कश्मीर मैं पहली बार तब गया था जब बक्शी गुलाम मुहम्मद वहाँ ‘प्रधानमंत्री’ थे। शायद 1954-55 की बात है। बक्शी गुलाम मुहम्मद जो शेख़ अब्दुल्ला के उपप्रधानमन्त्री थे ने सदर-ए-रियासत डा. कर्ण सिंह की मदद से शेख़ साहिब का तख्ता पलट दिया था और उनकी जगह ले ली थी। शेख़ अब्दुल्ला 11 साल घर में नज़रबंद रहें क्योंकि वह कश्मीर की आज़ादी के सपने देखने लग पड़े थे। मैं दूसरी बार कालेज के दिनों में गया था और श्रीनगर में फ़िल्म आरज़ू (राजेंद्र कुमार, साधना, फ़िरोज़ खान) की शूटिंग देखी थी। फिर 1978 में परिवार और दोस्तों के साथ श्रीनगर, गुलमर्ग और पहलगाम की यात्रा की थी। पहलगाम में हम लिद्दर नदी के किनारे टैंट में रहे थे। उसके बाद लम्बा फ़ासला आगया और कश्मीर नहीं जा सका। एक कारण काम की व्यस्तता थी पर न जाने का बड़ा कारण वहाँ के हालात थे। मिलिटैंसी और पत्थरबाज़ी की घटनाएँ निरुत्साहित करने के लिए काफ़ी थी। टूरिस्ट बस पर आतंकवादी हमले जैसी घटनाएँ बहुत विचलित करती थी। बीच में कश्मीरी पंडितों की नस्ली सफ़ाई और ज़बरदस्ती पलायन ने कश्मीर और वहाँ रहने वालों की अत्यंत नकारात्मक तस्वीर बना दी थी। टूरिस्म में भारी गिरावट आगई थी। अब कश्मीर से अच्छी खबरें मिलना शुरू हो गई थी इसलिए पिछले महीने वहां परिवार सहित एक सप्ताह लगा कर आया हूँ। इस बार भी जाने से पहले कुछ परिचितों ने सावधान किया था, सोच लो, देख लो, परिवार के साथ जा रहे हो, ध्यान से जाना इत्यादि। अब वहाँ से लौट कर कह सकता हूँ कश्मीर बदल गया है। यह वह जगह नहीं रही जिसके बारे बुरी खबरें सुनते रहे थे। एक बात और कहना चाहूँगा। कश्मीर मोदी सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और राज्यपाल मनोज सिन्हा तीनों ही बधाई के पात्र हैं। 9 साल में वह कायाकल्प किया गया है जिसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती थी।
जिन दिनों हम वहाँ थे, अमरनाथ की यात्रा निर्विघ्न चल रही थी। इस यात्रा को सफल बनाने के लिए स्थानीय मुसलमान बहुत योगदान डालते हैं। चाहे घोड़े वाले हों या पालकी वाले या टैंट वाले या टैक्सी वाले या होटल वाले सब स्थानीय मुसलमान है। एक स्थानीय व्यक्ति ने मुझे कहा, “ हम चाहते हैं कि सारे देश से हिन्दू यात्रा के लिए आएँ। कश्मीर में कोई समस्या नहीं, कोई ख़तरा नहीं”। यह बात जगह जगह आप से दोहराई जाती है कि वहाँ अब सब कुछ कुशल है डरने की कोई ज़रूरत नही। हमने कश्मीरियों को अपने ‘बैस्ट बिहेवियर’ में पाया। आख़िर उनके लिए भी रोज़ी रोटी का सवाल है। वह जान गए हैं कि मिलिटैंसी और पत्थरबाज़ी के दौरान किस तरह टूरिज़्म और उनकी आमदन के साधन भी सूख गए थे। एक टैक्सीवाले ने बताया कि “ पहले 6-6 घंटे कर्फ़्यू लगता था। कमाई कहां से होनी थी?” एक और टैक्सीवाले ने तो बात और भी स्पष्ट कर दी, “ आप आते रहोगे तो रोजगार चलता रहेगा”। सरकारी रेट से कुछ अधिक वसूल करने के बाद शिकारेवाले ने भी ‘थैंक यू’ कहा। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पर्यटकों के वाहनों को मुख्य रास्तों पर चलाया जाता है। एक बार जब टैक्सीवाला श्रीनगर के अन्दरूनी रास्ते से ले गया तो जम्मू कश्मीर पुलिस के जवानों ने रोक लिया। उसका तो चालान किया गया पर हमें कहा गया, “आप हमारे मेहमान है। हम नहीं चाहते आप को किसी तरह की तकलीफ़ हो”।
इक्का दुक्का घटनाएँ अब भी हो रही है पर प्रभाव यह मिलता है कि स्थानीय लोग चाहतें है कि आप अच्छा प्रभाव लेकर जाएँ। आख़िर पेट का सवाल है। और देश भर से प्रतिक्रिया भी अच्छी हो रही है। कश्मीर पर्यटन विभाग के निदेशक रजा याकूब के अनुसार पिछले साल 1.88 करोड़ टूरिस्ट आए थे इस साल उनका अन्दाज़ा है कि संख्या बढ़ कर 2 करोड़ हो जाएगी जो तीन दशकों में सर्वाधिक होगी। मई में वहाँ जी-20 सम्मेलन के सफल आयोजन के बाद वहाँ टूरिज़्म को भारी बढ़ावा मिला है। श्रीनगर में 300-400 होटल हैं पर माँग के कारण यह महँगे बहुत हैं पर सब भरे हुए थे। एक और चीज़ जो बहुत महँगी है वह फ़्लाइट है। अमृतसर से श्रीनगर की एक तरफ़ की 45 मिनट की फ़्लाइट 10 हज़ार रूपए तक में मिलती है जबकि अगर आप दो हज़ार और डालो तो अमृतसर से मलेशिया की फ़्लाइट का टिकट मिलता है। सरकार एयर लाइन कम्पनियों के प्रति बहुत उदार लगती है।
पर अभी विदेशी टूरिस्ट बहुत उत्साहित नहीं है। पिछले साल केवल 8 हज़ार विदेशी टूरिस्ट आए थे। इस बार कुछ बेहतरी हुई है पर बहुत नही। एक कश्मीरी ने शिकायत की, “ विदेशी यहाँ नहीं आता वह लद्दाख जाता है। यहां ठगी बहुत है!” इस कथन में कितनी सच्चाई है मैं कह नहीं सकता क्योंकि हम इस कथित ठगी के शिकार नहीं हुए पर हाँ, वहाँ सौदेबाज़ी खूब चलती है। कश्मीरी इसके लिए प्रसिद्ध-कुख्यात हैं। 5 हज़ार रूपए की चीज 2-3 हज़ार रूपए में मिल सकती है। लेकिन कश्मीरियों में जागरूकता बहुत है। जो कर सकते हैं वह अपने बच्चे कश्मीर से बाहर पढ़ा रहें हैं। एक दुकानदार जिसका बेटा और बेटी दोनों दिल्ली में शिक्षा ग्रहण कर रहें हैं का कहना था कि वह चाहता हैं कि वह अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ। कश्मीर से बाहर जो कश्मीरी बच्चे पढ़ते हैं उनके दूसरों के साथ झगड़े के समाचार कभी कभार मिलते रहतें हैं। यह अविश्वास दुर्भाग्यपूर्ण है, पर यह मौजूद है। शायद समय के साथ कम हो जाएगा। कश्मीरियों के बारे यह भी उल्लेखनीय है कि वहाँ की हालत के लिए वह कभी खुद को ज़िम्मेवार नहीं ठहराते। कश्मीरी पंडितो के पलयान से लेकर पुलवामा की घटना के लिए दूसरों को ज़िम्मेवार ठहराया जाता हैं।
जो बाहर नहीं भेज रहे वह बच्चों को वहाँ पढ़ा रहें है। कई सीबीएसई के स्कूल हैं। लेकिन पंजाब की तरह बच्चों को विदेश भेजने का पागलपन सवार नहीं हैं। कहीं भी आईईएलटीएस का बोर्ड नज़र नहीं आया। एक टैक्सी वाले ने बताया कि वह अपनी एकमात्र बेटी को पढ़ा रहा है पर वह घर से बाहर सर ढके बिना नहीं जा सकती। उसका अपना भी कहना था कि जब वह काम छोड़ देगा तो वह दाड़ी भी खुली छोड़ देगा। जब नमाज़ का समय आया तो हमें बाज़ार में छोड़ कर वह नमाज़ अदा करने चले गया। पर बंदा बहुत समझदार था और साफ़ कहना था कि उग्रवाद के कारण कश्मीर का बहुत नुक़सान हुआ। है। हाँ, हर भारतीय की तरह उसे भी शिकायत थी कि टमाटर 200 रूपए किलो बिक रहा है। श्रीनगर में बहुत कम बुर्का नज़र आया। महिलाओं ने मुस्लिम रिवाज के अनुसार सर ढका हुआ था। कश्मीर की संस्कृति बहुत उदार रही है महिलाएँ पुरूष के बराबर काम करती थी। खेत में काम करने से लेकर शिकारा तक चलाती थीं। यह तो प्रदेश कटटरवाद में फँस गया जिसके विनाशकारी नतीजे निकले। श्रीनगर से बाहर तो हमें एक भी बुर्क़ा नज़र नहीं आया।
श्रीनगर भी एक स्मार्ट सिटी है पर हालत देश की बाक़ी स्मार्ट सिटिज़ की तरह ही है। जो रईस इलाक़े है वहाँ सड़कें अच्छी है पर शहर टूटा हुआ है। लेकिन समृद्धि के निशान चारों तरफ़ मिलते हैं। वैसे भी कश्मीर के बारे प्रसिद्ध है कि यहाँ एक भी नागरिक नहीं है जिसके सर पर छत न हो, अर्थात् जिसका अपना मकान न हो। अब तो चारों तरफ़ बड़े बड़े घर बन रहे हैं लोग अंदरूनी इलाक़ों से निकल कर बाहर आ रहें हैं। ख़ासियत यह है कि जो घर बन रहें हैं वह विशाल है। लगभग सब तीन मंज़िलें हैं और शायद सर्दी के कारण डिब्बे की तरह बने हुए है, किसी की बैलकॉनी नही। पर पहाड़ी घरों की जो ख़ूबसूरती है वह नज़र नहीं आती। एक शिकारेवाले ने बताया, “सर, कश्मीरी दो जगह पैसा खर्चता है, शादी पर और मकान बनाने पर। अपनी सारी कमाई लगा देता है चाहे बाद में तकलीफ़ सहनी पड़े”। लेकिन यह निर्विवाद है कि हालात सामान्य होने से कश्मीर के लोगों के हालात बदले हैं। सेब और फल उत्पादन तथा टूरिज़्म से रोज़गार मिल रहा है और पैसा बन रहा है।
प्रसिद्ध निशात गार्डन में वैसी ही भीड़ थी जैसी चार दशक पहले देखी थी। यही बात एक और प्रसिद्ध मुग़ल शालीमार बाग के बारे नहीं कही जा सकती जिसके बारे कहा जा सकता है कि खंडहर बता रहे हैं कि बाग कभी हसीन था! अब तो वह उजड़ गया लगता है। छतें टूट चुकी है पुरानी रंगसाजी उखड़ चुकी है। ऐसी रमणीय जगह का पतन बहुत तकलीफ़ देता है। पर निशात बाग अपने पूरे यौवन पर था। डल झील के किनारे स्थित इस बाग में बहुत हिन्दी फ़िल्मों के गाने फ़िल्माए गए है। जंगली फ़िल्म में इसी बाग के फूलों और ऊँचे चिनार के पेड़ों के नीचे सायरा बानो और शम्मी कपूर ने मेरे यार शब्बा ख़ैर गाते इश्क़ लड़ाया था। यही शम्मी कपूर शर्मिला टैगोर के साथ कश्मीर की कली में वह चाँद सा रोशन चेहरा गाते अति उत्साह में डल झील में गिर गए थे। अंगनित ऐसी हिन्दी फ़िल्में हैं जो कश्मीर में फ़िल्माई गई। पर बीच में ‘रोशन चेहरे’ पर बदसूरत दाग लग गया था यहां तक कि वहाँ सिनेमा भी जलाए गए थे। पर अब वह दाग़ मिट रहा है। धीरे धीरे पुरानी रौनक़ लौट रही है। क्या यह शान्ति स्थाई रहेगी? क्या भारत सरकार की नीति सही है? धारा 370 हटाने से क्या फ़र्क़ पड़ा? क्या कश्मीरी पंडित वापिस जा सकेंगे? कश्मीर के बारे मेरी बात अभी ख़त्म नहीं हुई। वृतांत अगले सप्ताह भी जारी रहेगा।