हिमाचल प्रदेश में आई बाढ़ किसी आफ़त से कम नहीं है। जून 2013 में ऐसी ही आफ़त केदारनाथ में आई थी। सितंबर 2014 में कश्मीर में। बेहिसाब बारिश जो सामान्य से 12 गुना बताई जाती है से हिमाचल प्रदेश में भारी तबाही हुई है। बरसात का स्वरूप भी बदल रहा है। पहले लम्बी बरसात चलती थी अब एकाध दिन में ही कसर निकल जाती है। हिमाचल के जलप्रलय में हमने इमारतों को ताश के पत्तों की तरह बहते देखा है। असंख्य पुल टूट गए हैं। बताया जाता है कि हिमाचल में मानसून और पश्चिमी विक्षोभ के टकराने से ऐसी बारिश हुई, जैसे केदारनाथ में हुआ था। कारण कुछ भी हो बहुत बड़ी त्रासदी हम देख कर हटें हैं। लगभग तीन दर्जन लोग मारे गए है, 1300 सड़कें रोकनी पड़ी और दर्जनों बह गईं हैं, अनुमान है कि प्रदेश को विशाल 4000 करोड़ रूपए का नुक़सान हुआ है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुखू का कहना है कि प्रदेश की एक भी पंचायत नहीं बची जहां बिजली और पानी व्यवस्था और सड़कें क्षतिग्रस्त नहीं हुई।जिन्होंने अपने सामने अपने प्रियजन बहते देखें या सारी उम्र की कमाई से बनाया मकान बहते देखा उनकी हालत क्या होगी इसका अनुमान लगाया जासकता है। पंजाब के कुछ क्षेत्रों में भी सतलुज और ब्यास नदियों में आई बाढ़ से व्यापक तबाही हुई है। आशा है कि केन्द्र सरकार राजनीति से उपर उठ कर इन प्रदेशों की मदद करेगी। विशेष तौर पर हिमाचल प्रदेश राहत और पुनर्वास का विशाल बोझ अकेले नहीं उठा सकता।
बरसात पर किसी का बस नहीं पर यह भी स्पष्ट है कि हमारा मौसम विभाग सही भविष्यवाणी करने में असमर्थ है। जहां तक पहाड़ी राज्यों, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश, का सवाल है प्रसिद्ध पर्यावरणवादी अनिल प्रकाश जोशी ने कुछ साल पहले एक लेख लिखा था जो आज भी परासंगिक है। वह लिखते हैं कि “पहाड़ी राज्य तो बना दिए पर उनके विकास की शैली भिन्न नहीं रखी गई। हमने उसी शैली को अपनाया जो मैदानी क्षेत्रों के विकास की कल्पना पर आधारित थी। इसमें मुख्य रूप में आधारभूत ढाँचा था।हमने अपनी विशेष परिस्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन न कर उसी तर्ज़ पर हिमालय के विकास की नींव रखी। हमने कभी इसकी संवेदनशीलता को गम्भीरता से नहीं लिया”। इसी की अनदेखी का परिणाम यह विशाल तबाही है। विकास चाहिए पर पहाड़ों का अपना अलग मॉडल चाहिए। मैदानों की तरह पहाड़ों पर भी बड़ा बड़ा निर्माण होने लगा है। शिमला में हाईकोर्ट और छ: मंज़िला सचिवालय इसका प्रमाण है कि मैदानों की नक़ल की जा रही है। नीचे के शहरों की तरह उन्हें ‘स्मार्ट सिटी’ बनाया जा। रहा है। पहाड़ खोद खोद कर चौड़ी सड़कें और सुरंगें बनाई जा रही है। लोग भी नालों और छोटी नदियों पर अतिक्रमण कर रहे है। नदी तल पर स्कूल, दुकानें,होटल, मकान सब बन रहें हैं। परिणाम है जब निकासी बंद हो जाती है तो पानी अपने सामने हर रूकावट को बहा ले जाता है। जिन तंग रास्तों पर टट्टू चलते थे उन पर धुआँ उड़ाते वाहन चल रहे हैं। बढ़ती जनसंख्या और टूरिज़्म की ज़रूरत ने ज़मीन और पर्यावरण दोनों का नुक़सान किया है। विकास और पर्यावरण के बीच सही संतुलन बैठाने में हम असफल रहें हैं। उपर से कलाईमेट चेंज ने हालत और ख़तरनाक बना दी है। मालूम नहीं कि कब किस पर क़हर टूट पड़े। मैदान में तो फिर कुछ बचाव हो जाता है पर पहाड़ों में भूगौलिक स्थिति के कारण तबाही हो जाती है। वैज्ञानिक चरम मौसम परिवर्तन की चेतावनी दे रहें हैं।
और यह भी नहीं कि चेतावनी की ज़रूरत है। हिमाचल में ही बार-बार बादल फटने से, भूस्खलन से, बाढ़ से तबाही होती रही है पर दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं आया। दो साल पहले अगस्त में किन्नौर में निगुलसारी में भूस्खलन से भारी तबाही हो चुकी है। 20 लोग मारे गए थे। पूरी की पूरी बस दब गई थी। हिमालय का पर्यावरण बहुत नाज़ुक है इससे खिलवाड़ करना घातक हो सकता है। बड़ी नदियां हिमालय के ऊँचे पहाड़ों से निकलती है और असंख्य छोटी नदियाँ और नाले इन मे गिरतें हैं। यह सारे क्षेत्र को असुरक्षित बनाती हैं। इसके बीच विकास के नाम पर मनुष्य दखल दे रहा है। पेड़ काटे जातें हैं और पहाड़ों को नग्न छोड़ दिया जाता है। जब पानी गिरता है तो कोई रोक नही रहती और वह सब बहा कर ले जाता है। बढ़ती जनसंख्या और परिणाम स्वरूप बढ़ता निर्माण बहुत तबाही लाता है। पंजाब में आई विनाशकारी बाढ़ के बारे प्रसिद्ध पर्यावरणवादी बलबीर सिंह सीचेवाला का कहना है, “वर्तमान स्थिति का कारण है कि निकासी के रास्ते सफ़ा नहीं किए जातें और न ही पानी के रास्तों पर निर्माण ही रोका जाता है”। अर्थात् केवल सरकारी बेपरवाही ही ज़िम्मेवार नहीं, लोग जो अवैध जगहों पर निर्माण कर रहे हैं वह भी बराबर ज़िम्मेवार है। बैंगलुरु जिसे भारत की सिलिकन वैली और जिसे सिटी ऑफ गार्डन्स कहा जाता है और जहां से अरबों डालर का आईटी निर्यात होता है 29 और 30 अगस्त 2022 दो दिन पानी में डूब गया। इस शहर को झीलों का शहर कहा जाता था पर अधिकतर झीलों को भर दिया गया है और कईयॉ पर भारी अतिक्रमण हो चुका है। इन के बीच जो इंटरकनेक्ट था वह भी तोड़ दिया गया है। अतिक्रमण ने ड्रेनेज सिस्टम भी अविरुद्ध कर दिया है। परिणाम है कि जब पानी खूब बरसा तो निकासी न होने के कारण सारा शहर ही डूब गया।
क्या कोई सबक़ सीखा जाएगा ? सम्भावना ही नहीं लगती। मैं यहाँ हिमाचल प्रदेश का विशेष ज़िक्र करना चाहता हूँ जहां सरकार ने शुतुरमुर्ग रवैया दिखाते हुए शिमला की हरी छत को बढ़ाने की जगह वास्तव में उसको कम करने का प्रस्ताव रखा है। क्या इन सज्जनो की मति त्याग गई है? क्या वह अपने आसपास देख नहीं रहे कि पेड़ काटने से कितनी तबाही हो रही है? क्या इसलिए इन्हें चुना गया है कि वह शिमला का बचा खुचा पर्यावरण भी नष्ट कर दें? प्रस्ताव है कि 17 ग्रीन बेल्ट को निर्माण के लिए खोल दिया जाएगा। कई अध्ययन बता चुकें हैं कि 414 हैकटीयर वन की छत शिमला को बचा कर रखती है, यह शिमला के फेंफड़े भी हैं। पर अगर हिमाचल सरकार की बात मानी गई तो वहाँ भी पेड़ों की जगह कंक्रीट का जंगल तैयार कर दिया जाएगा। ग्रीन ट्रिब्युनल और दूसरी कमेटियाँ सारे शहर में निर्माण पर रोक की बात कह चुकीं हैं पर कालिनाईजरों के दबाव में विभिन्न सरकारों ने आँखों पर पट्टी डाल ली लगती है। पिछली भाजपा सरकार ने ग्रीन बैलट को खोलने का निर्णय लिया था पर असली कदम वर्तमान कांग्रेस सरकार ने उठाया है।
शिमला के मेरे जैसे शुभचिंतक स्तंभित है। लेखक बीएस मलहंस ने लिखा है, “ ग्रीन बैल्ट को पाक और अस्पर्शनीय रखा जाना चाहिए। 100 साल पुराने देवदार के वृक्ष जो आक्सीजन देते हैं का कोई विकल्प नहीं है”। पूर्व वरिष्ठ अधिकारी ब्रह्म देव शर्मा का कहना है कि हज़ारों करोड़ रूपए के नुक़सान का कारण “अंधाधुंध, अनियोजित और असुरक्षित निर्माण और तेज़ी से लुप्त होता हरा आवरण है… पहाड़ों को नंगा छोड़ दिया गया है”। मैं नहीं मानता कि सरकार को यह मालूम नहीं फिर वह उल्टे रास्ते पर क्यों चल रहें हैं जो विनाश को आमंत्रित करता है? घरेलू मकानों की ऊँचाई को बढ़ाने का भी प्रावधान है। क्या सोचा भी है कि इससे क्या होगा? विशेषज्ञ बताते हैं कि शिमला शहर उस ज़ोन पर स्थित है जहां 8 मात्रा या उससे अधिक का भूकम्प आ सकता है। भूचाल की स्थिति में शिमला में तो बाहर भागने की जगह भी नहीं रही। वहाँ केवल 0.41 प्रतिशत जगह ही बची है जहां पार्क या ख़ाली जगह हैं। हिमाचल के पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा ने एक बार कहा था कि “ इस समय शिमला ताश की गड्डी की तरह है जो कभी भी गिर सकता है”। 2016 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ की 65 प्रतिशत इमारतें असुरक्षित है। तब से हालत और ख़राब हुई है।मेजर जनरल अग्रवाल जिन्होंने 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ में बचाव कार्य की निगरानी की थी का कहना था, “शिमला आपदा का इंतज़ार कर रहा है और सारा ध्यान बचाव पर केन्द्रित करना चाहिए”।
दुख है कि जिनका काम विनाश से बचाने की ज़िम्मेवारी है वह ही रास्ता खोल रहें हैं जो विनाश को आमंत्रित करता है। नैशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने एक लक्ष्मण रेखा खींची थी उसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। हिमाचल प्रदेश और शिमला को कम नहीं अधिक वन चाहिए। ज़मीन को पेड़ विहीन बनाने से मिट्टी कमजोर पड़ती है और पहाड़ खिसकने की सम्भावना बन जाती है। उपर से जलवायु परिवर्तन और मुश्किल बना रहा है। योरूप में गर्मियाँ असहनीय बनती जा रही है। अमेरिका ने बार बार चक्रवात आ रहे है। 2005 में न्यू ओरलीन्स में कैटरीना तूफ़ान से शहर का 80 प्रतिशत हिस्सा डूब गया था। हमारे समुद्र तट पर भी तूफ़ान बढ़ रहें हैं। जून से लेकर अक्तूबर 2022 में पाकिस्तान में आई विनाशक बाढ़ से 1 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। वह देश अब तक उभर नहीं सका। दिल्ली में यमुना पुराने रिकार्ड तोड़ रही है। नदी तल पर क़ब्ज़े और दिल्ली में अवैध कालोनियों की भरमार ने स्थिति को और विकराल बना दिया है। दिल्ली वैसे भी दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है। संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख एंटोनियो गुटरेस का कहना है कि ‘दुनिया नरक के हाईवे पर बढ़ रही है। अपनी ज़िन्दगी की जंग हम तेज़ी से हार रहें हैं। यह आख़िरी मौक़ा है’।
हिमाचल प्रदेश में हुआ विनाश सरकार और लोगों दोनों के लिए वेक-अप-कॉल होनी चाहिए। अगर हम सुधार नहीं सकते तो खुली आँखों के बावजूद हम बर्बाद करने पर क्यों अड़े हुए हैं? प्रकृति बार-बार ख़तरे की घंटी बजा रही है। हम सुनने को तैयार क्यों नहीं है?