पटना से जो 15 विपक्षी दलों का महाघटबंधन क़ाफ़िला दिल्ली विजय करने निकला था उसका पहला एक्सीडेंट मुम्बई में हो गया। शरद पवार जो कनवीनर बनना चाहते थे की अपनी एनसीपी ही दोफाड हो गई और भतीजा अजीत पवार महाराष्ट्र की शिंदे सरकार में शामिल हो गए। उनके साथ 8 और एनसीपी विधायक भी पाला बदल गए हैं। अगर भाजपा ने 2024 में सत्ता में आना है तो बिहार, महाराष्ट्र, उडीसा,राजस्थान, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे प्रदेशों में अच्छा प्रदर्शन लाज़मी है वह उत्तर प्रदेश और गुजरात पर ही निर्भर नहीं रह सकते। कर्नाटक तो अभी मुश्किल लगता है इसलिए महाराष्ट्र जिसमें उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक 48 सीटें हैं, बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है। महाराष्ट्र में आपरेशन लोटस कर कुछ हलचल पैदा करने की कोशिश की गई पर अभी निश्चित नहीं कि इससे फ़ायदा होगा या नुक़सान क्योंकि एकनाथ शिंदे वाला पहला ऐसा परीक्षण सफल नहीं रहा। पर शरद पवार को धक्का पहुँचा है कि वह अपने परिवार को ही सम्भाल नहीं सके। जिस प्रफुल्ल पटेल को कुछ दिन पहले उन्होंने कार्यकारी प्रधान बनाया था वह भी बाग़ियों के साथ पाला बदल गए। विपक्ष को चेतावनी मिल गई है कि ऐसे एक्सीडेंट और प्रदेशों में भी हो सकते है। क्योंकि नीतीश कुमार विपक्षी एकता के लिए बहुत सक्रिय है इसलिए बिहार निशाने पर हो सकता है। वहाँ की 40 सीटें बहुत आकर्षक हैं।
लेकिन इससे न केवल विपक्ष ही दुर्घटनाग्रस्त हुआ है बल्कि भाजपा की ‘ न खाऊँगा और न खाने दूँगा’ वाली छवि भी दुर्घटनाग्रस्त हो गई है। महाराष्ट्र की सरकार तो दलबदलुओं का महागठबंधन अधिक नज़र आने लगी है। उन लोगों को शामिल किया गया जिनको लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने एनसीपी के भ्रष्टाचार पर जायज़ तीखा हमला किया था। और वह भी एक सप्ताह पहले। जो 9 विधायक शामिल किए गए हैं उनमें से 4 ऐसे हैं जो ईडी या एंटी करपशन ब्यूरो की जाँच का सामना कर रहें है। कुछ साल पहले दवेन्द्र फडणवीस कह चुकें हैं कि अजीत पवार को जेल में होना चाहिए और अब शपथ ग्रहण समारोह में खूब गर्मजोशी से बातें हो रहीं थी। महाराष्ट्र के वोटर को क्या संदेश है? अजीत पवार के अतिरिक्त छगन भुजबल,हसन मुशरिफ और अदिति टटकारे के पिता की जाँच हो रही है। छगन भुजबल तेलगी स्टैम्प घोटाले में दो साल जेल भुगत चुके हैं। विपक्ष अब कटाक्ष कर रहा है कि भाजपा की ‘वॉशिंग मशीन’ फिर चालू हो गई है कि जो भ्रष्ट हैं वह भाजपा में शामिल हो कर साफ़ सुथरे हो रहें हैं।
एकनाथ शिंदे कमजोर होंगे क्योंकि उनकी ज़रूरत कम हो गई है। बहुत कुछ निर्भर करता है कि अजीत पवार अपने साथ कितना दलबदल करवा सकते है? एनसीपी देश की तुलनात्मक साफ़ पार्टियों में नहीं गिनी जाती इसलिए सरकारी जाँच एजंसियों से बचने के लिए बहुत विधायक दलबदल कर सकते हैं। शरद पवार की अब वह सेहत और आयु नहीं रही कि वह मुक़ाबला कर सकें। उद्धव ठाकरे की शिवसेना की परीक्षा मुम्बई नगर निगम के चुनाव में होगी। पर जैसे जैसे एकनाथ शिंदे के ग्रुप का प्रभाव कम होता जाएगा उद्धव ठाकरे का समर्थन बढ़ेगा। शिंदे कैम्प के 16 विधायकों पर अयोग्य घोषित किए जाने की तलवार भी लटक रही है। कांग्रेस फ़ायदे में रहेगी क्योंकि एनसीपी के पतन से निराश समर्थक कांग्रेस की तरफ़ रुख़ कर सकते हैं। भाजपा का नुक़सान हुआ है। घोर भ्रष्टाचार से समझौता नहीं करना चाहिए विशेष तौर पर जब ज़रूरत भी नहीं है। नरेन्द्र मोदी का कोई मुक़ाबला नहीं है। पिछले चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में भारी 15 प्रतिशत का अंतर था। भाजपा साधन सम्पन्न पार्टी है। ऐसे समझौते यह संकेत देते हैं कि कहीं भविष्य के बारे आशंका है, असुरक्षा है, घबराहट है।
पटना में 15 विपक्षी ज़रूर इकट्ठे हो गए पर अगला रास्ता साफ़ नहीं। क्या भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करने की योजना सफल होगी? पटना बैठक के दौरान ही अरविंद केजरीवाल कोप भवन में चले गए थे क्योंकि कांग्रेस यह भरोसा देने को तैयार नहीं थी कि दिल्ली सरकार के अफ़सरों पर नियंत्रण करने के लिए लाए गए अध्यादेश का राजसभा में वह विरोध करेंगे। उन्हें यह भी शिकायत थी कि राहुल गांधी उन्हें चाय पर बुलाने को भी तैयार नहीं थे। विपक्ष के लिए क्या महत्व रखता है, नरेन्द्र मोदी का मिल कर मुक़ाबला करना या राहुल गांधी का चाय का न्यौता? लोकसभा चुनाव मे एक साल का समय रह गया है। अगर हर पार्टी अपने बड़े छोटे मुद्दे उठाने लगी तो एकता की हर सम्भावना समाप्त हो जाएगी। यह प्रकरण यह भी बताता है कि आगे कैसी कैसी बाधाएँ आसकती है। कांग्रेस और आप दिल्ली और पंजाब में जगह के लिए संघर्ष करेंगें। मनमुटाव से लेकर टकराव तक हो सकता है। पटना में ममता बैनर्जी का रवैया अच्छा था पर पश्चिम बंगाल में उन्हें न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस और वामपंथियों से मुक़ाबला है। राहुल गांधी ने कहा है कि वह तेलंगाना के के.चन्द्रशेखर राव से बात नहीं करेंगे क्योंकि राहुल के अनुसार वह भाजपा की ‘बी टीम’ हैं पर इसी कथित बी टीम के नेता को मिलने विपक्ष की बड़ी तोप अखिलेश यादव हैदराबाद गए थे। अखिलेश यादव खुद विपक्ष की कमजोरी प्रकट करते हैं। अगर वह अपने प्रदेश में योगी आदित्य नाथ का मुक़ाबला करने की स्थिति में होते तो देश की राजनीतिक तस्वीर कुछ और होती। ममता बनर्जी तो समझ गईं है कि कर्नाटक के बाद कांग्रेस मज़बूत हुई है पर केजरीवाल और अखिलेश यादव जैसे नेताओं ने अभी समझौता नहीं किया लगता।
केजरीवाल तो शायद समझ गए थे कि कांग्रेस का पतन हो रहा है और समय की है बात है कि आप वह ख़ाली हो रही जगह को सम्भाल लेगी। भारत जोड़ों यात्रा और कर्नाटक के परिणाम ने सब बदल दिया। कर्नाटक में आम आदमीं पार्टी के सभी 208 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। अब वह राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि में कोशिश कर रहें हैं। बेहतर होगा कि वह यह प्रयास इस बार त्याग दें और पंजाब और दिल्ली की सरकारें अच्छी चलाने पर ध्यान दें। अभी वह स्थिति में नहीं कि कांग्रेस का विकल्प बन सके। कांग्रेस की स्थिति में और राहुल गाँधी की छवि में सुधार आ रहा है पर अभी न राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी का मुक़ाबला कर सकते हैं और न ही कांग्रेस पार्टी ही भाजपा का मुक़ाबला करने की स्थिति में है। इसके लिए उन्हें भी गठबंधन की ज़रूरत है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडु, जम्मू कश्मीर के सात राज्यों में कांग्रेस को केवल 14 सीटें मिली थी। यहाँ कांग्रेस को बड़े दिल के साथ समझौता करना पड़ेगा। लेकिन इससे भी ज़रूरी है कि विपक्ष बताए कि वह है क्या चीज़ हैं ?लोगों को बताना होगा कि अगर वह सत्ता में आगए तो नीतियाँ क्या होंगी ? केवल एंटी- मोदी पर्याप्त नहीं होगा। न्यूनतम साँझा कार्यक्रम क्या होगा? वर्षांत तक राम मंदिर तैयार हो जाएगा। इस साल देश में होने वाले जी-20 शिखर सम्मेलन जिसमें अमेरिका, रूस और चीन के राष्ट्रपति आने वाले हैं का भी सरकार खूब प्रचार करेंगी। राष्ट्रवाद का मुद्दा खूब उछाला जाएगा। मीडिया तो पहले ही इनकी जेब में है। इसका जवाब देने के लिए विपक्ष के पास क्या वर्णन है?
बड़ा सवाल है कि यह एकजुटता अंत तक क़ायम रहेगी? नीतीश कुमार वी पी सिंह का फ़ार्मुला लगाना चाहते हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ हर चुनाव क्षेत्र में एक साँझा उम्मीदवार खड़ा किया जाए। ऐसा लगभग 450 सीटों पर होना चाहिए। अगर वह ऐसा करने में सफल रहतें हैं तो बहुत बड़ी कामयाबी होगी और भाजपा जिसे पिछले चुनाव में 38 प्रतिशत से थोड़े कम वोट मिले थे को ज़बरदस्त चुनौती मिलेगी। पर क्या ऐसा होगा? मुम्बई में एनसीपी में सेंध लगाकर भाजपा ने बता दिया कि इस लड़ाई में वह कोई कमजोरी नहीं दिखाने वाली। हर हथियार का इस्तेमाल होगा। विपक्ष की एकता के लिए सरकार ने एक और चुनौती खड़ी कर दी है, यूसीसी अर्थात् समान नागरिक संहिता। देश का भारी बहुमत इस बात से सहमत हैं कि देश में सभी समुदायों के लिए एक पारिवारिक क़ानून होना चाहिए। संविधान की धारा 44 भी कहती है कि ‘भारत के समस्त राज्यों में नागरिकों के लिए एक सामान नागरिक संहिता प्राप्त करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए’। पर यहाँ ‘प्रयास’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। 2016 में विधि आयोग ने लोगों की राय जानने के बाद रिपोर्ट में कहा था कि इस वक़्त सभी समुदायों के अलग अलग पारिवारिक क़ानून के बदले एक संहिता बनना न तो ज़रूरी है न वांछित। पर अब पाँच प्रदेशों के चुनावों से पहले और 2024 के आम चुनाव से पहले भाजपा इसे बड़ा मुद्दा बना रही है। प्रधानमंत्री मोदी खुद खुल कर वकालत कर रहें हैं। उत्तराखंड सरकार ने जो आयोग बैठाया था उसकी रिपोर्ट आने वाली है। अगर यह रिपोर्ट इसके पक्ष में आती है तो वहां की सरकार इसे लागू करने के लिए समय नहीं लगाएगी। तब विपक्ष के लिए समस्या बन जाएगी कि इस पर क्या राय बनाए? शिव सेना (उद्धव) और आम आदमी पार्टी ने इसका एक प्रकार से समर्थन कर दिया है पर कांग्रेस, वामदल और नैशनल कांफ्रेंस इसके ख़िलाफ़ है। जब यह मुद्दा भड़केगा, जिसकी प्रबल सम्भावना है, तब विपक्षी एकता का क्या होगा? दूसरा, जो पार्टियाँ इसका विरोध करेंगी वह जनता को क्या बताएँगी कि वह इसलिए विरोध कर रहीं हैं क्योंकि कट्टर मुसलिम राय इसके ख़िलाफ़ है? पाँच बार सुप्रीम कोर्ट इसके पक्ष में आदेश दे चुका है।
यह सही है कि ऐसा क़ानून बनाना और लागू करना आसान नहीं होगा। उत्तर-पूर्व के दल अभी से विरोध कर रहें है। और इसे लागू करते वक़्त भी बहुत संवेदना दिखानी पड़ेगी पर इसका विरोध कर कांग्रेस और दूसरे दल एक बार फिर देश की बड़ी राय के खिलाफ जा रहे है। इस मामले में विपक्ष को जल्द फ़ैसला करना चाहिए नहीं तो आपसी विरोधाभास और भी बड़ी दुर्घटना को अंजाम दे सकता है। आशा है 17-18 जुलाई को बैंगलुरु में अपनी बैठक में विपक्ष इस पर सही गौर करेगा कि आज़ादी के 75 साल के बाद भी हम यह मामला कब तक लटकाते जाएँगे ?