
परकाश (प्रकाश नहीं) सिंह बादल के निधन में पंजाब ने अपनी सबसे शानदार शख्सियत खो दी है। लगभग 60 साल सरदार बादल हमारी राजनीति के केन्द्र रहे। वह पंजाब के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने और उन्होंने शिरोमणि अकाली दल को सशक्त राजनीतिक शक्ति बना दिया। उनके बारे यह भी कहा जा रहा है कि वह अकाली दल के पतन का कारण भी बने। लेकिन यह बाद में। उन्हें सदा इस बात के लिए याद किया जाएगा कि वह 1980 के संकट ग्रस्त और बुरी तरह से घायल और साम्प्रदायिक तौर पर विभाजित पंजाब को उस खूनी चक्रव्यूह से निकालने में सफल रहे। उस समय के पंजाब को ऐसा नेता चाहिए था जो उदार हो और जिसका विशाल हृदय हो और जो पूरी तरह से सैक्यूलर हो। बादल साहिब में यह सब कुछ था। पंथक राजनीति करते हुए भी वह पूरी तरह से सैक्यूलर थे, सब के बराबर थे। उन्हें अहसास था कि पंजाब को बचाने के लिए मिलिटैंसी को ख़त्म करने और साम्प्रदायिक दरार को पाटने की ज़रूरत है। धैर्य, सोच और प्रेम भाव से वह ऐसा करने में सफल रहे। सब समुदायों को उन्होंने बराबर इज़्ज़त दी (चित्र देखें) और पंजाब को उस दलदल से निकाल गए जिस में हम फँस गए थे। यह सरदार परकाश सिंह बादल के जीवन का स्वर्णिम काल था।
उग्रवाद और आतंकवाद से पंजाब झुलस गया था इसलिए उनका विश्वास उदार और नरम राजनीति में था। उनका यह कथन कि हिन्दू और सिखों का रिश्ता नाखून और मांस का है, बहुत सार्थक और लोकप्रिय रहा। हिन्दू सिख सौहार्द उनके लिए राजनीतिक ज़रूरत ही नहीं थी,उनका इसमें पूरा विश्वास था। उन्होंने जनसंघ के साथ सरकार बनाई और मिलिटैंसी ख़त्म होने के बाद भाजपा के साथ। इन सरकारों में अकाली दल का दबदबा रहा जिसकी शिकायत पंजाब भाजपा के नेता करते रहे पर केन्द्र जानता था कि पंजाब को शान्ति और भाईचारे के लिए इसकी ज़रूरत है। बादल तो बहुत आगे बढ़ गए और उन्होंने अकाली दल को न केवल सिखों की बल्कि सभी पंजाबियों की पार्टी बना दिया। 1996 के मोगा सम्मेलन में उन्होंने ‘पंजाब, पंजाबी और पंजाबियत’ का नारा दिया। अकाली दल के दरवाज़े ग़ैर सिखों के लिए खोल दिए गए और उन्हें पार्टी टिकट दिए गए।

कुछ लोग कहते हैं कि अकाली दल का पतन इसलिए हुआ क्योंकि बादल साहिब ने अकाली दल की पंथक हस्ती को नरम कर दिया। यह सही नहीं है। अकाली दल के पतन के कई और कारण थे जिन पर हम चर्चा करेंगे पर सरदार परकाश सिंह बादल की पंजाब को मिलिटंसी से उभारने में भूमिका ऐतिहासिक थी। वह विनम्र और सादा थे। शालीन थे। जिस तरह की अभद्र भाषा आजकल कुछ नेता इस्तेमाल करते हैं उससे तो बादल साहिब कोसों दूर थे। पूरी तरह से मिलनसार थे। मेरा उनसे बहुत सम्पर्क तो नहीं था पर तीन घटनाएँ याद आती हैं। एक बार मैंने उन्हें जालन्धर के कन्या महाविद्यालय में बुलाया था। उन्होंने सुबह 7 बजे का समय दिया। 7 बजे? कौन राजनेता सुबह 7 बजे निकलता है? पर एक शाम पहले ज़िलाधीश का फ़ोन आगया कि ग़लतफ़हमी में मत रहना 7 बजे का अर्थ 7 बजे है। बादल साहिब सुबह 7 बजे से पाँच मिनट पहले पहुँच गए। फिर 2001 में दोआबा कॉलेज में उन्हें आईटी ब्लॉक का शिलान्यास रखने के लिए आमंत्रित किया गया। उससे पहले हवन रखा गया। संशय था कि अकाली मुख्यमंत्री हवन पर बैठने के लिए राज़ी होगें या नहीं? बादल पूरा समय बैठे रहे। तीसरी घटना लुधियाना से है जहां एक विवाह समारोह में मैं उनसे मिला था। मैंने पूछा, सेहत कैसी है? हंस कर उन्होंने जवाब दिया, “ काकाजी, जट्ट तां जद सुहागे ते खड़ा होए ते अपने नू बादशाह समझदा है, मैं तां चीफ़ मिनिस्टर हाँ मैंनू की हो सकदा है?” यह उनकी सरल हाज़िरजवाबी थी जिसने उन्हें बहुत प्रिय बना दिया था। पर अफ़सोस है कि उनकी राजनीति का अंत प्रिय नहीं रहा।
इसका बड़ा कारण था कि सरदार परकाश सिंह बादल भी उस कमजोरी का शिकार हो गए जिसके कारण इतिहास में बहुत बड़े लोगों का पतन हुआ है, वह परिवार मोह और विशेष तौर पर पुत्र मोह में फँस गए और आख़िर में सब कुछ गँवा बैठे। उन्होंने धीरे धीरे सभी वरिष्ठ अकाली नेताओं को, पंजाबी भाषा में, खुड्डे लाइन लगा दिया। संत लांगोवाल की हत्या हो गई। सुरजीत सिंह बरनाला का वह स्तर नहीं था। जगदेव सिंह तलवंडी भी टक्कर नहीं दे सके। अमरेन्द्र सिंह कांग्रेस में जाने के लिए मजबूर हो गए। उनके बराबर के केवल गुरुचरण सिंह टोहरा रह गए। टोहरा के निधन के बाद ऐसा कोई नेता नहीं रह गया था जो उन्हें टक्कर दे सके। सिख राजनीति उनके और उनके परिवार के इर्द-गिर्द सिमट गई। क्योंकि कोई चुनौती नहीं रही इसलिए अकाली दल का लोकतांत्रिक ढाँचा खोखला होता गया। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर बादल परिवार का पूरा क़ब्ज़ा हो गया।कमेटी के प्रधान का नाम पहले बादल साहिब के कुर्ते की जेब से और फिर सुखबीर बादल की जेब से निकलने लगा। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की मार्फ़त अकाल तख़्त पर नियंत्रण कर लिया गया। परिणाम है कि यह संस्थाऐं अपना प्रभाव और इज़्ज़त खोती गईं। जिस तरह सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को माफ़ी के मामले में अकाल तख़्त ने कलाबाज़ी खाई उससे इस उच्च संस्था की बेइज़्ज़ती हुई और बादल परिवार को आज तक इसकी क़ीमत चुकानी पड़ रही है। अगर इस संस्था को स्वतन्त्र रहने दिया जाता तो यह स्थिति न बनती।
मंत्रिमंडल में भी बादल परिवार की हिस्सेदारी बढ़ती गई। एक समय तो एक तिहाई मंत्री उनके रिश्तेदार थे। उन्होंने अपने भतीजे मनप्रीत बादल, दामाद अदेश प्रताप सिंह कैरों, बेटे के साले बिक्रमजीत सिंह मजीठिया को मंत्री बना दिया। सुखबीर बादल उपमुख्यमंत्री बनाए गए। और केन्द्र में सुखदेव सिंह ढींढसा जैसे वरिष्ठ नेता को नाराज़ करते हुए पुत्रवधू हरसिमरत कौर बादल को मंत्री बनवा दिया। ढींढसा पुत्र समेत पार्टी छोड़ गए। सुखबीर बादल ने एक बार कहा था कि उनके पिता राजनीति में पीएचडी हैं। यह बात तो सही है पर बादल साहिब की पीएचडी का थीसिस कहता था कि परिवार सबसे पहले। यह दुर्भाग्यपूर्ण था क्योंकि जनता सब देख रही थी। परिवार का हर बड़े बिज़नेस में दखल शुरू हो गया। होटल, ट्रांसपोर्ट,केबल, रीयल स्टेट सब में बादल परिवार ने कदम रख दिया। गांधी परिवार का भी कांग्रेस पर नियंत्रण है पर इन पर कोई आरोप नहीं लगा सकता कि उन्होंने सात-सितारा होटल शुरू किए या उनकी वौलवो बसें चल रही हैं। इसी बीच पंजाब मे ड्रग्स फैलने शुरू हो गए और उँगली बादल साहिब के नज़दीकी लोगो पर उठने लगी। दुख है कि परकाश सिंह बादल ने इस बाढ़ को रोकने की कोशिश नहीं की। वह बेबस थे या दयालु, पर पीढ़ियों का नुक़सान हो गया। जनवरी 2008 में सुखबीर बादल को पार्टी प्रधान बना दिया गया। पार्टी पूरी तरह से फ़ैमिली अफ़ेयर बन कर रह गई। उनका परिवार के लिए प्रेम और परिवार का बिज़नेस के लिए प्रेम , पतन का बड़ा कारण बना। जो ग्रामीणों की पार्टी थी वह सुपर रिच की पार्टी बन कर रह गई।
फिर 2015 में बरगाड़ी में बेअदबी की घटना और फ़ायरिंग में दो लोगों की मौत ने लोगों को परिवार और पार्टी दोनों के विरूद्ध कर दिया। ग़ुस्सा इतना था कि 2017 में पार्टी को केवल 18 सीटें मिली और 2022 में तो पार्टी को केवल 3 सीटें मिली और 10 बार लगातार जीतने के बाद खुद बादल साहिब अपने चुनाव क्षेत्र लम्बी से आप के उम्मीदवार से 11000 वोट से हार गए। कहते हैं कि बादल जो उस वकत 94 साल के थे, चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे पर सुखबीर बादल और हरसिमरत बादल के कहने पर मान गए। एक बार फिर वह परिवार को इंकार न कर सके। बहुत दुख होता है कि जिस नेता का पंजाब के प्रति योगदान इतना विशाल रहा उसकी राजनीति का अंत पराजय में हुआ। जिन्होंने चुनाव लड़वाया उन्होंने इस बुजुर्ग से बहुत ज़्यादती की।
इस समय अकाली दल पतवारहीन पार्टी नज़र आती है। जिन संस्थाओं पर उनकी निर्भरता थी वह शिथिल हो चुकी हैं। भारी बहुमत से वह पार्टी,आप, सत्ता में हैं जो ग़ैर-धार्मिक है। अकाली दल का नेतृत्व तो यह फ़ैसला नहीं कर पा रहा कि वह क्या हैं? उनकी विचारधारा क्या है? वह पंथक पार्टी हैं या पंजाबियत की पार्टी हैं? अमृतपाल सिंह के मामले में पार्टी की दुविधा स्पष्ट हो गई थी। अजनाला थाने में हिंसा के बाद बिक्रमजीत सिंह मजीठिया ने पहले कहा था कि अगर अकाली दल सत्ता में होता तो दस मिनट में अमृतपाल से निपट लेता। पर कलाबाज़ी खाते हुए पार्टी ने क़ैद किए गए ‘बेक़सूर सिख नौजवानों’ की क़ानूनी लड़ाई लड़ने की घोषणा कर दी। फिर सुखबीर बादल ने ट्वीट कर दिया कि ‘भारत की एकता और अखंडता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता’। हैरानी है कि उन्हें उन लोगों की क़ानूनी लड़ाई लड़ने जो खालिस्तान चाहते हैं, और भारत की एकता और अखंडता से कोई समझौता नहीं, में विरोधाभास नज़र नहीं आया। बड़े बादल ने सदैव अपने बेटे की ढाल की तरह काम किया है। सुखबीर बादल के पास अब यह सुविधा नहीं रही।
जिन्हें राजनीति का बाबा बोहड़ (बरगद) कहा जाता था, परकाश सिंह बादल, उस विशाल और शानदार पेड़ के गिरने के बाद नीचे की ज़मीन उपजाऊ नज़र नहीं आरही। अकाली दल बहुत नाज़ुक स्थिति में पहुँच चुका है। आशा यही करनी चाहिए कि उनके उत्तराधिकारी उनके दिखाए पंजाबियत, भाईचारे और उदार राजनीति के रास्ते पर चलते जाएँगे क्योंकि उग्रवाद पंजाब में ही नहीं विदेशों में भी समस्या बन रहा है। ब्रिटेन से एक रिपोर्ट के अनुसार इनमें से कुछ उग्रवादी हिंसा को प्रेरित कर रहें हैं। बादल साहिब के निधन से एक शून्य पैदा हो गया है। उन्होंने कुछ ग़लतियाँ की, कुछ कमज़ोरियाँ भी थी पर इतिहास उन्हें इनके लिए नहीं बल्कि उस नेता के तौर पर याद करेगा जो हिन्दू- सिख एकता का शिल्पकार था और जो पंजाब को मिलिटैंसी के कष्टदायक दौर से निकाल ले जाने में सफल रहा। यह ही उनकी विरासत कही जाएगी।