अमेरिका और उसका ‘न्यू बैस्ट फ्रैंड’, America- India New Best Friends?

 ब्रिटेन के साप्ताहिक अख़बार द इकोनॉमिस्ट ने भारत को अमेरिका का नया बैस्ट फ्रैंड करार दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले प्रकाशित लेख में अख़बार लिखता है, “ इस एशियन जांयट का वैश्विक दबदबा बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। इसकी अर्थव्यवस्था दुनिया में पाँचवीं है…2028 तक वह जापान और जर्मनी से आगे निकल जाएँगे… भारत एशिया में चीन के आक्रमण को रोकने और अपना अधिकार जताने के अमरीकी प्रयासों के लिए अत्यावश्यक हो गया है”। यह अकारण नहीं  कि इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा का उस तरह स्वागत किया जा रहा जैसे पहले शायद एक ही बार हुआ था जब राष्ट्रपति कैनेडी ने  प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अमेरिका में स्वागत किया था। पर कैनेडी बाद में कुछ निराश बताए गए क्योंकि नेहरू अपनी गुट निरपेक्ष नीतिको छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। पर  जिस तरह कैनेडी ने उस यात्रा में व्यक्तिगत रुचि दिखाई  थी उसी तरह  जो बाइडेन भी व्यक्तिगत रुचि दिखा रहें हैं। प्रधानमंत्री मोदी के सम्मान में न केवल राजकीय भोज ही दिया जा रहा है बल्कि मोदी बाइडेन परिवार के साथ प्राईवेट डिनर भी करेंगे। अमरीकी भावना में बहने वाले लोग नही है। अगर भारत के प्रधानमंत्री का ऐसा स्वागत हो रहा है तो इसका मतलब है कि अब वह हमारे महत्व को मान्यता दे रहें हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि विंस्टन चर्चिल, नैलसन मंडेला और युक्रेन के राष्ट्रपति जलेंस्की के बाद  मोदी चौथे  नेता होंगे जो अमेरिकी संसद को दूसरी बार सम्बोधित करेंगे। समीकरण बदल रहें हैं। पहले हमें अमेरिका की ज़रूरत थी अब उन्हें भी हमारी ज़रूरत है। इसीलिए भारत के प्रधानमंत्री के लिए मोटा लाल ग़लीचा बिछाया जा रहा है। 

भारत और अमेरिका के रिश्ते में गुणात्मक और सकारात्मक परिवर्तन आने जा रहा है जिस पर मोदी की यात्रा में मोहर लगने की सम्भावना है। पन्द्रह साल पहले प्रधानमंत्री मनमनोहन सिंह और अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने ऐतिहासिक सिविल परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। यह मात्र एक परमाणु समझौता ही नहीं था। दोनों देशों ने चीन से बढ़ रहे ख़तरे को भाँपते हुए आपसी रिश्ते में बाधा को हटा दिया था। जो तब हुआ उसे नरेन्द्र मोदी बहुत आगे ले आए है। उनकी अपनी भाषा में, ‘इतिहास की हिचकिचाहट’ को एक तरफ़ रखते हुए और आज की वैश्विक परिस्थितियों को भाँपते हुए दोनों देश बहुत नज़दीक आ गए हैं। भारत नाटो में शामिल नहीं होने जा रहा। हम अमेरिका के साथी नही सांझेदार बनने वाले हैं जो अधिक प्रभावी हो सकता है। अमेरिका में आभास है कि अतीत में भारत की उपेक्षा कर और चीन और पाकिस्तान को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना अहित किया है। उनकी नीतियों के कारण शीत युद्ध के दौरान भारत रूस के कैम्प में जमने पर मजबूर हो गया था। भारत को भी आभास है कि हम ज़रूरत से अधिक रूस पर निर्भर हो गए थे। रूस अब एक घटती शक्ति है और समय आ गया है कि हम अपना अगला रास्ता देखें।

जिस तरह दोनों देशों के उच्चाधिकारी आ जा रहें हैं वह सचमुच हैरान करने वाला है। पिछले कुछ दिनों में अमेरिका के तीन उच्चाधिकारी भारत की यात्रा कर चुकें हैं। विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकिन, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन और रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन  भारत की यात्रा कर चुकें है। ऑस्टिन तो भारत को बड़ी रक्षा डील की पेशकश भी कर चुकें हैं।  इसी तरह हमारे उच्चाधिकारी अमेरिका जा रहे हैं।  भारत और अमेरिका के इस क्षेत्र में हितों का मेल है। और इसका बड़ा कारण चीन है। गलवान के तीन साल बाद भी चीन की आक्रामकता कम नहीं हुई। उनका तो संदेश है कि सीमा पर जो हो रहा है उसे भूल जाओ और आगे बढ़ो। चीन एकध्रुवीय एशिया चाहता है जिस पर उसका प्रभुत्व हो। अतीत में जापान संतुलन रखता था भविष्य में यह ज़िम्मेदारी हम पर  आ सकती है। चीन यह समझता है इसीलिए सीमा पर दबाव बना कर चल रहा है। हमने बहुत प्रयास किया है। प्रधानमंत्री मोदी खुद शी जीनपिंग को बहुत बार मिल चुकें हैं पर उनकी नीति में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया। पूर्व राजदूत योगेश गुप्ता ने सही लिखा है, “ भारत को अहसास है कि प्रयासों के बावजूद चीन के विद्वेष में कोई अंतर नहीं आया …चीन भारत के साथ लम्बे समय के टकराव की तैयारी कर रहा है”।  

न केवल भारत बल्कि अमेरिका भी एशिया में चीन का प्रभुत्व नहीं चाहता। अमेरिका समझता है कि एशिया के बाद चीन विश्व भर पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करेगा।   जैसे एक अमेरिकी उच्चाधिकारी ने कहा भी है कि ‘अगर हम नहीं चाहते कि हमारे ग्रैंड चिल्ड्रन पर चीन शासन करें तो रोकने का समय अब है”।  पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने अपनी किताब ‘चौयसेस’ में डा.मनमोहन सिंह और जार्ज डबलयू बुश के समय हुई पहल पर लिखा है, “यह पहल इस धारणा से प्रेरित थी कि भारत- अमेरिका सामरिक साझेदारी बदली परिस्थिति में हमारे हित में है। चाहे दोनों देश यह कहने से झिझकते हैं कि उनकी पार्टनरशिप चीन का संतुलन क़ायम करने के लिए है, यह साफ़ है कि चीन का उत्थान बड़ा प्रेरक  है”। बहुत पहले अटल बिहारी वाजपेयी के रक्षा मंत्री जार्ज फ़र्नाडिस ने चीन को दुश्मन नम्बर 1 कहा था। तब से रिश्ते और ख़राब हो गए हैं। हमें अहसास है कि हम जो भी कोशिश कर लें चीन बदलेगा नहीं क्योंकि वह एशिया में अपने पर आधारित व्यवस्था लागू करना चाहता है।  इसे स्वीकार करने का मतलब होगा कि चीन को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह जब चाहे जैसे चाहे सीमा बदल सकता है। अरुणाचल प्रदेश विशेष तौर पर असुरक्षित बन सकता है। चीन की धौंस को रोकने के लिए हमें अमेरिका का साथ चाहिए।

दूसरा बड़ा कारण कमजोर होता रूस है। शीत युद्ध के समय से ही रक्षा सामान के मामले में हमारी सोवियत यूनियन पर अत्यधिक निर्भरता है। शीत युद्ध समाप्त हो चुका है और रक्षा आयात को विविध बनाने की ज़रूरत और भी बढ़ गई है। 2017 और 2022 के बीच रूस से रक्षा आयात 62%से कम होकर 45% रह गया है। हम फ़्रांस, अमेरिका और इज़रायल से आयात बढ़ा रहे हैं। जर्मनी के साथ हम 5 अरब डालर की छ: पनडुब्बी बनाने का अनुबंध कर रहें हैं। 3 अरब डालर से हम अमेरिका से 31 लड़ाकू ड्रोन ख़रीदना चाहतें हैं। अभी तक रूस एक विश्वसनीय सप्लायर रहा है। पर युक्रेन युद्ध के कारण वह दबाव में है।  खुद रूस भी चीन, उत्तरी कोरिया  और ईरान पर रक्षा भंडार भरने कि लिए निर्भर हो गया है। भारतीय वायु सेना ने तो सार्वजनिक किया है कि युक्रेन युद्ध के कारण रूस अपने वादे पूरे नहीं कर सकेगा। यह हमारे लिए गम्भीर समस्या पैदा कर सकता है। लेकिन रूस को लेकर और बडी चिन्ता है कि युक्रेन युद्ध और अमेरिका से विद्वेष के कारण रूस की चीन पर निर्भरता बढ़ रही है।ज़रूरत पड़ने पर क्या रूस हमें चीनी सैनिकों से लड़ने के लिए हथियार देगा? बहुत सम्भावना है कि चीन का सख़्त नेतृत्व रूस की कार्रवाई की आज़ादी पर बंदिश लगा देगा। पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश ने भी लिखा है, “समय आगया है कि हम दूसरे विकल्पों की तलाश करें”। और विकल्प एक ही है जहां आजकल प्रधानमंत्री मोदी यात्रा पर हैं, अमेरिका। 

  पश्चिमी देश भी समझते हैं कि भारत को रूस से अलग करने का यह बढ़िया मौक़ा है। आपसी अविश्वास कम हो रहा है। भारत ही नहीं अमेरिका भी ‘इतिहास की हिचकिचाहट’ से उभर कर हमें वह टेक्नोलॉजी देने को तैयार हो रहा है जिससे अभी तक हमें दूर रखा गया था। दोनों देश ड्रोन, जेट इंजन, तोप, सैन्य वाहन और अन्य रक्षा उपकरणो को साथ मिल कर बनाने की योजना पर काम कर रहें हैं। बहुत नज़रें इस बात पर हैं कि जिसे ‘क्रिटिकल और इमरजिंग टेक्नोलॉजी’ कहा जाता है, उस क्षेत्र में कितनी प्रगति होती है? अमेरिका कितनी दूर तक जाने को तैयार है ? भारत सेमीकंडकटर, अंतरिक्ष, क्वांटम टैंकनालिजी आरटीफिशयल इंटेलिजेंस, बायोटैक के क्षेत्रों में उच्च टकनीक चाहता है।  इकोनॉमिस्ट की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टन ने भारत की अपनी यात्रा के दौरान हवाई युद्ध, सशस्त्र वाहन, इंटेलिजेंस, निगरानी और टोह लेने वाले क्षेत्रों में आधुनिक टेक्नोलॉजी देने की पेशकश की है। सबसे महत्वपूर्ण है कि ओपन लाइसेंस के नीचे जनरल इलेक्ट्रिक के जीई-एफ 414 जेट इंजन का भारत में निर्माण होगा। इसका इस्तेमाल तेजास फाइटर के लिए होगा। हम चाहे दावा करें कि तेजास भारत निर्मित है पर यह पूरा सही नहीं है। बहुत पार्टस जिनमें इंजन महत्वपूर्ण है, आयात कर यहां असैम्बल किए जाते हैं।

सम्भावना है कि प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के दौरान बड़ी  डील पर हस्ताक्षर हो जाएँगे।  पर प्रधानमंत्री की यात्रा केवल रक्षा सौदों तक ही सीमित नहीं है।  रिश्तों में गुणात्मक परिवर्तन आ रहा है जो मोदी सरकार की विदेश नीति में सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है। आपसी व्यापार 191 अरब डालर का है। 200000 भारतीय छात्र अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पढ़तें हैं।  50 लाख भारतीय मूल के लोग वहाँ दूसरा सबसे बड़ा प्रवासी समुदाय है जो उनके समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में लगातार अधिक भूमिका निभा रहा है। भारत ने भी अगर एक समृद्ध, आधुनिक देश बनना है और ग़रीबी से छुटकारा पाना है तो हमें अमेरिका की पार्टनरशिप चाहिए।  हमें अमेरिका के विज्ञान, टैकनालिजी और मार्केट की ज़रूरत है। चीन के पूर्व नेता डेंग जियाओपींग ने अमेरिका के साथ दोस्ती कर अपने देश को बदला था। वह समझदारी से चल रहे थे। शी जीनपिंग ज़रूरत से अधिक उतावले हो गए और अब उन्हें पश्चिम के विरोध की दीवार का सामना करना पड़ रहा है।  दिलचस्प है कि   आज भारत शी जीनपिंग के चीन का सामना करने के लिए डेंग जियाओपींग के समय के चीन की नीति का अनुसरण कर रहा है। भारत और अमेरिका दोस्त बन गए हैं क्योंकि  हित साँझे है। दोनों के रिश्ते आजतक के सबसे बेहतर दौर में प्रवेश कर रहें हैं। भविष्य में मतभेद उठ सकते हैं पर खटास तो बैस्ट फ्रैंड्स  में भी हो जाती है।

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About Chander Mohan 732 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.