क्या पाखंड है। जापान के शहर हिरोशिमा जहां 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने परमाणु बम गिराया था जिससे लाखों लोग मारे गए और बराबर संख्या गम्भीर रूप से बीमार हो गई थी, में इकट्ठे हुए दुनिया के जी-7 शक्तिशाली देशों, अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, जापान, कैनेडा, जर्मनी और इटली के राष्ट्राध्यक्षों ने ‘परमाणु हथियारों के बिना दुनिया’ का आह्वान किया है और रूस, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया को परमाणु प्रसार बंद करने और परमाणु अप्रसार अपनाने को कहा है। यह सात वह देश हैं जिनके पास विश्व की जीडीपी का 45 फ़ीसदी है, सैनिक तौर पर शक्तिशाली है और जापान को छोड़ कर बाक़ी सभी परमाणु शक्तियाँ हैं। इनके पास इतने परमाणु हथियार हैं कि वह दुनिया को कई बार तबाह कर सकते हैं। वह अपने हथियार कम नहीं कर रहे और अधिक ख़तरनाक हथियार तैयार करने में लगे हैं पर हिरोशिमा में उन्हें परमाणु निरस्त्रीकरण याद आ गया ! दूसरी तरफ़ महाशक्तियों का टकराव इतना बढ़ गया है कि यह ख़तरनाक स्तर पर पहुँच रहा है। 100 साल के हेनरी कीसिंजर का कहना है कि सुपर पावर विनाश की ओर बढ़ रहें हैं और अमेरिका और चीन में टकराव हो सकता है। दूसरी तरफ़ रूस यूक्रेन युद्ध में परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दे चुका है। अर्थात् ज़बरदस्त शीत युद्ध चल रहा है जो कभी पूरे गर्म युद्ध में बदल सकता है। बीच में कहीं हम अपनी तटस्थता बचाने के लिए हाथ पैर मार रहें हैं, जो लगातार कठिन हो रहा है।
दुनिया को इस हालत तक पहुँचाने में सबसे बड़ा योगदान रूस और उसके राष्ट्रपति पुतिन का है जिन्होंने यूक्रेन पर हमला कर अव्वल दर्जे की बेवक़ूफ़ी दिखाई है। उनका अन्दाज़ा था कि उनकी सेना एक सप्ताह में क़ब्ज़ा कर लेगी पर अब 15 महीने हो गए रूस वहाँ दलदल में फँस गया है। यूक्रेन न उगला जा रहा है न निगला जाता है। मास्को में रूसी राष्ट्रपति के भव्य महल क्रैमलिन पर ड्रोन हमला हो चुका है। यह रूस की बड़ी असफलता है कि देश के अंदर स्थित राजधानी में राष्ट्रपति का महल भी सुरक्षित नहीं है। रूस पूर्वी यूक्रेन में कुछ किलोमीटर तक ज़रूर बढ़ आया है पर इसकी क़ीमत भी बहुत चुकानी पड़ रही है। व्हाइट हाउस का आँकलन है कि पिछले पाँच महीने में रूस के एक लाख सैनिक या तो मारे गए हैं या घायल हो गए हैं और फ़रवरी 2022 जब युद्ध शुरू हुआ से लेकर अब तक दो लाख रूसी सैनिक हताहत हो चुकें हैं। ज़रूरी नही कि यह आँकड़ा सही हो। अमेरिका और पश्चिमी देशों का प्रचार तंत्र किसी को बदनाम करने के लिए तथ्यों को तोड मोड़ सकता है। पर रूस का भारी नुक़सान तो हुआ है।
रूस को पश्चिम के देशों ने फँसा लिया है जो युक्रेन की सैनिक मदद कर रहें हैं पर इतनी भी नहीं कि वह रूस पर निर्णायक जीत हासिल कर सकें और युद्ध ख़त्म हो जाए। यूक्रेन के प्रति पश्चिम की नीति तो यह लगती है कि ‘चढ़ जा बच्चा सूली पर भगवान भली करेगा’। सारी क़ुर्बानी युक्रेन दे रहा है नुक़सान रूस का हो रहा है पर पश्चिम के ताकतवार देश युद्ध ख़त्म करने के लिए निर्णायक पहल करने को तैयार नही। उनका मानना है कि रूसी जनता हार बर्दाश्त नहीं करेगी और इससे एक दिन तख्ता पलटने की नौबत आजाएगी। रूसी विशेषज्ञ लियोन एरॉन के अनुसार युद्ध में हार को रूस और रूसी कभी माफ़ नहीं करते। वह लिखतें है,”आधुनिक रूस में जब जब हार को देखते हुए लड़ाई रोकी गई तब तब वहाँ सत्ता का बदलाव हुआ है”। पर इस दौरान युक्रेन भी तो तबाह हो रहा है। इसकी युक्रेन के शुभचिंतक को चिन्ता नही वह खुश हैं कि रूस का खून बह रहा है। युक्रेन अमेरिका से एफ-16 लड़ाकू विमानों की माँग कर रहा है पर देने के लिए अमेरिका तैयार नही। बहुत हिचकिचाहट के बाद बाइडेन विमान चलाने की ट्रेनिंग देने को तैयार हो गए हैं पर विमान नहीं देंगें। पायलट तैयार किए जाएँगे जिन्हें चलाने के लिए विमान नहीं मिलेंगे!
इस युद्ध का दुनिया की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा है क्योंकि इस क्षेत्र से बड़ी मात्रा में अनाज, खाद और तेल की आपूर्ति होती है। विकासशील देशों को विशेष मार झेलनी पड़ रही है क्योंकि अनाज और तेल की क़ीमतें बढ़ गईं है। गरीब देशों की ग़रीबी और बढ़ गई है। दुनिया की समस्या केवल रूस से ही नहीं चीन की आक्रामकता से भी है, जो हमारे लिए बहुत महत्व रखती है। पश्चिम के देशों ने रूस को यूक्रेन में उलझा दिया पर चीन की दादागिरी को लेकर खुद उलझ रहे है। उनकी कभी गर्म कभी सर्द नीति से चीन के रुख़ में बहुत परिवर्तन नहीं आया। कारण है कि हर देश, हमारे समेत, की अर्थव्यवस्था चीन से जुड़ी हुई है। अमेरिका कई बार कह चुका है कि वह अपनी अर्थव्यवस्था की चीन पर निर्भरता कम करना चाहता है। पर हो नहीं रहा। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने हिरोशिमा में कहा है कि “चीन हमारे युग की सबसे बड़ी चुनौती है”। वहाँ एक नहीं बल्कि दो बार दुनिया के सबसे रईस देशों के नेताओं ने चीन को ताइवान और हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में बाज आने को कहा है पर व्यापार के मामले में वह चीन के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाने को तैयार नही। प्रतिस्पर्धा बढ़ी है पर निर्भरता भी बढ़ी है। चीन के मीडिया ने चुटकी ली है कि पश्चिम दोनों फ़ायदा उठाना चाहता है। वह देश आर्थिक सांझेदारी का लाभ भी उठाना चाहते हैं पर आलोचना भी करते रहते है।
चीन को लेकर पश्चिम की नीति मुहावरे के अनुसार ‘घायल तो करना चाहते हैं पर प्रहार करने से घबरातें हैं’। इस पर न्यूयार्क टाइम्स ने टिप्पणी की है, “सभी देशों के हित चीन से मज़बूती से जुड़े हैं। ऐसे में असमंजस है कि उसके बारे क्या रणनीति बनाई जाए”। चाहिए तो यह कि एक संयुक्त नीति बनाई जाए पर किया क्या जाए इसे लेकर अमेरिका खुद निश्चित नहीं है। पहले आँखें दिखाने के बाद अब अमेरिका चीन से फिर संवाद शुरू कर रहा है। ताइवान को लेकर एक समय सम्बंध ख़तरनाक स्तर पर पहुँच गए थे पर अब लगता है कि दोनों देश टकराव से कुछ पीछे हट रहें हैं। पश्चिम के देशों की नासमझी ने रूस और चीन को इकट्ठे कर दिया है। मास्को जा कर शी जीनपिंग ने रूस के साथ सुरक्षा हितों को लेकर व्यापक समझौते किया है कि वह अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था का मिल कर मुक़ाबला करेंगे। शी जीनपिंग को तो पुतिन का आभारी होने चाहिए जिन्होंने योरूप में टकराव शुरू कर पश्चिम को वहाँ व्यस्त कर दिया है जिससे एशिया में चीन पर दबाव कम हो गया है। कमजोर हो चुके रूस को चीन की मदद चाहिए। चीन नहीं चाहता कि रूस की पीठ लगे नहीं तो अमेरिका बहुत ताकतवार हो जाएगा। दोनों की मजबूरी दोनों को नज़दीक लाई है जो हमारे लिए सामरिक समस्या खड़ी कर सकती है क्योंकि रूस हमारा सबसे बड़ा रक्षा सामग्री का सप्लायर है और चीन सबसे बड़ा विरोधी।
चीन को लेकर हमारी नीति भी बहुत स्पष्ट नहीं है। पूर्वी लददाख में चीन के अतिक्रमण के बावजूद आपसी व्यापार बढ़ रहा है। उल्लेखनीय है कि जी-7 के देशों नें चीन की पूर्वी लद्दाख में हमारा विरूद्ध हरकतों के बारे कोई बयान नहीं दिया। एक साल में चीन से आयात में 21 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि हमारा निर्यात गिरा है और उनके साथ व्यापार का घाटा बढ़ कर 100 अरब डालर हो गया है। हिरोशिमा में युक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ अपनी वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है, “ यथा स्थिति को बदलने के एकतरफ़ा प्रयास के खिलाफ आवाज़ उठनी चाहिए।“ पश्चिम के देश इसे प्रधानमंत्री मोदी के दिए गए पहले बयान कि “यह युद्ध का युग नहीं है” से जोड़ कर देखते हैं जो एक प्रकार से रूस की आलोचना थी पर नरेंद्र मोदी पुतिन को ही नहीं बल्कि शी जीनपिंग को भी संदेश भेज रहे थे। इसका असर हुआ हो इसके कोई संकेत नहीं।
हमें वैश्विक राजनीति पर फिर से मंथन करना होगा। बड़ी समस्या है कि चीन और हमारे बीच आर्थिक फ़ासला बढ़ रहा है। अब फिर ‘विवादित क्षेत्र’ कह कर चीन ने श्रीनगर में जी-20 बैठक का बहिष्कार किया है। अर्थात् रिश्ते सामान्य होने की दूर दूर तक सम्भावना नज़र नहीं आती। हमारे हित में है कि हमारी सामरिक स्वतंत्रता क़ायम रहे पर जैसी हालत बन रही है वह दबाव में हैं। चीन ने हमारे विकल्प सीमित कर दिए हैं। आजकल अमेरिका मोदीजी की खूब प्रशंसा कर रहा है। प्रधानमंत्री अगले महीने अमेरिका भी जा रहें हैं पर वह भी एक सीमा तक ही हमारा उभार बर्दाश्त करेंगे। उनकी मानवाधिकार संस्था लगातार ‘धार्मिक असहिष्णुता’ को लेकर हमें लताड़ती रहती है। वह हमें चीन के सामने खड़ा करना चाहते है जबकि खुद चाहते हैं कि चीन के साथ कारोबार चलता रहे। पर सीधा टकराव हमारे हित में नहीं है। पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन का कहना है कि ‘दुनिया में व्यवस्था बदल रही है’ और भारत के लिए मौक़ा बन सकता है अगर हम चीन के साथ सम्बंध दोबारा सही कर लें और सीमा को शांत कर लें’। पर यह होगा कैसे? चीन हमें बराबर की ताक़त नहीं समझता इसलिए परवाह नहीं कर रहा। भारत इन दिनों जी -20 की अध्यक्षता कर रहा है। सारे देश में कार्यक्रम हो रहें हैं पर इसका बहुत फायदा नहीं होगा क्योंकि वैश्विक निर्णय बंद कमरों में होतें हैं ऐसे सम्मेलनों में नहीं। बदलती अशांत अस्थिर अव्यवस्थित दुनिया में अपनी जगह बनाना हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती बनती जा रही है।