मुशर्रफ: विवादित विरासत, Musharraf : Disputed Legacy

परवेज़ मुशर्रफ का भी वही हश्र हुआ है जो पहले कई तानाशाह का हो चुका है।  मुशर्रफ की मौत सद्दाम हुसैन की तरह ‘चूहे की मौत’ तो नहीं कही जा सकती पर अपने अंतिम दिनों में उन्हें अत्यंत अपमानजनक ज़िन्दगी जीनी पड़ी थी यहाँ तक कि अपना देश छोड़ कर दुबई भागना पड़ा था। वह देश नहीं लौट सकते थे और मौत के बाद ही उनका शव दफ़नाने के लिए पाकिस्तान लाया गया। उन्होंने अक्तूबर 1999 में नवाज़ शरीफ़ की सत्ता पलट दी थी।   दो साल  बाद आगरा शिखर वार्ता के लिए उन्होंने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया।2008 तक वह राष्ट्रपति रहे पर फिर हालात उनके ख़िलाफ़ होते गए और उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी। एक साल पहले बेनजीर भुट्टो की रावलपिंडी में हत्या हो गई। बेनजीर ने बहुत पहले कहा था कि अगर उनकी हत्या हुई तो परवेज़ मुशर्रफ ज़िम्मेवार होंगे।

2007 में ही परवेज़ मुशर्रफ ने एक और बेवक़ूफ़ी की। उन्होने सत्ता के जोश में आकर न्यायपालिका के साथ झगड़ा ले लिया। 2007 में संविधान को रद्द कर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कई जज गिरफतार कर लिए।यह टकराव उन्हें अंतिम दिन तक परेशान करता रहा। 2014 में उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा शुरू हो गया क्योंकि उन्होंने संविधान की उल्लंघनों कर निर्वाचित सरकार का तख्ता पलट दिया था। उन पर देश छोड़ कर जाने पर पाबंदी भी लगा दी गई जो सेना के दबाव में हटा दी गई। 2019 में एक विशेष अदालत ने उन्हें देशद्रोह के लिए मौत की सजा दे दी  जो फिर सेना के दबाव में हटा दी गई क्योंकि सेना नहीं चाहती थी कि उनके पूर्व सेनाध्यक्ष का ऐसा हश्र हो। पर तीन सदस्यीय बैंच के एक जज का फ़ैसला बहुत चर्चा में रहा जिन्होंने कहा कि अगर मौत की सजा लागू होने से पहले मुशर्रफ मर जाता है तो, ‘उसकी लाश इस्लामाबाद के बीच डी- चौक पर घसीट कर लाई जाए और वहाँ तीन दिन लटकाई जाए’। वहाँ के अख़बारों ने लिखा है कि लम्बे समय के लिए मुशर्रफ को दोनों ‘नायक’ और ‘खलनायक’ के तौर पर याद किया जाएगा।  डेली टाईम्स ने सम्पादकीय में लिखा था कि मुशर्रफ का शासन लोकतंत्र को क्षति पहुचाने वाला जाना जाएगा पर उस दौरान आर्थिक तरक़्क़ी का दौर भी आया था।  

भारत के साथ उनका अप्रिय  सामना पहली बार फ़रवरी 1999 में हुआ जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष परवेज़ मुशर्रफ ने भारत के प्रधानमंत्री को सेल्यूट करने से इंकार कर दिया। दो साल बाद जब वह आगरा शिखर वार्ता के लिए आए तो एयर मार्शल टिपनिस ने भी पाकिस्तान के राष्ट्रपति को सेल्यूट करने से इंकार कर दिया था। पर लाहौर में जब वाजपेयी और नवाज़ शरीफ़ गर्मजोशी से मिल रहे थे और समझा गया था कि लाहौर घोषणापत्र से दोनों देशों के सम्बन्ध में बेहतरी होगी मुशर्रफ और उनके जनरल कारगिल में हमला कर रहे थे। जब वाजपेयी को पता चला तो उन्होंने नवाज़ शरीफ़ से पूछा, ‘ मियाँ साहिब यह क्या किया आपने’ तो नवाज़ शरीफ़ ने जानकारी न होने की बात कही और ठीकरा सेना पर फोड़ दिया। मई-जुलाई 1999 में भीषण युद्ध हुआ जिसमें हमारे 500 लोग शहीद हुए थे और कारगिल की चोटियों पर फिर हमारा क़ब्ज़ा हो गया।  पर मुशर्रफ इतना चुस्त था कि पराजय की ज़िम्मेवारी नवाज़ शरीफ़ पर डाल कर अक्तूबर में उन्हें हटा कर पाकिस्तान के शासक बन गए। वह कमांडो रहे थे।  कमांडो की तत्काल निर्णय लेने, या निर्णय बदलने, की उनकी क्षमता बाद में भी कई बार प्रदर्शित हुई। 

विश्व मंच पर मुशर्रफ की फुर्ती दुनिया ने तब देखी जब अमेरिका पर 2001 में 9/11 का हमला हुआ। हमला ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा ने करवाया था। अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने पाकिस्तान को धमकी दी कि आप निर्णय करें कि आप हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ ?मुशर्रफ समझ गया कि अगर अमेरिका की बात नहीं मानी तो उत्तेजित अमेरिका हमला कर सकता है।  वह अमेरिका की ‘वॉर अगेंनस्ट टैरर’ में शामिल हो गए। अमेरिका से खूब मदद मिलती रही और वह व्यक्ति जिसे मिलिटरी डिक्टेटर कहते हुए अमेरिका नफ़रत करता था, वह जल्द अमेरिका का फ़ेवरेट बन गया। मुशर्रफ ने भी यूनिफ़ॉर्म हटा कर शेरवानी डाल ली।वह इतना मनपसंद बन गया कि अमेरिका की यात्रा पर गए हमारे गृहमंत्री लाल कृषण आडवाणी से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कौनडलीजा राइस ने कहा कि मुशर्रफ से सहयोग करें क्योंकि ‘अगर वह गिर गया तो उसकी जगह अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान की तरह दाड़ी वाला मुल्ला ले लेगा’। आडवाणी का जवाब था कि मुशर्रफ रोज़ाना हमारा खून बहा रहा है। उनकी जगह कोई मुल्ला और बुरा नहीं हो सकता।   पर मुशर्रफ अमेरिका का भी उल्लू बना गए। आतंकवाद के खिलाफ जंग में हिस्सा लेते वक़्त पाकिस्तान ने प्रमुख आतंकवादी ओसामा बिन लदने को अपने अंदर छिपा लिया जहां वह एबटाबाद की छावनी में अमेरिकी कारवाई में 2 मई 2011 को मारा गया। अमेरिका उसे अफ़ग़ानिस्तान की गुफाओं में ढूँढता रहा पर उनकी आँखों में धूल झोंकते हुए पाकिस्तान ने दस साल अपनी छावनी में छिपा रखा था। 

भारत के साथ मुशर्रफ का लव-हेट रिश्ता था। बांग्लादेश की लड़ाई में अपने देश के अपमान का मुशर्रफ बदला लेना चाहते थे पर  बार बार सम्बंध बेहतर करने का प्रयास भी करते रहे। इंडियन एयरलाइंस की उड़ान 814 का अपहरण,जम्मू कश्मीर विधानसभा पर आतंकी हमला और भारत की संसद पर हमला जब दोनों देश युद्ध के कगार पर पहुँच गए थे, सब मुशर्रफ के कार्यकाल में हुए थे।  लेकिन इसके बावजूद जैसे पाकिस्तान में हमारे पूर्व राजदूत टीसीए राघवन ने लिखा है मुशर्रफ ने ‘भारत के साथ बात करने की वह इच्छा दिखाई जो बहुत लोगों को दंग छोड़ गई’।  वह  भारत के साथ सम्बंध सामान्य करने के लिए उस सीमा तक जाने को तैयार हो गए जहां तक पहले कोई पाकिस्तानी नेता जुर्रत नहीं कर सका।वह समझ गए जो बात उनके बाद की सरकारों को भी समझ आ गई, कि भारत के साथ दुश्मनी ख़त्म करे बिना उनकी गति नहीं है। पर केवल उस कमांडो में दम था कि उसने सार्थक प्रयास किया  चाहे परिस्थिति ने अंजाम तक पहुँचने नहीं दिया। मई 2004 में वाजपेयी सरकार चुनाव हार गई। बताया जाता है कि मुशर्रफ काफ़ी निराश हुए पर उन्होंने  वाजपेयी के उत्तराधिकारी डा.मनमोहन सिंह के साथ प्रयास जारी रखा। 

जी पारथासार्थी जो वहाँ हमारे राजदूत रहे हैं ने बताया है कि वार्ता का आधार डा.मनमोहन सिंह की यह धारणा थी कि सीमा बदली नहीं जा सकती पर इसे अप्रासंगिक बनाया जा सकता है और यह केवल नक़्शे पर रेखा रह जाएगी। नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ़ लोग आसानी से आ-जा सकेंगे। मुझे तो शक है कि यह योजना कितनी व्यवहारिक रहती क्योंकि उधर से जिहादी भी आ सकते हैं, पर दोनों सरकारें इस पर गम्भीर थी। शायद यह योजना लागू भी कर दी जाती पर तब तक मुशर्रफ की स्थिति कमजोर पड़ गई थी और 2008 को उन्हें हटना पड़ा। पाकिस्तान में बहुत लोग हैं जो हमारे साथ बेहतर सम्बंध चाहते हैं पर वहाँ  बराबर लॉबी है जो हमारे से नफ़रत करती है। वह कभी इस योजना को सफल न होने देती। भारत में भी दो राय थीं कि कारगिल के शिल्पकार पर विश्वास किया जाए या न किया जाए ? पर यह मानना पड़ेगा कि मुशर्रफ के शासन के एक  दशक  के दौरान दोनों देशों ने अपनी अपनी सख़्त पोसीशन को नरम किया था।

पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी ने अपनी किताब में लिखा है कि 2001 के आगरा सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान कश्मीर के विवादित मुद्दे पर समाधान ढूँढने के नज़दीक थे। आगरा शिखर सम्मेलन भी भारत पाक रिश्तों में एक दिलचस्प पढ़ाव था। एक तरफ़ हमारे अनुभवी पर शांत अटल बिहारी वाजपेयी थे तो दूसरी तरफ़ तेज तर्रार और अधीर परवेज़ मुशर्रफ। मुशर्रफ को बुलाने का विचार लालकृष्ण आडवाणी का था। अपनी जीवनी माई कनट्री माई लाइफ़ में वह बताते हैं कि प्रधानमंत्री के निवास पर लंच पर जहां जसवंत सिंह भी मौजूद थे, आडवाणी का यह सुझाव स्वीकार कर लिया गया कि मुशर्रफ के साथ फिर प्रयास किया जाए और उन्हें भारत बुलाया जाए। पहले विचार था गोवा बुलाने का पर फिर अटलजी का सुझाव स्वीकार कर लिया गया कि आगरा बुलाया जाए। उन्हें अमर विलास  होटल में रखा गया जहां चाँदी के बर्तनों में खाना परोसा गया। मुशर्रफ ने अपनी पत्नी के साथ ताजमहल के आगे चित्र भी खिंचवाया।

पर आगरा वार्ता असफल रही। इसके बारे मुशर्रफ अपनी किताब इन द लाइन ऑफ फ़ायर में लिखते हैं, “मैंने उन्हें(वाजपेयी)  साफ़ तौर पर बता दिया कि कोई हम दोनों के उपर है जिसके पास हमें ख़ारिज करने का अधिकार है… वह ख़ामोश बैठे रहे। मैं उनका धन्यवाद कर वहाँ से निकल आया…वाजपेयी उस क्षण को सम्भाल नहीं सके और इतिहास में अपनी जगह खो बैठे”।  अर्थात् मुशर्रफ उस व्यक्ति पर असफलता का इलज़ाम लगा रहे थे जिनके सुझाव पर उन्हें आगरा बुलाया गया, लालकृष्ण आडवाणी। आडवाणीजी के अनुसार अविश्वास का कारण और था। जब आपसी विश्वास क़ायम करने की बात हो रही थी तो आडवाणी ने मुशर्रफ से कहा, ‘आप शान्ति प्रक्रिया के प्रति बहुत योगदान डाल सकते हैं अग़र आप दाउद इब्राहीम को हमारे हवाले कर दो’। मुशर्रफ इस गुगली के लिए तैयार नहीं थे। उनका चेहरा लाल हो गया और उन्होंने  शिकायत की कि यह सही  ‘टैकटिक’ नहीं है पर फिर खुद को सम्भालते हुए स्पष्ट झूठ बोला,’ मिस्टर आडवाणी मैं आपको ज़ोर से बता रहा हूँ कि दाउद इब्राहीम पाकिस्तान में नही है’।

चिड़े हुए मुशर्रफ का अब कहना था कि ‘मुख्य मुद्दा कश्मीर है’, जो बात उनके मेज़बानों को बिलकुल स्वीकार नहीं थी। भारतीय मीडिया के साथ बातचीत में उन्होंने कश्मीर की स्थिति को ‘आज़ादी की लड़ाई’  कह दिया और कहा कि हिंसा तब ही रूकेगी जब विवाद ख़त्म होगा। उसके बाद शिखर सम्मेलन को कोई बचा नहीं सकता था। लेकिन बर्फ़ पिघल गई और जनवरी 2004 में अपनी इस्लामाबाद यात्रा के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी को भारी कूटनीति सफलता मिली जब मुशर्रफ ने यह वायदा कर दिया कि उनकी ज़मीन का भारत के खिलाफ आतंकवाद के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा। और वह इस वादे पर काफ़ी हद तक क़ायम भी रहे। यह ऐतिहासिक क्षण था जिसका श्रेय मुशर्रफ को भी जाता है।  अपनी किताब जो उन्होंने 2008 में लिखी थी, में  लालकृष्ण आडवाणी ने यह भी लिखा है कि ‘पाकिस्तान एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है।अपने हित के लिए उन्हें रास्ते का सही चुनाव करना हैं’। पाकिस्तान का जो हश्र हो रहा है उसे देखते हुए  कहा जा सकता है कि मुशर्रफ के बाद जो लोग आए उन्होंने सही चुनाव नहीं किया।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.