कांग्रेस का बेवजह एतराज़, Congress Complains Unnecessarily

जवाहर लाल नेहरू देश के महानतम प्रधानमंत्री थे। यह बात पहले भी मैं कई बार लिख चुका हूँ आज फिर दोहरा रहा हूँ कि अगर नेहरू विभाजन से त्रस्त लडखडाते लगभग कंगाल भारत को न सम्भालते तो शायद हमारा हश्र पाकिस्तान जैसा होता। गांधीजी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हो गई और सरदार पटेल का देहांत 15 दिसम्बर 1950 को हो गया। अर्थात् जिस त्रिमूर्ति ने हमारी आज़ादी की लडांई का नेतृत्व किया उसमें से 1951 में केवल नेहरू बचे थे। योजना आयोग से लेकर भाखड़ा डैम, आईआईटी, आईआईएम, एम्स, भाभा परमाणु संस्थान, इसरो बहुत कुछ की नींव  नेहरू के समय  डाली गई।  यह सब उस वकत हुआ जब हम बहुत पिछड़े हुए थे। संसदीय लोकतंत्र की स्वस्थ परम्परा भी नेहरू के समय डाली गई। यह सोचा ही नहीं जा सकता था कि नेहरू संसद में आने से हिचकिचाएंगे या कई कई सप्ताह ग़ैर हाज़िर रहेंगे।  वह तो पूरा समय संसद में बैठे रहे जब चीन के आक्रमण को लेकर उन्हें न केवल विपक्षी बल्कि असम से  अपने सांसदों ने बहुत अपशब्द कहे थे। 

 विभाजन के लिए नेहरू को दोषी कहा जा रहा है जबकि महात्मा गाँधी को छोड़ कर कांग्रेस के सब बड़े नेता, सरदार पटेल समेत, इसको अपरिहार्य समझने लगे थे। जून 1, 1947 को बेचैन गांधी ने सुबह 3 बजे उठ कर कहा था, “ आज मैं खुद को अकेला महसूस कर रहा हूँ।  दोनों सरदार (पटेल) और जवाहरलाल समझते हैं कि मेरा आँकलन ग़लत है और निश्चित तौर पर विभाजन के साथ शान्ति स्थापित हो जाएगी”। एच.एम. पटेल ने लिखा था, “पटेल ने साफ़ साफ़ महात्मा को बता दिया कि “यह विभाजन या गृह युद्ध का मामला है। जहां तक गृह युद्ध का सवाल है कोई नही कह सकता कि यह कहाँ शुरू होगा कहाँ ख़त्म होगा। यह सही हैं कि अंत में हिन्दू जीत जाएँगे पर इसकी भारी और अप्रत्याशित क़ीमत अदा करनी पड़ सकती है”। इसी प्रकार कश्मीर को लेकर नेहरू की आलोचना की जाती है और कहा जा रहा है कि अगर कश्मीर का विलय पटेल पर छोड़ दिया जाता तो कश्मीर ऐसा कष्टदायक मसला न बनता। पर  हक़ीक़त है कि पटेल की कश्मीर में कोई दिलचस्पी नहीं थी और अगर कश्मीर आज भारत का हिस्सा है तो कश्मीरी पंडित जवाहरलाल नेहरू के कारण है कश्मीर जिनके पूर्वजों की धरती है। पटेल की दिलचस्पी हैदराबाद और जूनागढ़ के विलय में अधिक थी। पटेल की जीवनी के लेखक राजमोहन गांधी लिखते हैं, “ पटेल के थैले से तीन सेब गुम थे- हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ… पटेल निश्चित नहीं थे कि उन्हें कश्मीर वाला सेब चाहिए। चाहे उसकी भूगौलिक स्थिति महत्वपूर्ण है पर आख़िर वह मुख्यतया मुस्लिम है..”। नेहरू का कश्मीर के साथ भावनात्मक लगाव था पर पटेल का कहना था कि “अगर महाराजा समझते हैं कि उनका और रियासत का हित पाकिस्तान के साथ है तो मैं बीच में खड़ा नहीं हूँगा”। पटेल ने  वी.पी. मेनन को कहा था कि “सच्चाई बताऊँ तो मेरे पास कश्मीर के बारे सोचने का समय नहीं है”।

नेहरू के दबाव में ही पंजाब के विभाजन के समय रैडक्लिफ ने गुरदासपुर के उस वकत के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र को भारत को दिया था ताकि जम्मू को रास्ता मिल सके।  हां, बाद में नेहरू ने ज़रूरत से अधिक उदारता दिखाते हुए मामले को अंतरराष्ट्रीय बनने दिया। इसी तरह वह चीन के इरादों को समझने में गफ़लत खा गए जिसके बारे सरदार पटेल समेत कइयों ने  सावधान किया था। इस ग़लत आँकलन की क़ीमत हमने 1962 में चुकाई। पर याद रखने की बात है कि ग़लतियाँ सब प्रधानमंत्रियों ने की हैं। शास्त्री जी ने हाजीपीर लौटा दिया। ताशकंद में वह रूस के दबाव में आ गए। इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश बनवाया पर एमरजैंसी लगाई, ब्लू स्टार किया और कांग्रेस पार्टी को अपने परिवार के इर्द-गिर्द समेट दिया।  राजीव गांधी के समय सिख विरोधी दंगे हुए और हमारी शान्ति सेना को 1000 फ़ौजियों को गँवा कर अपमानित श्रीलंका से लौटना पड़ा।  नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के समय आर्थिक प्रगति की नींव डाली गई पर राजनीति और भ्रष्ट हो गई। अटल बिहारी वाजपेयी के समय इंडियन एयरलाइंस की उड़ान 814 का अपहरण हुआ और सरकार ने आतंकवादियों के आगे पूर्ण समर्पण कर दिया और तीन कुख्यात आतंकवादी रिहा कर तालिबान को सौंप दिए। इस समर्पण से मिलिटैंसी का असली खूनी दौर शुरू हो गया जो अब कुछ नियंत्रण में आया है। उल्लेखनीय हे कि जिस व्यक्ति ने इस समर्पण का डटकर विरोध किया था वह फारूक अब्दुल्ला हैं। अटलजी बस में सवार हो कर लाहौर गए और पीछे से पाकिस्तान ने कारगिल पर हमला कर दिया। अजीब सरकार थी कि कई किलोमीटर घुसपैंठ हो गई और सरकार को कानों कान खबर नहीं हुई? आख़िर में 500 अफ़सर और जवान शहीद करवा अटलजी ने ‘विजय दिवस’ मनाया। अगर सरकार बस यात्रा से आत्म मुग्ध न होती तो यह जानें बच सकती थी।

मैं वर्तमान सरकार की सफलता/असफलता पर टिप्पणी नहीं कर रहा क्योंकि यह अभी वर्क इन प्रौसेस है केवल इतना कहना है कि ग़लतियाँ सबसे हुई है, असफलताएँ सब कि है पर क्या हमने इसी पर ही केन्द्रित रहना है और यह नहीं देखने कि आज हम कहाँ है और पाकिस्तान कहाँ हैं? अगर आज प्रधानमंत्री गर्व से लालक़िले से घोषणा कर सकते हैं कि अगले दशक में हम तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे तो यह इसलिए  कि पिछली सबसरकारों ने सही काम किया और देश को सही दिशा में बढ़ाया। सोच में ग़लतियाँ हुईं पर इरादा तो सबका नेक था। हमारी गलती है कि हम आज का पैमाना लगाकर अतीत के निर्णयों पर फ़ैसला सुना देते हैं।  जवाहरलाल नेहरू के सामने  परिस्थिति बहुत विकट थी। वह चैलेंज थे जो भारत के किसी प्रधानमंत्री को सामना नहीं करने पड़े थे, न पड़ेंगे। उनके योगदान का  कोई और  प्रधानमंत्री बराबारी नहीं कर सकता  इसलिए कष्ट होता है जब दुर्भावना से उन पर हमले किए जातें हैं यहाँ तक कि निजी जीवन के बारे अनाप शनाप निकाला जा रहा है। निजी जीवन पर आक्षेप नहीं होना चाहिए नहीं तो कोई नहीं बचेगा। अटल बिहारी वाजपेयी की नई जीवनी पढ़ लीजिए।

जवाहरलाल नेहरू के देहांत पर अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “भारत माता शोक में  है क्योंकि उसका प्रिय प्रिंस सो गया है”।संघ के दूसरे सरचालक गुरु गोलवालकर ने  नेहरू की देशभक्ति और आदर्शवाद की प्रशंसा करते ह्ए उन्हें ‘भारत माता का महान पुत्र’ कहा था। इतना लिखने के बाद मैं ज़रूर कहना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस के उन नेताओं से सहमत नही हूँ जो तीन मूर्ति मार्ग स्थित नेहरू संग्रहालय का नाम बदल कर प्रधानमंत्री संग्रहालय रखने पर एतराज कर रहें हैं। इस विशाल भवन में केवल पहले प्रधानमंत्री से सम्बंधित सामग्री रखी गई थी अब इसका  विस्तार कर इस में सब प्रधानमंत्रियों को जगह दी गई। पर कांग्रेस एतराज़ कर रही है कि नेहरू की उपलब्धियों को नकारने और बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है। मैंने यह नया संग्रहालय  देखा नहीं इसलिए फ़र्स्ट हैंड कुछ नहीं कह सकता पर इस नए संग्रहालय के कायाकल्प के दौरान अध्यक्ष रहे पूर्व वरिष्ठ अधिकारी नृपेंद्र मिश्र का कहना है कि प्रथम प्रधानमंत्री का स्थान कम नहीं किया गया बल्कि परिसर का विस्तार कर उनकी उपलब्धियों को अधिक प्रदर्शित किया गया है। पर साथ ही दूसरे प्रधानमंत्रियों को भी जगह दी गई है।

इस पर किसी को आपत्ति क्यों हो? राहुल गांधी ने भी कहा है कि ‘नेहरूजी की पहचान उनके कर्म है उनका नाम नहीं’। फिर आपत्ति क्यों हो? बेवजह आपत्ति कर खुद जयराम रमेश जैसे लोग वह ओछापन दिखा रहें हैं जिसका वह सरकार पर आरोप लगा रहें हैं।  जवाहरलाल नेहरू का योगदान और उपलब्धियों विशाल हैं यह एक बंगले के नामकरण पर निर्भर नहीं करतीं। यह बंगला ब्रिटिश राज के समय कमांडर -इन -चीफ़ का बंगला था। आज़ादी के बाद हमारे प्रथम सेनाध्यक्ष ने यह कहते हुए कि यह मेरे लिए बहुत बड़ा है, सुझाव दिया कि इसे प्रधानमंत्री का निवास बना दिया जाए। जवाहरलालजी 16  वर्ष  वहां रहे थे। उनके देहांत के बाद इसे स्थाई प्रधानमंत्री निवास बनाने की जगह इंदिरा गांधी के कहने पर इसे नेहरू संग्रहालय बना दिया गया और प्रधानमंत्री का निवास कुछ बंगलों में  भटकने के बाद जिसे अब 7 लोक कल्याण मार्ग कहा जाता है, में स्थापित कर दिया गया है। यह जगह इसके लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं है क्योंकि व्यस्तम मार्ग पर स्थित है। बेहतर होता कि प्रधानमंत्री का निवास स्थाई तौर पर तीन मूर्ति भवन बना दिया जाता। यह सुरक्षा दृष्टि से भी उपयुक्त है और प्रधानमंत्री के आने जाने से लोगों को भी असुविधा न होती।

मैंने उपर नेहरूजी के योगदान का कुछ वर्णन किया था। इसे पूरी सम्माजनक  मान्यता मिलनी चाहिए पर कांग्रेस तो इस मामले में हर मर्यादा को पार कर गई। क्योंकि देश में लगभग 60 वर्ष इसी पार्टी का शासन रहा है इसलिए स्तब्धकारी संख्या में हवाई अड्डों, सड़कों, स्टेडियम, राष्ट्रीय सम्मान, विश्व विद्यालयों ,योजनाओं, राष्ट्रीय पार्कों ,खेल टूर्नामेंट, शिक्षा संस्थानों के नाम जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी पर रखें गए। है। कुछ तो संजय गांधी पर भी है! इन का जोड़ 450 के क़रीब बनता है। हर प्रमुख संस्था का नाम एक ही परिवार के सदस्यों पर रख कर प्रभाव यह दिया जा रहा है कि जैसे वह सेवक नहीं मालिक हो, कि जैसे देश को उनका ऋणी होना चाहिए। यह लोकतंत्र की भावना के खिलाफ जाता है। ऐसा करते वक़्त सरदार पटेल, सुभाष बोस,भगत सिंह जैसे लोगों की उपेक्षा कर दी गई जिन्होंने या तो देश को सम्भाला या देश के लिए क़ुर्बानी दी। क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति रॉल कास्ट्रो ने  घोषणा की थी कि उनकी सरकार सार्वजनिक सड़कों या संस्थाओं के नाम उनके बड़े भाई और क्यूबा के विख्यात नेता फ़िडल कास्ट्रो जो 1976 से 2008 तक देश के नेता रहे, के नाम पर रखने की इजाज़त नहीं देगी क्योंकि फिडल कास्ट्रो व्यक्तिगत उपासना के विरोधी थे। फ़िडल कास्ट्रो ने अपनी जीवनी मे  लिखा था कि “जो लोग इस देश का नेतृत्व करते हैं वह भी इंसान है भगवान नहीं”। अर्थात् नेताओं के महिमागान या उपासना की कोई ज़रूरत नहीं। काश! कांग्रेस के नेता लोकतंत्र के इस  मूल विचार को  समझते। इतनी संस्थाओं के नामकरण के बावजूद पार्टी लगातार चुनाव क्यो हारती आ रही है? जैसे शायर ने कहा है,

                 ज़माना बेअदब है,बेवफ़ा है, बेसलीका है,

                 मगर उलफत में हमने भी तो कुछ नादानियाँ की हैं!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.