विपक्ष: बहुत कठिन है डगर पनघट की, Not An Easy Road For Opposition Unity

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से सीबीआई की लम्बी नौ घंटे की पूछताछ से विपक्षी ख़ेमे में और हलचल पैदा हो गई है। अगर सीबीआई, ईडी, आयकर आदि का इस्तेमाल कर केन्द्रीय  सरकार विपक्ष को डराने की कोशिश कर रही है तो असर उल्टा हो रहा है। लगभग हर विपक्षी पार्टी के किसी न किसी नेता को छेड़ा जा चुका  है जिससे विपक्ष में यह भावना प्रबल हो रही है कि डूबेगी किश्ती तो डूबेंगे सारे। केजरीवाल जो बहुत ही होशियार राज नेता है का कहना है कि, ‘सबका नम्बर आऐगा’।  इस बीच उनकी आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिल गया है। दस साल के अल्प समय में इतनी कामयाबी हासिल करना मामूली बात नहीं है। ऐसा उस समय हो रहा है जब शरद पवार की एनसीपी, ममता बैनर्जी की टीएमसी और सीपीआई अपना राष्ट्रीय दल का दर्जा खो बैठें हैं। अरविंद केजरीवाल में  राजनीतिक सोच की क्षमता और वह लचीलापन है जो कई बार दोस्तों और दुश्मनों दोनों को अवाक छोड़ जाता है। जिस पार्टी का लोकसभा में शून्य हो, दो बड़े नेता भ्रष्टाचार के मामले में जेल में हो, और कोई स्पष्ट विचारधारा न हो, उस आप का सफ़र प्रभावशाली रहा है।

इसी के कारण भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इसके उत्थान को पसंद नहीं करते। कांग्रेस के रवैये में परिस्थितिवश नरमी आई है। समझ आ गई कि अगर विपक्ष ने एक मोर्चे पर मिल कर  भाजपा का सामना करना है तो यह आप के बिना नहीं हो सकता। पर अरविंद केजरीवाल भी समझ गए है कि जहां उनकी पार्टी फँस गई है उन्हें दूसरी विपक्षी पार्टियों का सहयोग चाहिए।  केजरीवाल जानते  हैं कि वह निशाने पर हैं क्योंकि वह बार-बार विधानसभा में प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमला कर चुकें हैं। लेकिन विपक्ष को केवल ईडी या सीबीआई या आयकर विभाग की कार्रवाई ही इकट्ठा नहीं कर रही। जिस तरह मानहानि के मुक़दमे में सजा मिलने से फटाफट राहुल गांधी की सदस्यता रद्द कर दी गई, से भी विपक्ष के कान खड़े हो गए हैं कि बोलने में जरा सी असावधानी बहुत नुक़सान कर सकती है। एक और बात जो विपक्ष को परेशान कर रही है  वह कई राज्यपालों की भूमिका है। शिकायत है कि वह काम में रूकावट पैदा कर रहें है।  हाल ही में तमिलनाडु की विधानसभा नें राज्यपाल आर एन रवि के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टैलिन ने ग़ैर-भाजपा प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख शिकायत की है कि, ‘हम संघीय सहयोग की भावना को लुप्त होते देख रहें हैं’।

विपक्षी सरकारों और दलों में बेचैनी के बीच नीतीश कुमार दिल्ली की यात्रा कर लौटें है। वह  गैर-भाजपा  विपक्षी दलों को इकट्ठा करने के अभियान के सूत्रधार बनना चाहतें हैं। पहले यह क़वायद शरद पवार कर रहे थे पर शरद पवार को बहुत विश्वसनीय नहीं समझा जाता। वह कभी भी पलट जातें हैं। वह अडानी मामलें में जेपीसी की माँग का विरोध कर हटें हैं।  नीतीश कुमार भी अतीत में कई बार पलट चुकें हैं पर अब उन पर भरोसा किया जा रहा है। उनके ख़िलाफ़ भाजपा के पास कुछ कहने को भी नहीं है। कोई भ्रष्टाचार का मामला नहीं। वह 18 साल से सीएम है और केन्द्रीय मंत्री रह चुकें हैं। उनकी अपनी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा भी है जो सारे विपक्ष को साथ लेकर ही पूरी हो सकती है।  उनके समर्थक उनकी ‘राष्ट्रीय भूमिका’ की बात कर रहें हैं। उनका प्रयास है कि जैसे 1977 और 1989 में कांग्रेस के खिलाफ संयुक्त मोर्चा क़ायम किया गया था वैसे ही 2024 में  भाजपा के सामने  खड़ा किया जाए। सोच यह है कि 2019 में भाजपा को चाहे 303 सीटें मिली थी पर उसका वोट प्रतिशत तो 37.36 ही था। और उस वकत अकाली दल, पूरी शिवसेना और जेडीयू भी साथ थे। पर जैसे अंग्रेज़ी के मुहावरे में कहा गया है कि प्याले और होंठ के बीच कई गड़बड़ हो सकती है पर अभी विपक्षी नेता यही महसूस करते हैं कि  वन-टू-वन फाइट जीती जा सकती है। लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि 1977 और 1989 दोनों ही सरकारें अल्पावधि रहीं थीं और  कांग्रेस वापिस सता में लौट आई थी। लेकिन विपक्ष की लम्बी सोच नहीं। वह 2024 से आगे नहीं सोच रहे।

नीतीश कुमार की अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ अच्छी मुलाक़ात हुई है। उनके साथ तेजस्वी यादव भी थे जो  चाहते हैं कि नीतीश कुमार दिल्ली चले जाएँ  और पटना की गद्दी उनको मिल जाए। चाहे इस मुलाक़ात को सभी ने ‘ऐतिहासिक’ कहा है पर अभी बहुत काम बाक़ी है। केजरीवाल अवश्य पहले से नरम है पर विपक्ष में कई नेता हैं जिनकी अपनी महत्वकांक्षा, ईगो और मजबूरी है। प्रमुख है ममता बैनर्जी जिनकी महत्वकांक्षा ज़मीनी स्थिति से मेल नहीं खाती। वह कांग्रेस से बहुत ख़फ़ा है क्योंकि राहुल गांधी वामदलों को साथ लेकर चल रहें है। वह ग़ैर-  भाजपा और ग़ैर -कांग्रेस दलों को इकट्ठा करने का प्रयास कर चुकी है पर राहुल गांधी पर हुई कार्रवाई ने तस्वीर बदल दी है।  पश्चिम बंगाल की स्थिति बताती भी है कि विपक्षी एकता का प्रयास कितना जटिल हो सकता है। अगर यह प्रयास सफल होना है तो दोनों कांग्रेस और वामपंथियों को साथ लेकर चलना होगा पर ममता बैनर्जी की दोनों से एलर्जी है।

उत्तर प्रदेश, उडीसा, आंध्र प्रदेश, असम, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, दिल्ली वह प्रदेश  है जहां कांग्रेस अब हाशिए पर है। कांग्रेस को स्वीकार करना होगा कि उसे यह जगह प्रादेशिक पार्टियों को देनी है। जिन प्रदेशों में कांग्रेस की भाजपा के साथ सीधी टक्कर है, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़, उतराखंड,  कर्नाटक, गुजरात, हिमाचल प्रदेश वहाँ वह लड सकती है।  महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु, केरल में कांग्रेस की उपस्थिति दूसरों की मेहरबानी पर है। उड़ीसा के नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी किसी भी ऐसे गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव की अपनी महत्वकांक्षा है जिन्होंने अपनी पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति से बदल कर भारत राष्ट्र समिति कर इसे स्पष्ट भी कर दिया है। नीतीश कुमार को इन्हें मनाने की ज़िम्मेदारी दी गई है पर देखतें हैं कि कितने विपक्षी दल गठबंधन में शामिल होतें  हैं? पीएम के लिए कौन चेहरा होगा? इस पर बड़ा  झगड़ा हो सकता है क्योंकि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का नेतृत्व बाक़ी विपक्षी दलों को स्वीकार नहीं। नीतीश कुमार ने कांग्रेस के नेतृत्व से कहा है कि वह नेतृत्व के सवाल को छोड़ कर कॉमन एजेंडा तय करें। अर्थात् विपक्षी एकता की डगर काफ़ी कठिन नज़र आती है।

बहुत कुछ कांग्रेस के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह विपक्षी एकता के लिए कितनी क़ुर्बानी देने को तैयार हैं? 261 सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस या तो जीती है य़ा दूसरे नम्बर पर आई है। कांग्रेस से कहा ज़ा रहा है कि वह खुद को 261 सीटों  तक ही सीमित रखे और बाक़ी सीटें क्षेत्रीय दलों के  लिए छोड़ दे। क्या कांग्रेस यह कड़वा घूँट पीने  और विपक्षी एकता के लिए सुप्रीम सैक्रेफाइज़ अर्थात् सर्वोच्च बलिदान देने को तैयार होगी? अगर यह देखा जाए कि 2019 के चुनाव में कांग्रेस को केवल 52 सीटें ही मिली थी और उसका प्रदर्शन केवल तमिलनाडु, केरल और पंजाब में अच्छा रहा है, इस पार्टी को हक़ीक़त से समझौता करना चाहिए कि चाहे वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है पर वह भाजपा का विकल्प नहीं है। कर्नाटक के आने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति अच्छी नज़र आ रही है।  कर्नाटक में भाजपा के बड़े नेता कांग्रेस में शामिल हो रहें है।पर  इसी साल छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना के चुनाव भी है जहां भाजपा ज़बरदस्त ज़ोर लगाएगी। अगर विपक्ष के मोर्चे का कनवीनर किसी ग़ैर कांग्रेसी नेता को बनाया जाता है और गांधी परिवार यह घोषणा कर देता है कि अगर विपक्षी गठबंधन सता में आता है तो वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं होंगे तो यह गेम-चेंजर हो सकता है। मैं ग़लत हो सकता हूँ, पर महसूस करता हूँ कि इस वक़्त राहुल गांधी इस क़ुर्बानी के लिए तैयार होंगे। आख़िर एक बार वह राजनीति को ‘ज़हर का प्याला’ कह ही चुकें हैं।

कांग्रेस के पास मल्लिकार्जुन खड़गे में तुरुप का पत्ता है। वह दलित हैं और उनका लम्बा राजनीतिक कैरियर है। अभी तक कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनका काम अच्छा रहा है। खड़गे तो के. कामराज की याद ताज़ा करते हैं जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए नेहरू के देहांत के बाद लाल बहादुर शास्त्री और उनके बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह अलग बात है कि वह इंदिरा गांधी को कंट्रोल नहीं कर सके।  कामराज पीएम नहीं बन सके क्योंकि उनकी अपनी भाषा में, ‘नो इंगलिश नो हिन्दी, हाउ पीएम?’ अर्थात् मुझे न अंग्रेज़ी आती है न हिन्दी, मैं प्रधानमंत्री कैसे बन सकता हूँ? पर मल्लिकार्जुन खड़गे की ऐसी कमजोरी नहीं है। कांग्रेस के नेतृत्व के सामने विकल्प सीमित है। अगर उन्होंने नरेन्द्र मोदी की भाजपा का मुक़ाबला करना है तो न केवल अपनी महत्वकांक्षा को एक तरफ़ रखना होगा बल्कि एक सार्थक विपक्षी गठबंधन को मूर्त रूप देने के लिए ईमानदार प्रयास करना पड़ेगा। अपनी  प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए वह समझौते करने पड़ेंगे जिनके लिए कांग्रेस का नेतृत्व पहले तैयार नहीं था। अगर गांधी परिवार अपनी महत्वकांक्षा को एक तरफ़ रख एक दलित नेता, मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रोजेक्ट करता है तो अच्छा संदेश जाएगा कि कांग्रेस केवल विशेषाधिकार सम्पन्न लोगों की पार्टी ही नहीं है। उन्हें याद रखना है कि मुक़ाबला नरेन्द्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेता और भाजपा जैसे सशक्त संगठन से है। विपक्षी नेताओं के गठबंधन को ‘भ्रष्टों का गठबंधन’ कह कर नरेन्द्र मोदी ने पहला गोला दाग ही दिया है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.