‘तस्वीरें पलटने से आप इतिहास नहीं पलट सकते’, Remembering Nehru for his huge contribution towards the country

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक दिलचस्प टिप्पणी की है, “ अगर नेहरूजी आईआईटी की स्थापना न करते तो मैं चाय बेचता होता”। केजरीवाल आईआईटी खड़गपुर से पढ़ कर निकले थे। अब ज़रूर वह राजनीति में हैं पर इस कथन के द्वारा वह यह स्वीकार कर रहें हैं कि ज़िन्दगी में उन्हें और उनके जैसे अनेकों को मौक़ा इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने शिक्षा उन उच्च संस्थानों से प्राप्त की थी जिनकी स्थापना पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने की थी। न केवल आईआईटी बल्कि ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मैडिकल साईंस,अटौमिक एनर्जी कमीशन, सीएसआईआर,ओएनजीसी, कोल इंडिया, आईआईएम, भाखड़ा डैम सब की स्थापना नेहरू के समय हुई थी। जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में  भारत के अंतरिक्ष अभियान की नींव रखी गई थी। बोकारो, भिलाई और दुर्गापुर के स्टील प्लांट लगाए गए। और यह उस भारत में किया गया जो विभाजन से बुरी तरह त्रस्त था, जिसे अंग्रेजों से विरासत में 0.72 प्रतिशत विकास दर और 12 प्रतिशत साक्षरता दर मिली थी।

पाँच साल में हमारी विकास दर 3.6 प्रतिशत तक पहुँच गई थी। लेकिन जवाहरलाल नेहरू का सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने मज़बूत संसदीय प्रणाली की नींव रखी थी। नेहरू और उनके साथियों ने इतनी पक्की नींव रखी कि आज वह विचारधारा सतारूढ है जो नेहरू की कट्टर विरोधी है और उनकी लगातार आलोचना कर रही है। आज़ादी के तुरंत बाद गांधी जी की हत्या और दिसम्बर 1950 में सरदार पटेल की मौत के बाद देश को सम्भालने और सही दिशा देने की ज़िम्मेवारी नेहरू के कंधों पर थी। अगर हम पाकिस्तान नही बने तो बहुत श्रेय पहले प्रधानमंत्री को जाता है। लोगों ने उन्हें अथाह प्यार और सम्मान दिया। वह चाहते तो भारत के डिक्टेटर बन सकते थे पर उन्होंने सारी ताक़त अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा नही की थी। वह तो गुमनाम लेख लिख कर खुद का मज़ाक़ उड़ाते  रहे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने  फ़र्ज़ी नाम पर लेख लिखा था कि ‘नेहरू को ज़्यादा ताकतवार मत बनने दो नहीं तो वह डिक्टेटर बन जाएगा’।

वह सम्पूर्ण प्रजातंत्रवादी थे। नियमित प्रेस से मिलते थे। विपक्ष को कुचलने की कोशिश नहीं करते थे, उल्टा उन्हें सम्मान देते थे। संसद में सारा वक़्त उपस्थित रहते थे। चीन से पराजय के बाद चुपचाप सदन में बैठ कर गालियाँ तक सुनते रहे। वह चाहते तो उठ कर जा सकते थे लेकिन वह बैठे रहे।  अटलजी ने बताया है कि जब वह नए नए सांसद बने तो उन्होंने एक बार नेहरू की खूब आलोचना की थी।  ‘ शाम को एक भोज में नेहरू जी से सामना हो गया। नेहरूजी ने कहा आज तो बहुत ज़ोरदार भाषण दिया है। और हंसते हुए निकल गए’। आज ऐसी उदारता कहाँ हैं? अटलजी ने  साथ कहा था, ‘ आज आलोचना करना दुश्मनी को दावत देना है। लोग बोलना बंद कर देते हैं। क्या राष्ट्र के नाम पर हम मिल कर काम नहीं कर सकते?’ यह सवाल आज भी उतना सार्थक  है जितना अटलजी के समय था। दुख होता है कि नेहरू की विरासत को मिटाने की कोशिश हो रही है। अटलजी होते तो कभी इसकी इजाज़त न देते। जिस भाषण का मैंने उपर ज़िक्र किया है उसी में अटलजी ने नेहरू के साथ मतभेद स्वीकार करते हुए यह प्रसंग भी सुनाया था, ‘ साउथ ब्लाक (जहां प्रधानमंत्री का कार्यालय, विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय स्थित है), में नेहरूजी का चित्र टंगा रहता था। जब मैं विदेश मंत्री बना तो गलियारे में टंगा नेहरूजी का चित्र ग़ायब पाया…वह चित्र वहाँ फिर से लगवा दिया गया’। कहाँ गए ऐसे लोग? आज तो मतभेदों को चरम तक ले जाया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी उन्हें रोज़ मिल रही गालियों का ज़िक्र किया है।

पर मैं पहले प्रधानमंत्री की बात कर रहा हूँ जिनकी 133वीं जयंती इस सप्ताह हम मना कर हटे हैं। आजकल उनके बारे बहुत ग़लत सच कहा जा रहा है। देश के विभाजन, कश्मीर समस्या और चीन से पराजय के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।  कुछ आलोचना सही भी है, पर बहुत ग़लत भी है। यह अलग लेख का विषय है। पर एक वर्ग आज़ादी के 75 वर्ष के बाद भी देश की हर समस्या के लिए नेहरू को ज़िम्मेवार ठहरा रहा है।  नीचे तक उनके प्रति ज़हर फैलाया जा रहा है, जैसे कि नेहरू एक प्रकार के विलेन हों। यह अनुचित है। ठीक है आप के नेहरू के वंशजों से राजनीतिक और वैचारिक मतभेद हैं, पर उसका ग़ुस्सा उस नेता पर नहीं निकालना चाहिए जिसने देश की आज़ादी के लिए अपनी जवानी क़ुर्बान कर दी और आज़ादी के बाद ऐसी मज़बूत नींव रखी कि उनकी बेटी को भी एमरजैंसी वापिस लेनी पड़ी क्योंकि दुनिया में आलोचना शुरू हो गई थी कि नेहरू की बेटी ने लोकतंत्र को कुचल दिया है।

नेहरू के बारे कहा जा रहा है कि उनका जीवन विशेषाधिकार सम्पन्न था। यह सही है कि उनका जन्म प्रमुख और रईस परिवार में हुआ था। लेकिन अपने जीवन को उन्होंने देश के प्रति अर्पित कर दिया थ। नौ बार जेल गए थे और कुल 3259 दिन जेल में गुज़ारे।  पर कभी अंग्रेजों से समझौता नहीं किया, न कभी माफ़ी माँगी। जहां तक रईसी का सवाल है, इंदिरा गांधी ने ख़्वाजा अहमद अब्बास को बताया था कि, ‘कई बार प्रधानमंत्री का वेतन पूरा नहीं पड़ता और काफ़ी उधार चढ़ जाता है। क़र्ज़ का भुगतान तब जा कर किया जाता है जब उनकी लिखी किताबों की प्रकाशकों से रॉयलटी मिल जाती है’। अब्बास चाहते थे कि उनकी फ़िल्म ‘मुन्ना’, जो नेहरू को बहुत पसंद आई थी, के सारे युनिट को वह नाश्ते पर बुलाएँ पर इंदिरा गांधी जो घर चलाती थीं,  उपरोक्त कारण से मानी नहीं थी।  अफ़सोस आता है कि देश के प्रति उनके योगदान को या तो अंदेखा किया जाता है या उसे बिगाड़ कर पेश किया जाता है।  समझ नहीं आता कि नेहरू को लेकर इतनी चिढ़ क्यों हैं? शिक्षा मंत्रालय के अधीन आई.सी.एच.आर. द्वारा आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ पर जारी पोस्टर से जवाहरलाल नेहरू और अबुल कलाम आज़ाद के चित्र ग़ायब थे। कर्नाटक सरकार ने भी आज़ादी को लेकर जो पोस्टर निकाला था उसमें सावरकर को शामिल किया गया पर नेहरू को निकाल दिया गया। जवाब यह था कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि ‘नेहरू देश के विभाजन के लिए ज़िम्मेवार थे’। यह ग़लत है और अगर नेहरू ज़िम्मेवार थे तो पटेल भी बराबर ‘ज़िम्मेवार’ थे। जो हुआ उसमें दोनों बराबर सांझीदार थे। 

कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने ने सरदार पटेल और सुभाष बोस की उपेक्षा की थी। यह शिकायत बिलकुल जायज़ है। कई सौ इमारतें और संस्थाओं के नाम नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों पर रखे गए थे। तीन मूर्ति का बंगला केवल नेहरू का स्मारक था। वर्तमान सरकार ने सही सुधार किया है। पटेल और बोस को उनका उचित स्थान दिया गया है और तीन मूर्ति भवन को सभी प्रधानमंत्रियों का भव्य स्मारक बना दिया गया है। पर जो उनके वंशजों ने बाद में  किया, उसके लिए नेहरू को ज़िम्मेवार  नहीं ठहराया जा सकता। यह भी आरोप है कि 1955 में उन्होंने खुद को भारत रत्न से सम्मानित किया था लेकिन उसी साल टाईम्स ऑफ इंडिया ने रिपोर्ट किया था कि यह निर्णय राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का था जिसे प्रधानमंत्री से छिपा कर रखा गया। पर हो सकता है कि नेहरू को इसकी जानकारी हो। यह भी बड़ी बेइंसाफ़ी है कि सरदार पटेल को वर्षों बाद   1991 में भारत रत्न दिया गया। इसी  साल राजीव गांधी को भी भारत रत्न दिया गया। पर  इंदिरा गांधी को 1971 में ही दे दिया गया था। सुभाष बोस की बारी तो राजीव गांधी के अगले साल 1992 में आई पर उनके परिवार ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया और आख़िर में 1997 में इसे रद्द कर दिया गया।   

निश्चित तौर पर नेहरू के परिवार ने उन सब के प्रति छोटापन दिखाया जो नेहरू के बराबर के नेता थे या जिन से नेहरू के सैद्धांतिक मतभेद थे। पर इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि इसकी सजा उस नेता की विरासत से ली जाए जिसने  देश को अत्यंत विकट परिस्थिति में सम्भाला और वह नींव रखी कि हम यह बड़ी इमारत खड़ी कर  सके। नेहरू के वीर सावरकर के साथ गम्भीर मतभेद थे फिर भी उन्होंने गांधी हत्या कांड के मामले को आगे नही  बढ़ाया।  इंदिरा गांधी ने तो सावरकर के नाम का डाक टिकट भी जारी करवा दिया था ताकि उन्हें लेकर विवाद ख़त्म हो सक।   जो इंदिरा गांधी को नापसंद करते हैं वह भी सावरकर का गुणगान करते वक़्त इंदिर् गांधी की इस उदारता का वर्णन करना नहीं भूलते।

राष्ट्र नेता सबके साँझे होने चाहिए। हाल ही में वरिष्ठ मंत्री नितिन गड़करी ने पूर्व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों को याद करते हुए कहा है कि ‘देश उनका ऋणी रहेगा’। पालमपुर में  ख़स्ता हाल नेहरू की प्रतिमा को देख कर दुखी शांता कुमार ने इसे सही करने के लिए अपनी जेब से लाख रूपए दिए हैं। चीन को लेकर नेहरू की आलोचना पर रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का कहना था, ‘ में आलोचना नहीं करना चाहता… नीतियां ग़लत हो सकती हैं नीयत नहीं’। ऐसा बड़प्पन हमारे राजनीतिक संवाद से ख़त्म हो रहा है। ग़लतियाँ जवाहरलाल नेहरू से हुईं थी, पर किस प्रधानमंत्री से गलती नहीं हुई ?सावरकर ने तो भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। अम्बेडकर ने इसे ‘ग़ैर ज़िम्मेदार और पागलपन’ कहा था। हर इंसान की तरह नेहरू में भी कमज़ोरियाँ  थी,पर उनका नाम मिटने से उनका विशाल योगदान नहीं मिटाया जा सकता।  कुछ सप्ताह पहले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एटोनियो गुटेरेश भारत की यात्रा पर थे। उन्होंने  कहा था, “ भारत की समृद्ध विविधता को सम्भालना  और अधिक मज़बूत बनाया जाना चाहिए। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के सिद्धांतों का संरक्षण होना चाहिए”। इतिहास जवाहरलाल नेहरू को आधुनिक भारत का शिल्पकार कहेगा, आलोचक इसे स्वीकार करें न करे। एक नेता ने सही कहा था ‘दीवार पर लगी तस्वीरों को पलट कर आप इतिहास की दिशा नहीं पलट सकते’। यह नेता जवाहरलाल नेहरू थे।

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About Chander Mohan 708 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.