दिल्ली एमसीडी, गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम बतातें हैं कि 1. मोदी का मुक़ाबला नहीं पर भाजपा का है। मोदी ब्रांड सबसे बढ़िया अपने गृह प्रदेश में चलता है बाक़ी जगह चुनौती मिल सकती है। 2. आप राष्ट्रीय पार्टी बन सकती है पर राष्ट्रीय विकल्प अभी नही है। 3. अभी भी कांग्रेस ही विकल्प लगती है पर हिमाचल प्रदेश की जीत स्थानीय नेताओं के बल पर है। उन्होंने चुनाव स्थानीय मुद्दों पर केन्द्रित रखा। चाहे प्रियंका गांधी को ज़बरदस्ती श्रेय देने की कोशिश हो रही है पर हिमाचल कांग्रेस का संदेश है कि वह गांधी परिवार के बिना भी जीत सकती है। जिस दिल्ली में शीला दीक्षित ने 15 साल बढ़िया शासन दिया था वहां से कांग्रेस का लगातार सफ़ाया चिन्ताजनक होना चाहिए।
लेकिन असली कहानी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की है। अगर गुजरात में इतनी प्रचंड जीत मिली है तो यह नरेन्द्र मोदी के कारण मिला है। जनता के लिए मोदी का आकर्षण भाजपा से अधिक है। ठीक है भाजपा का संगठन बहुत मज़बूत है और समर्पित कार्यकर्ता है। अमित शाह की पकड़ मज़बूत है पर गति नरेन्द्र मोदी का अभियान और उनका व्यक्तित्व ही देता है। गुजरात में 182 में से 156 सीटें मिलीं है और भारी 53 प्रतिशत वोट मिला है जो पहले से 3.5 प्रतिशत अधिक है। आप निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए बिगाड़ने वाली पार्टी थी, पर दोनों का वोट मिला कर भी नरेन्द्र मोदी के वोट से बहुत पीछे रहा हैं। मैंने इसे नरेन्द्र मोदी का वोट इसलिए कहा है क्योंकि उन्होंने इसे न केवल गुजराती अस्मिता बल्कि अपनी अस्मिता का भी प्रश्न बना दिया था। यह गम्भीरता दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में नहीं दिखाई गई। दोनों जगह भाजपा हार गई। नरेन्द्र मोदी पर पार्टी की निर्भरता समस्या भी हो सकती है क्योंकि आम चुनाव में मोदी हर जगह नहीं पहुँच सकते। गुजरात में मुख्यमंत्री का कोई महत्व नहीं था पर मुख्यमंत्री की ऐसी महत्वहीनता बाक़ी प्रदेशों में महँगी पड़ सकती है। पर यह आगे कि बात है। इस वक़्त तो वह गुजरात की असाधारण जीत पर जश्न मना सकते है।
जवाहरलाल नेहरू के बारे एक समय कहा जाता था कि अगर वह लैम्प पोस्ट को भी पार्टी का उम्मीदवार बना दें तो वह जीत जाएगा। इस बार गुजरात में यह स्थिति थी कि लोगों ने मोदी के नाम पर वोट दिए यह नहीं देखा कि प्रत्याशी कौन है। लगभग लैम्प पोस्ट को वोट देने वाली बात है। मोदी खुद ‘नरेन्द्र -भुपेंद्र’ का नारा देते रहे पर कई लोग तो मुख्यमंत्री का नाम भी नहीं जानते थे। न ही प्रदेश सरकार के कामकाज पर ही वोट पड़े। सब कुछ ‘मोदी’ ,‘मोदी’ ,‘मोदी’ था। नरेन्द्र मोदी का आकर्षण इतना था कि भाजपा उस मोरबी में जीत गई जहां पुल गिरने से 130 से अधिक लोग मारे गए थे। मीडिया का एक हिस्सा कहता रहा कि जो हादसे के लिए वास्तव में ज़िम्मेवार हैं उन्हें पकड़ा नहीं गया पर मोदी मोरबी गए और लोगों ने सब भूल कर उन्हें वोट दे दिया। यह उनकी स्टार पॉवर है जिसके सामने गुजरात में कोई टिक नहीं सकता। राहुल गांधी ने तो कोशिश ही नहीं की। उन्होंने गुजरात जहां चुनाव हो रहे थे में केवल एक दिन आदिवासी क्षेत्र में लगाया। वहाँ भी साधारण सभा का आयोजन किया गया जबकि वह 18 दिन केरल में घूमते रहे। महात्मा गांधी के प्रदेश में वह यात्रा लेकर क्यों नहीं गए? वह यात्रा को गांधी के जन्मस्थान पोरबंदर ले जासकता थे पर प्रभाव यह दे गए कि वह मोदी को घर में चुनौती देने से घबराते हैं। कांग्रेस ने तो वहाँ शुरू में ही शिकस्त स्वीकार कर ली थी।
अगर कांग्रेस मुक़ाबला भी करती तो शायद गुजरात में परिणाम बहुत अलग न आते। नरेन्द्र मोदी जानते थे कि 2024 के महाचुनाव के लिए उन्हें गुजरात से बड़ी बढ़त की ज़रूरत है। उन्होंने 13 दिन गुजरात चुनाव अभियान में लगाए जहां 30 से अधिक बड़ी रैलियों को सम्बोधित किया और तीन रोड शो किए। एक प्रभावशाली रोड शो तो अहमदाबाद में 50 किलोमीटर लम्बा था। प्रदेश को 80000 करोड़ रुपए की नई परियोजना दी गई। वह कुछ भी भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते थे आख़िर पिछले चुनाव में कांग्रेस ने बड़ी टक्कर दी थी। इस बार आप भी मैदान में थी जो सूरत के स्थानीय चुनाव में अच्छा प्रदर्शन दिखा चुकी थी। बड़े उद्योग प्रदेश में लगवाए गए। कई तो वह थे जिन्हें महाराष्ट्र में लगवाने को अंतिम अनुमति मिलने वाली थी। महाराष्ट्र की शिन्दे-फडणवीस सरकार शिकायत करती रही पर 22000 करोड़ रूपए का टाटा-एयरबस प्लांट महाराष्ट्र की जगह बड़ोदरा में लगने जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने ठीक चुनाव की घोषणा से पहले इसका नींव पत्थर रखा। इस सरकार ने इंफ़्रास्ट्रक्चर में बहुत काम किया है पर यह विकास बराबर होना चाहिए। एक ही प्रदेश की तरफ़ झुकाव सही नहीं है। मेरे पंजाब को तो सब भूल गए लगतें हैं।
विकास का ध्यान देते हुए नरेन्द्र मोदी अपने मूल हिन्दुत्ववादी समर्थन को नहीं भूले जिनके लिए वह आज भी ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ हैं। बिलकिस बानो के रेपिस्ट और परिवारजनों की रिहाई इसकी एक मिसाल है। सोमनाथ मंदिर के अतिरिक्त उन्होंने कई मंदिरों में पूजा अर्चना की। भुपेंद्र पटेल के शपथ ग्रहण समारोह मे साधु संत विशेष आमंत्रित थे। 27 साल से भाजपा गुजरात में सत्तारूढ है। प्रदेश में एक प्रकार से एक-पार्टी शासन है। बहुत से मुद्दे हैं जो नकारात्मक है। कोविड, बढ़ी क़ीमतें, गिरा रोज़गार जो किसी भी पार्टी को शासन विरोधी भावना का शिकार बना सकते हैं पर इन सब पर मोदी हावी रहें। गुजराती भी जानते हैं कि ऐसा प्रधानमंत्री उन्हें नहीं मिलेगा। लेकिन यह चुनाव भाजपा की कमजोरी भी प्रदर्शित कर गए हैं। कि नरेन्द्र मोदी को जी जान से जुटना पड़ा बताता है कि कहीं घबराहट थी। उनका तो एकाध दौरा ही काफ़ी होना चाहिए था। दूसरा, उनके स्पष्ट आकर्षण और मेहनत के बावजूद 4-5 प्रतिशत कम वोटिंग हुई है। शहरी मतदाताओं में विशेष तौर पर उदासीनता है। उनका अत्यधिक इस्तेमाल कर पार्टी नरेन्द्र मोदी का आकर्षण खोने का जोखिम उठा रही है।
केवल मोदी पर निर्भरता बहुत सही नहीं क्योंकि कोई और नेता नहीं जो अपने बल पर पार्टी का बेड़ा पार करा सके। अध्यक्ष जे पी नड्डा हिमाचल में अपनी सरकार नहीं बचा सके। हिमाचल के 10 मंत्रियों में से 8 हार गए। वहाँ भाजपा कांग्रेस से एक प्रतिशत से कम वोट पीछे रही पर 2017 से लगभग 6 प्रतिशत वोट गिरें हैं। कई मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और सांसदों को झोंकने का बावजूद भाजपा दिल्ली में मार खा गई। 7 उपचुनाव में से भाजपा कांग्रेस के बराबर केवल दो ही जीत सकी। बाक़ी प्रादेशिक पार्टियाँ जीतने में सफल रहीं है। गुजरात की महा-जीत से यह ढक गया है पर जहां नरेन्द्र मोदी नहीं गए, या कम गए, वहाँ भाजपा पिट गई। आप और केजरीवाल के लिए भी आत्म मंथन का समय है। बहुत ज़ोर लगाने के बावजूद गुजरात में वह केवल 13 प्रतिशत वोट ही ले सके। अगर वहाँ आप के विधायक दल बदल कर भाजपा में शामिल हो गए, जैसे समाचार मिल रहें हैं, तो राष्ट्रीय पार्टी बनने का सपना सपना ही रह जाएगा। गुजरात और हिमाचल के परिणाम बताते हैं कि अभी लम्बा रास्ता तय करना है। हिमाचल जो पंजाब का पड़ोसी प्रदेश है वहाँ शून्य मिला है। पार्टी का वैचारिक लचीलापन भी परेशान कर रहा है। फ़्रीबी जिसका मोदी ने ‘रेवड़ी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाया है, भी स्वाभिमानी लोगों में काम नहीं करती। गुजराती और हिमाचली दोनों बहुत स्वाभिमानी लोग हैं। बहुत अधिक प्रचार भी उल्टा पड़ सकता है।
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने अभी तक सभी सही कदम उठाए हैं। एक ट्रक ड्राईवर के पुत्र जो राजेश पायलट की तरह दूध भी बेचते थे, सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री बना कर अच्छा संदेश गया है कि कांग्रेस विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग से दूर जा रही है। इससे पहले मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बना कर भी यही प्रभाव दिया गया। लेकिन नए मुख्यमंत्री के आगे चुनौती बहुत है। 70000 करोड़ रूपए का क़र्ज़ा है। ओल्ड पैंशन स्कीम को लागू करना , 300 युनिट बिजली मुफ़्त देना और बाक़ी वादे पूरे करना बहुत चुनौतीपूर्ण होगा। ओपीएस विशेष तौर पर बहुत महँगी साबित होगी। सुक्खु के प्रति बहुत सद्भावना है पर आख़िर में काम बोलेगा। अगर वह हर निर्णय के लिए दिल्ली की तरफ़ देखेंगे तो उनका क़द नहीं बढ़ेगा। वीरभद्र सिंह दिल्ली को दूर ही रखते थे और सदैव प्रदेश को ही महत्व दिया था। इसीलिए इतने लोकप्रिय थे।
यह चुनाव बहुत सही समय आए है। सब को पता चल गया है कि वह कितने पानी में हैं। 2023 में तीन हिन्दी भाषी प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के चुनाव है जो कांग्रेस जीती थी। इससे पहले कर्नाटक का चुनाव है जहां राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा को अच्छा समर्थन मिला है। और फिर 2024 के आम चुनाव हैं। कर्नाटक का चुनाव बहुत दिलचस्प है क्योंकि वहाँ भाजपा की बोम्मई सरकार है जिसे भारी शासन विरोधी भावना का सामना करना पड़ रहा है। मुख्यमंत्री कोई प्रभाव नहीं छोड़ सके। कांग्रेस अगर अपना घर सही कर ले तो मौक़ा हो सकता है। पर इसके लिए पार्टी को वह फुर्ती दिखानी होगी जो वह आजकल नहीं दिखा रही। उन्हें समझना चाहिए कि मुक़ाबला नरेन्द्र मोदी की भाजपा से है। प्रधानमंत्री तो राजनीति का आनन्द लेते हैं और राहुल गांधी का कहना है कि वह राजनीति को पसंद नहीं करते। मोदी अभी से अगले रण की तैयारी में लग गए है पर राहुल गांधी का सारा ध्यान अपनी यात्रा पर है। यह यात्रा अच्छी चल रही है। राहुल गांधी का व्यक्तित्व उभर रहा है। वह रास्ते में हर वर्ग के लोगों से रिश्ता जोड़ते जा रहें हैं पर आख़िर में उन्होंने तय करना है कि वह एक राजनीतिक दल के नेता है या एक सत्संग मंडली के प्रमुख?