पूर्वोत्तर के तीन राज्यों, त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड से लोकसभा की महज़ 5 सीटें हैं पर इनके विधानसभा चुनाव हमारी राजनीति के लिए बहुत महत्व रंखते हैं। कारण यह है कि यहाँ आदिवासी बाहुल्य है और त्रिपुरा को छोड़ कर बाक़ी दो प्रदेशों में ईसाई बहुमत है। यहाँ चर्च का दबदबा भी है। यह क्षेत्र परम्परागत कांग्रेस समर्थक रहा है। अब यहाँ तीनों प्रदेशों की सरकारों में भाजपा शामिल हो रही हैं।त्रिपुरा में भाजपा का वोट शेयर और सीटें कम हुई है पर पार्टी के पास अपना बहुमत है। नागालैंड में भाजपा एनडीपीपी के साथ मिल कर सरकार बना रही है। मेघालय में कॉनरैड संगमा के खिलाफ चुनाव लड़ने और उन पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगाने के बाद केवल 2 सीटों वाली भाजपा उनके साथ सरकार में शामिल होने जा रही है। दूसरी तरफ़ कांग्रेस है जो 180 में से केवल 8 सीटें जीत सकी है। पाँच मेघालय में और तीन त्रिपुरा, नागालैंड में वह अपना खाता भी नहीं खोल सकी। कांग्रेस के लिए और भी बुरी खबर है कि नागालैंड में शरद पवार की एनसीपी ने 7, लोक जनशक्ति पार्टी (राम बिलास) ने 2 और आरपीआई (अठावले) ने 2 सीटें जीत ली हैं।
उत्तर पूर्व से बड़ा संदेश है कि वहाँ भी भाजपा हावी पार्टी है जबकि कांग्रेस में दमख़म नहीं रहा। कई बार तो लगता है कि संघर्ष करने का जज़्बा ही नहीं रहा। दूसरी तरंफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी है जो अनथक हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी ज़रूरी है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में अलगाव की भावना ख़त्म हो। वहां के लोगों की शिकायत हैं कि क्योंकि वह दिल्ली से दूर है इसलिए कोई उनकी परवाह नहीं करता। दिल्ली में भी उनके ख़िलाफ़ नस्ली हमले हो चुकें हैं जबकि सर्विस सेक्टर में इन प्रतिभाशाली लोगों का बहुत बड़ा योगदान है। लोगों को अब वहाँ विकास होता दिख रहा है। नागालैंड और मणिपुर के बीच रोड ब्लाक भी हट रहे हैं नहीं तो यह हाईवे कई कई सप्ताह ठप्प रहती थी। भाजपा को यह भी फ़ायदा हो रहा है कि लोग लम्बे टकराव से अब तंग आ चुकें है। युवा विशेष तौर पर अपनी ज़िन्दगी चैन से जीना चाहते हैं।
मेघालय और नागालैंड में शान्ति के कारण भी लोगों के लिए भाजपा अछूत नहीं रही। यहाँ भाजपा ने भी बहुत व्यवहारिकता दिखाई है। उत्तर पूर्व की संस्कृति को समझते हुए वह समझौते किए हैं जिनके बारे बाकी देश में सोचा भी नहीं जा सकता। सारे देश में गौ-हत्या के खिलाफ अभियान चलाया गया है जिससे कई जगह लिंचिंग की घटनाओं भी हो चुकी हैं पर उत्तर पूर्व में भाजपा ने कह दिया कि बीफ़ खाने पर कोई पाबंदी नहीं होगी। न ही भाजपा चर्च के ही ख़िलाफ़ है। मेघालय और नागालैंड के भाजपा चीफ़ तो खुलें कह रहें हैं कि वह बीफ़ खातें हैं। बाक़ी देश में यह कहा जाता तो विस्फोट हो जाता। स्थानीय संस्कृति, रिवाज, खान पीन और धार्मिक विश्वास का आदर कर एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर भाजपा ने बड़प्पन दिखाया है। यही उदारता अगर बाक़ी देश में भी दिखाई जाए तो देश का बहुत भला होगा और भाजपा की अंतरराष्ट्रीय छवि चमक जाएगी। हरियाणा में दो मुसलमानों को गाय तस्करी के आरोप में कुछ लोगों ने एसयूवी में जला दिया। कोई नहीं जानता कि वह वास्तव में गाय तस्कर थे भी या नहीं? अगर थे भी तो क़ानून के नीचे कार्यवाही की जानी चाहिए सजा देने का अधिकार कथित गौ- रक्षकों के पास नहीं होने चाहिए। यह तो जंगल का न्याय है।
उत्तर पूर्व में भाजपा की जीत का दूसरा बड़ा कारण है कांग्रेस, और विशेष तौर पर कांग्रेस के नेतृत्व, की कमजोरी है। प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्वोत्तर का 51 बार दौरा किया। कई जगह रोड शो किए। और कांग्रेस के नेतृत्व ने? इसका जवाब जयराम रमेश ने दिया कि, ‘ यह कहना कि हम इसलिए हारे क्योंकि केन्द्रीय नेतृत्व चुनाव अभियान से ग़ायब था सही नहीं होगा…यह प्रादेशिक चुनाव था… अगर प्रदेश और ज़िला स्तर पर हमारा
संगठन कमजोर है तो हम चुनाव नहीं जीत सकते’। मुक़ाबला नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की भाजपा से है जो हर चुनाव को गम्भीरता से लेते हैं और कांग्रेस कह रही है कि प्रादेशिक चुनाव में प्रचार करना उनके महान नेतृत्व की गरीमा के नीचे है !और अगर संगठन कमजोर है तो भी यह किस का क़सूर है? ठीक है राहुल गांधी भारत जोड़ों यात्रा में व्यस्त थे पर बाक़ी नेताओं ने पूर्वोत्तर पर ध्यान क्यों नहीं दिया? कांग्रेस के लिए यह भी अच्छी खबर नहीं कि भारत जोड़ों यात्रा का चुनाव परिणाम पर असर नहीं पड़ा। चुनाव से पहले अडानी ग्रुप के बारे हिंडनबर्ग रिपोर्ट और 2002 के गुजरात दंगों के बारे बीबीसी की डाकयूमैंटरी प्रसारित की गई। पर इनका चुनाव पर असर नहीं पड़ा।
न ही राहुल गांधी के केम्ब्रिज और यूके में और जगह भाषण देने का यहाँ वोटर पर कोई असर होगा। इससे निजी ईगो को पॉलिश ज़रूर लगता है पर वोट नहीं मिलते। उनका वहाँ यह कहना कि ‘लोकतंत्र के संरक्षक अमेरिका और योरूप इस बात के प्रति बेपरवाह क्यों है कि देश के लोकतंत्र का बड़ा हिस्सा नष्ट कर दिया गया है’ तो मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार करना है। बाद में संशोधन ज़रूर किया कि यह हमारा अंदरूनी मामला है पर पहले तो वह विदेशी ताक़तों को देश के अंदरूनी मामलों में दखल के लिए आमंत्रित कर रहे थे। अगर उन्होंने देश का नेता बनना है तो सोच समझ कर बोलना होगा। राहुल गांधी कांग्रेस की ताक़त भी हैं जैसे उन्होंने भारत जोड़ों यात्रा द्वारा प्रदर्शित भी कर दिया, पर कई बार वह अनावश्यक समस्या भी खड़ी कर देते हैं। उनके कारण विपक्षी एकता में रूकावट भी है जिसके बिना भाजपा का मुक़ाबला नहीं हो सकता, और कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता निरर्थक है। नीतीश कुमार का कहना है कि अगर विपक्षी एकता हो जाए तो भाजपा 100 के अंदर सिमट जाएगी। वह अधिक आशावादी नज़र आते हैं पर यह बात सही है कि अगर विपक्ष इकठा होकर मुक़ाबला करें तो भाजपा के लिए समस्या हो सकती है। पर इस समय 2024 में ऐसा गठबंधन जिसकी ध्रुवी कांग्रेस हो मृगतृष्णा ही लगती है। ममता बैनर्जी कह ही चुकीं हैं कि उनकी पार्टी लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ेगी। उड़ीसा की बीजू जनता दल, तेलंगाना की भारत राष्ट्र समिति और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस भी नहीं चाहते कि कांग्रेस फिर ताकतवार बन जाए।
कांग्रेस खुद भी स्पष्ट नहीं कि 2024 में उसकी भूमिका क्या होगी? कांग्रेस के महासचिव केसी वेणुगोपाल कह चुकें हैं कि हमारे बिना विपक्षी एकता सम्भव नहीं। राहुल गांधी का नाम आगे करने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष मलिलकार्जुन खड़गे का अब कहना है कि कांग्रेस ने कभी नहीं कहा कि कौन पीएम बनेगा? वह विपक्षी एकता की बात तो करते हैं पर इसके लिए बहुत ज़ोर भी नही लगा रहे। हाल ही में आप नेता मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी के विरोध में 9 विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखा है उस पर कांग्रेस के किसी नेता के दस्तख़त नहीं है। एक तरफ़ निर्मम प्रतिद्वंद्वी भाजपा है जिसे राजनीति की असीमित भूख है दूसरी तरफ़ कांग्रेस का आरामप्रस्त नेतृत्व है जो समझता है कि फल खुद ही गोद में गिर जाएगा पेड़ पर चढ़ने की ज़रूरत नही। टीएमसी, आप और टीआरएस जैसी पार्टियाँ तो पहले ही राहुल गांधी की रहनुमाई स्वीकार करने को तैयार नहीं। कांग्रेस क्षेत्रिय बलों को सम्मान नहीं देती और वह कांग्रेस को अपने लिए ख़तरा समझती है। जब तक प्रमुख क्षेत्रीय दलों को साथ गिव -ऐंड -टेक का फ़ार्मूला नहीं बन जाता तब तक विपक्षी एकता माया ही रहेगी।
पूर्वोत्तर के इन निराशाजनक परिणामों के बीच उपचुनावों के परिणाम कांग्रेस को राहत देंगे। 6 प्रदेशों में हुए उपचुनावों में कांग्रेस तीन पर विजयी रही है। महाराष्ट्र के कस्बापेठ सीट कांग्रेस ने भाजपा से छीन ली है। पुणे के अपने गढ़ में भाजपा यह सीट 28 साल बाद हारी है। पश्चिम बंगाल की सागरदीघी सीट भी कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस से छीन ली। मौजूदा विधानसभा में यह कांग्रेस की पहली जीत है। तृणमूल कांग्रेस का समर्थन कुछ कम हो रहा है। पर उल्लेखनीय है कि ममता बैनर्जी की पार्टी से नाराज़ लोगों ने प्रमुख विपक्ष भाजपा को नहीं, कांग्रेस को समर्थन दिया है। भाजपा का प्रत्याशी दूर तीसरे नम्बर पर था। इसी प्रकार तमिलनाडु की इरोड सीट कांग्रेस ने फिर भारी बहुमत से जीत ली है। इन चुनाव परिणामों के बारे भी नोट करने की दो बातें हैं। एक, तीनों जगह कांग्रेस को किसी न किसी पार्टी का सहारा था। महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी की तीनों पार्टियाँ, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना(उद्धव बाला साहब ठाकरे) ने मिल कर चुनाव लड़ा। पश्चिम बंगाल में वामदलों ने समर्थन दिया और तमिलनाडु में द्रुमुक के कार्यकर्ताओं ने सम्भाला। दूसरा, इस जीत में कांग्रेस के नेतृत्व का कोई हाथ नहीं था। यह जीत स्थानीय लोगों की जीत है जैसे हिमाचल प्रदेश की जीत थी चाहे श्रेय परिवार को देने की कोशिश की गई।
भाजपा में जीतने का जज़्बा बहुत है। कांग्रेस वह किलिंग+ स्पिरिट नहीं दिखा रही। आगे कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव है जहां भाजपा के साथ सीधी टक्कर है। यहाँ कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहता है पर निर्भर करेगा कि बाक़ी विपक्ष उसे गम्भीरता से लेता है या नहीं? कर्नाटक विशेष तौर पर महत्व रखता है क्योंकि वहाँ भाजपा की बोम्मई सरकार को भारी शासन विरोधी भावना का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में एक भाजपा विधायक के बेटे से 8 करोड़ रूपया बरामद हुआ है। उल्लेखनीय कि उस विधायक को विपक्षी नेताओं की तरह गिरफ़्तार नहीं किया गया उल्टा जब उसे ज़मानत मिली तो हीरो की तरह स्वागत किया गया।
जहां तक सारे विपक्ष का सवाल है अगर उन्होंने भाजपा को पराजित करना है तो एकजुट होना पड़ेगा जिसकी फ़िलहाल तो सम्भावना नज़र नहीं आ रही। रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने भी कहा है कि वह एक जैसी राय रखने वाली पार्टियों से गठबंधन चाहती है। लेकिन यह होगा कैसे और करेगा कौन? इस समय कोई जयप्रकाश नारायण नहीं है। नीतीश कुमार कोशिश कर सकते हैं पर उनकी अपनी महत्वकांक्षा है। 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव न केवल कांग्रेस बल्कि देश की राजनीति के लिए निर्णायक होगा। यह तय करेगे कि क्या भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए विपक्ष इकट्ठा हो सकता है या प्रधानमंत्री मोदी का राज्यसभा में कथन कि ‘ एक अकेला कितनों पर भारी’, सही साबित होगा।