैदल चलते रहें हैं। विदेशों से आए कई यात्री भी देश में घूमते रहे हैं और लिख कर दस्तावेज छोड़ गए हैं। महात्मा गांधी ने पैदल चल चल कर देश और दुनिया को जीता था। जब वह दक्षिण अफरीका से आए तो समझ गए कि अगर देश को समझना और प्रेरित करना है तो आम आदमी की तरह पैदल चलना पड़ेगा। विनोबा भावे और बाबा आमटे भी अपना संदेश फैलाने के लिए देश में घूमते रहे। चन्द्रशेखर ने 1983 में कन्या’कुमारी से राजघाट दिल्ली तक यात्रा की थी। लाल कृष्ण आडवाणी ने भी सोमनाथ से अयोध्या तक यात्रा शुरू की थी जिसे बिहार में समसतीपुर में लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया था। आडवाणी और राहुल गांधी की यात्रा में अंतर है कि आडवाणीजी सजे सजाए मोटराइज़ड एयरकंडिशनड रथ पर सवार थे। राहुल गांधी धूप छाँव बारिश के बीच पैदल पसीना बहाते लोगों को बीच पैदल चलते जा रहे हैं। देश को ऐसे लोग चाहिए भी जो दिन रात चुनाव जीतने की चिन्ता न करें। इससे राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढेगी।
‘भारत जोड़ों यात्रा’ की दूसरी विशेषता है कि यह विशेष नहीं है। इसकी सादगी लोगों को जोड़ रही है। यह हर मायने में ज़मीन पर है। कोई सजे सजाए रथ पर सवार सुरक्षाकर्मियों से घिरा नेता हाथ हिलाता उपर से फूल फेंकता पास से गुजर नही रहा। नेता आप के बीच चल रहा है। न ही कोई उपर से लेक्चर दे अपनी बात कह कर निकल नहीं रहा। यहाँ आम आदमी को केवल बताया ही नहीं जाता उसे सुना भी जाता है। राहुल गांधी लोगों के साथ संवाद पैदा कर रहें हैं। वह कहतें हैं कि “मेरे साथ चलते साथी पूछतें हैं कि यात्रा के बाद मेरा प्लान क्या है? मेरा कोई प्लान नही है”। आज जबकि राजनीति में प्रशांत किशोर जैसे मैनेजमेंट गुरु सक्रिय हो गए हैं, वहाँ यह भी अच्छी बात है कि कोई नेता बिना किसी तरतीब के चल रहा है। कोई इवेंट मैनेजर नहीं है। वैसे इस यात्रा को मिली अनुकूल प्रतिक्रिया के बाद प्रशांत किशोर भी बिहार की 3500 किलोमीटर की यात्रा पर निकल चुकें है।
यात्रा को मिल रहे समर्थन का तीसरा बड़ा कारण है कि लोगों में बेचैनी और असंतोष है। महंगाई और असमानता बढ़ी है, रोज़गार घटा है। हम तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था ज़रूर बन गए हैं पर इसका फल नीचे तक नहीं पहुँच रहा। आज भी 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन देने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? हम जी-20 में सबसे गरीब देश हैं। देश की 20 प्रतिशत जायदाद पर 1 प्रतिशत परिवारों का क़ब्ज़ा है। कोविड के कारण स्थिति और ख़राब हो गई है। अमीर अधिक अमीर हो रहें हैं और जो धरातल पर रह गए हैं उनकी ज़िन्दगी बदतर हुई है। बड़े उद्योग अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं पर छोटे कारोबार जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहें हैं। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार कारों की सेल में वृद्धि हुई है जबकि टू वहीलर की सेल गिरी है। कारों में भी ऊँची क़ीमत की कारों की सेल सस्ती कारों से बेहतर है। थ्री वहीलर की सेल भी सुधर नहीं रही। रिपोर्ट के अनुसार लोगो महँगे टीवी सेट ख़रीद रहे हैं जबकि छोटे टीवी की सेल सुस्त है। मनरेगा में रोज़गार के लिए दाखिल होने वाले लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है जिस का अर्थ है कि लोगों को काम नहीं मिल रहा। और भूख है। दूसरी तरफ़ गौतम अडानी बिल गेटस जैसों को पीछे छोड़ कर दुनिया में चौथे सबसे रईस बन गए है। ब्लूमबर्ग के अनुसार उनकी कुल जायदाद 134.5 अरब डालर है।
निश्चित तौर पर हमारे आर्थिक मॉडल में कुछ गड़बड़ है। भयानक ग़रीबी चिन्ता का विषय है। परिवार क अपने लोग भी चिन्ता व्यक्त कर रहें हैं। वरिष्ठ मंत्री नितिन गड़करी का कहना है कि देश के अन्दर अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ी है। साथ ही उनका कहना था कि बेरोज़गारी, भुखमरी भी बढ़ी है। उनसे भी अधिक ज़ोर से ख़तरे की घंटी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव दत्तात्रय होसबाले ने बजाई है जिनका कहना है कि देश में असमानता बढ़ी है और ‘ग़रीबी और बेरोज़गारी दानव की तरह खड़े हैं’। उनके अनुसार 20 करोड़ लोग अभी भी ग़रीबी की रेखा से नीचे हैं। 4 करोड़ बेरोज़गार है और बेरोज़गारी की दर 7.6 प्रतिशत है। मुझे तो यह आँकड़ा भी कम लग रहा है क्योंकि बहुत बेरोज़गारी अदृश्य होती है और बहुत लोगों को सही काम नहीं मिलता। अगर भाजपा और संघ के शिखर पर चिन्ता है तो स्वाभाविक है कि ज़मीन पर तो और भी होगी। और जब राहुल गांधी महंगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी की बात करते हैं तो लोग सुनते है। इसीलिए भी इतनी भीड़ इकट्ठी हो रही है जिसमें रोज़गार के लिए हताश युवक और महंगाई से त्रस्त महिलाएँ अधिक हैं।
जहां राहुल गांधी लोगों से अच्छा सम्पर्क स्थापित कर रहे हैं वहाँ पार्टी में अभी भी घपला है। जिस तरह पुराने विश्वासपात्र अशोक गहलोत ने आँखें दिखाई थीं और राजस्थान के 100 क़रीब विधायकों ने इस्तीफ़े दे दिए था क्योंकि वह सचिन पायलट को सीएम नहीं देखना चाहते थे, उस से एक समय तो कांग्रेस हाई कमान की चूलें हिल गईं थीं। अशोक गहलोत को सोनिया गांधी ने तीन बार सीएम बनाया था। उनकी अवज्ञा को इस बात का प्रमाण समझा गया कि हाईकमान की हैसियत घट गई है। जिस तरह पंजाब को मिसमैनेज किया गया और सत्ता से बाहर हो गए उसी तरह का अनाड़ी परीक्षण राजस्थान में भी किया गया ।अव्वल तो राजस्थान को छेड़ा ही नहीं जाना चाहिए था क्योंकि पार्टी के पास दो प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ही तो बचे हैं। पर वह तो गहलोत को घसीट कर निकालना चाहते थे जिसके लिए वह तैयार नहीं हुए। अब तो गहलोत ने सार्वजनिक तौर पर सोनिया गांधी से माफी माँग ली है जिससे कथित हाईकमान की इज़्ज़त कुछ बच गई है पर जिस अकुशल ढंग से ऐसा किया गया उससे राजस्थान सरकार के अस्थिर होने की सम्भावना बन गई है।
अब 24 वर्ष के बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष का चुनाव होने जा रहा है। मलिक्कार्जुन खड़गे बनाम शशि थरूर। खड़गे पुराने वफादार है, ज़मीन से उपर उठें हैं। लम्बा राजनीतिक जीवन है। दलित है, जिससे भाजपा को यह कहने का मौक़ा नहीं मिलेगा कि कांग्रेस पर विशेषाधिकार सम्पन्न वंश और वर्ग के उत्तराधिकारी क़ाबिज़ हैं। खड़गे की जीत निश्चित समझी जा रही हैं। लेकिन वह 80 वर्ष के हैं। वह उस महत्वकांक्षी भारत से कैसे सम्पर्क करेंगे जो निरंतर युवा हो रहा है? 65 प्रतिशत भारत 30-35 साल से कम है।यह काम शशि थरूर बेहतर कर सकते हैं। थरूर में कांग्रेस को देश के आगे एक आकर्षक चेहरा पेश करने का मौक़ा है। थरूर ने कहा भी है कि अगर पुरानी कांग्रेस चाहिए तो खड़गे, बदलाव चाहिए तो मैं। पर कांग्रेस पार्टी की हालत उस मुहावरे की तरह हैं कि ‘जितनी चीजें बदलती है उतनी ही वह वैसे रहती हैं’। चुनाव होने दिए जाने चाहिए। इससे अचछा संदेश जाएगा कि दूसरी पार्टियों से अलग कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र है। जहां तक राहुल गांधी का सवाल है इस यात्रा से देश उन्हें नई रोशनी में देखने लगा है, पर यही बात उनकी पार्टी के बारे नहीं कही जा सकती।