आज 26 जनवरी है जिस दिन ‘हम,भारत के लोग’ ने खुद को संविधान दिया था। एमरजैंसी के महीनों को छोड़ कर इस संविधान ने देश को सही दिशा में रखने में बड़ी भूमिका निभाई है। आजकल ज़रूर संविधान के ‘बेसिक स्ट्रकचर’ को लेकर बहस चल रही है पर यह स्वस्थ बहस है और संविधान इसकी इजाज़त देता है। अगर सरकार जज नियुक्त करने के ‘कौलीजियम’ सिस्टम पर सवाल उठा रही है तो यह भी उसका अधिकार है, लोकतंत्र इसकी इजाज़त देता है। इन वर्षों में देश ने बहुत तरक़्क़ी की है और चर्चिल जैसे लोगों को झूठा करार दिया जो देश की आज़ादी के समय यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि भारत का बिखराव कुछ ही समय की बात है। आज जबकि हमारी अर्थव्यवस्था इंग्लैंड से आगे निकल चुकी है वह देश फ़्री ट्रेड एग्रीमैंट करने को उतावला है। लेकिन आज़ादी के 75वें साल में कुछ ऐसी दरारें बाहर निकल रही है जो चिन्ताजनक है। एक, बढ़ता साम्प्रदायिक टकराव है। इसे रोकने के लिए वह सख़्ती नहीं दिखाई जाती जो दिखाई जानी चाहिए। दूसरी बड़ी चिन्ता अमीर और गरीब में बढ़ती खाई है जो बड़ा आर्थिक, समाजिक और राजनीतिक मुद्दा बनता जा रहा है।
हाल ही में ऑक्सफॉम की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की कुल सम्पदा का 40 फ़ीसदी केवल 1फीसदी लोगों के पास है जबकि निचले 50 फ़ीसदी के पास केवल 3 फ़ीसदी हिस्सा है। देश के 70 फ़ीसदी लोगों की संपत्ति देश के 21 अरबपतियों से भी कम है। साल भर में इन अरबपतियों की जायदाद में 121 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। कभी समाजवाद की आलोचना होती थी कि वह ग़रीबी बाँटता है पर हमारा यह मॉडल भी सही नहीं जहां अरबपतियों का प्रसार बढ़ता और बढ़ता जा रहा है, जबकि ग़रीबी की रेखा के नीचे लोगों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। बड़ा उद्योग बढ़ रहा है जबकि छोटा और मध्यम उद्योग कमजोर हो गया है। आशा है कि सरकार इस तरफ़ ध्यान देगी और आने वाले बजट में अमीर और गरीब में बढ़ती खाई को कम करने के लिए ज़रूरी कदम उठाएगी। जो अत्यंत रईस है वित्त मंत्री को उन पर टैक्स बढ़ा कर कमजोर वर्ग के उत्थान में इसका इस्तेमाल करना चाहिए। देश की दौलत बढ़नी चाहिए, बड़े उद्योग का विस्तार होना चाहिए क्योंकि वह दोनों राजस्व और रोज़गार प्रदान करता है, पर जो कमजोर है उनका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। देश की सम्पदा का अधिक से अधिक सही बँटवारा होना चाहिए। आर्थिक नीति की सफलता गरीब और अमीर के फ़ासले को कम करना है। यहां उलट हो रहा है। इसे सही करने की ज़रूरत है।
इस बीच राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा कन्याकुमारी से शुरू हो कर कश्मीर अपनी मंज़िल तक पहुँच रही है। जब यह यात्रा शुरू हुई तो बहुत लोग, मेरे समेत, इसे लेकर शंकित थे। सोचा था कि वह बीच में छोड़ फिर ग़ायब हो जाएँगे। पर ग़ज़ब की प्रतिबद्धता दिखाते हुए वह 3500 किलोमीटर पैदल चल, हर क़िस्म के मौसम के बीच टी शर्ट में गुजरते हुए श्रीनगर पहुँचने वाले हैं। वह संतोष से कह सकतें हैं,
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
और कारवाँ भी कैसा कारवाँ है! देश ने पहले गांधी और विनोबा को पैदल घुलमिलते अपने बीच देखा था। पर आजकल तो रथयात्रा पर सवार होकर हाथ हिलाते कथित यात्रा पास से निकल जाती है। राहुल गांधी में पहली बार किसी नेता को लोग उनकी बात सुनते, उनका हाथ पकड़ते, उन्हें गले लगाते,बच्चे को पीठ पर उठाते, देख रहें है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर मैंने कभी गुलाम नबी आज़ाद या लाल सिंह का दिल दुखाया है तो माफ़ी माँगता हूँ। ऐसी विनम्रता हमारी राजनीति में और कहाँ नज़र आती है? यहां कौन माफ़ी माँगता है? यात्रा की विशेषता भी है कि यह सहज और सादी है। राहुल गांधी सबके बीच चल रहें हैं। मैंने बहुत पहले लिखा था कि वह ‘पप्पू’ या ‘राहुल बाबा’ नहीं रहे। पर यह यात्रा हमें राहुल गांधी के व्यक्तित्व का वह पहलू दिखा गई है जो पहले छिपा रहा था, कि वह एक परिपक्व और अनुभवी व्यक्ति, मैंने नेता नहीं कहा, हैं जो अपने देश की दिशा को लेकर चिन्तित हैं और अपनी सोच के मुताबिक़ देश की आत्मा के जगाना चाहता है। और उनका संदेश पहुँच रहा है। न केवल कमल हसन या मेधा पाटकर या रघुराम राजन जैसे लोग ही समर्थन दे रहे हैं पर अयोध्या से राम मंदिर ट्रस्ट के सचिव चंपत राय का कहना है, ‘मैं भगवान राम से इसे आशीर्वाद देने की प्रार्थना करता हूं ताकि देश की एकता और सद्भाव और मज़बूत हों’। अयोध्या से और बहुत से महापुरुषों ने उन्हें आशीर्वाद दिया है। उनका कहना है कि वह सब उसका समर्थन करते हैं जो देश के लोगों को जोड़ता है और भावनात्मक एकता बढ़ाता है।
इस देश में ज़रूरत से अधिक राजनीति है। हम एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक बंद दरवाज़ों वाली वंदे भारत में सफ़र करते नज़र आतें है। जो प्लैटफ़ॉर्म पर रह गया सो रह गया, हमने तो अगला स्टेशन जीतना है। राहुल प्लैटफ़ॉर्म पर बच्चों के साथ घंटो बैठे निकलती ट्रेनों को देखते भारतीयों से बात कर रहें हैं। उन्होंने एक बार अगले चुनाव की बात नहीं की। और बात भी अपनी खुली करतें है यहाँ तक कि महाराष्ट्र जाकर सावरकर की आलोचना कर दी! यह बहुत ज़रूरी है कि देश में सभ्य संवाद की परम्परा को फिर से क़ायम किया जाए। राजनीति केवल चुनाव जीतने की मशीनरी बन चुकी है। गाली गलौज बहुत होता है। धर्म और जाति पर आधारित भावनाओं को बेलगाम कर दिया गया है। अब नेतृत्व के कहने पर भी लोग बात नहीं मान रहें। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट तौर पर फ़िल्मों के खिलाफ अभियान चलाने का विरोध किया है पर अभी भी ‘पठान’ फ़िल्म के बॉयकॉट की बात कुछ लोग कर रहें हैं। समाज में पूर्वाग्रह बहुत बढ़ चुकें है, इन्हें सम्भालना मुश्किल हो रहा है।
ऐसे में राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा एक सुखद और ताज़ा अनुभव है। वह चुनाव जीतने या बूथ मैनेजमेंट की बात नहीं करते बल्कि उन मुद्दों को उठा रहें हैं जो बुनियादी हैं। वह लोगों के बीच चल कर सांझी चिन्ताओ, कमजोर होता भाईचारा, स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोज़गारी, महंगाई, अमीर गरीब में बढ़ता फ़ासला, लोकतांत्रिक मूल्यों, सब के बारे बात कर रहें हैं। आजकल जो ‘ हम और वह’ ज़हरीला माहौल बन गया है, वह उससे कोसो दूर हैं। मलिक्कार्जुन खड़गे को पार्टी अध्यक्ष बना कर वह परिवारवाद के लांछन से दूर हो गए हैं। वह उस भारत की बात करते हैं जो सबका साँझा है। उनका संदेश चुनाव के हिसाब किताब से उपर है। कि कभी उनकी टी शर्ट की आलोचना तो कभी थर्मल बनियान की चर्चा, बताता है कि आलोचकों के पास भी इस वकत उनके ख़िलाफ़ कहने को कुछ नहीं है। गांधीजी ने एक बार कहा था कि ‘कभी कभी हम अपने विरोधियों के कारण आगे बढ़ते हैं’।
क्या इस यात्रा का स्थाई प्रभाव होगा? क्या इस यात्रा से राजनीतिक ज़ख़्मों पर मरहम लग सकेगी? क्या समाज में असमानता और पक्षपात कुछ कम होगा? क्या यात्रा समाप्त होने के बाद भी राहुल गांधी इस जोश को क़ायम रखने में सफल रहेंगे? क्या आगे भी वह राजनीतिक सत्ता के प्रभामंडल के बिना इसी तरह अभियान चलाने की हिम्मत दिखाएँगे? उन्होंने डायलॉग शुरू किया है पर क्या यह 30 जनवरी को श्रीनगर जाकर समाप्त हो जाएगा? और सबसे बड़ा प्रश्न क्या वह भाजपा को चुनौती दे सकेंगे? आख़िर प्रेम और भाईचारा बाँटने से ही वोट नहीं मिलते।
इन सवालों का जवाब तो आने वाला समय देगा। कांग्रेस का संगठन आलसी हैं वह नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का मुक़ाबला करने की स्थिति में नहीं है। जहां दिग्विजय सिंह जैसे यात्री हों वहाँ दुश्मन की क्या ज़रूरत है ? कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए एक यात्रा पर्याप्त नहीं होगी। आगे 9 प्रदेशों के चुनाव है और फिर आम चुनाव। हाँ, इस यात्रा से कांग्रेस का और फिसलना रूक जाएगा और राहुल गांधी की छवि में जो चमक आई है उसका फ़ायदा होगा। वह विपक्षों में सबसे महत्वपूर्ण बन गए है। पर उधर भी खूब कंफयूजन है। देखना है कि 30 जनवरी को श्रीनगर में कितनी पार्टियाँ शामिल होती हैं ?ममता बैनर्जी, अरविंद केजरीवाल, नीतीश कुमार के बाद तेलंगाना के केसीआर भी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा दिखा रहें है। इनमें से नीतीश कुमार सबसे शातिर नेता हैं क्योंकि हिन्दी भाषी क्षेत्र से हैं, बिहार की अपनी 40 लोकसभा सीटें हैं और अवसरवादी समझौते करने से नीतीशजी कभी नहीं घबराए। इसी बीच दाड़ी बढ़ाए, अद्भुत स्टैमिना दिखाते हुए राहुल गांधी है।
मिल रहे समर्थन और प्रेम से वह खुद भी हैरान लग रहें है। उनकी यात्रा के राजनीतिक प्रभाव का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है। पर मुझे कुछ और कहना है। क्या सब कुछ राजनीति ही है, सत्ता ही है ? जिस तरह इस यात्रा का लोगों के दिल और दिमाग़ पर असर पड़ा है वह बताता है कि राजनीति से दूर एक और भारत है, जो असली भारत है। शांत, संवेदनशील, प्रेम से भरपूर। सही सोच वाला गणतंत्र। वह रोज़ के लड़ाई झगड़े से दूर है और उसकी बात चाव से सुन रहा है जो सबको जोड़ने की बात कह रहा है। यह संदेश भी है कि हम सब एक दूसरे से जुड़े हैं और जो सही बात करेगा उसे साथ चलने वाले मिल जाएँगे। मुझे तो ख़ुशी है कि राजनीति से उपर उठ कर कोई बात कह रहा है। इसका कितना सही प्रभाव होगा अभी कहा नहीं जा सकता पर संतोष है कि,
कुछ नहीं तो कम से कम ख़्वाब -ए-सहर देखा तो है
जिस तरफ़ देखा न था अब तक उधर देखा तो है !