
शिमला में अर्बन डेवलपमेंट डिपार्टमेंट जिसका काम शहर का योजनाबद्ध विकास करना है, की अपनी बहुमंज़िला इमारत को ख़ाली करवा लिया गया है क्योंकि इमारत असुरक्षित है। यह इमारत एक नाले के उपर बनाई गई है और जंगल के बीच है। अर्थात् जिनका काम शहर का सही विकास करवाना है खुद ही नियमों का उल्लंघन कर रहें हैं। शिमला की जो तबाही हुई है उसमें बड़ा हाथ विभिन्न सरकारों का है। मॉल रोड के ठीक बीच सीमेंट की भारी भरकम इमारत इंदिरा गांधी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स भी नाले पर बनाई गई है। इसी तरह हाईकोर्ट, सचिवालय और इंदिरा गांधी मैडिकल कालेज और अस्पताल की ऊँची इमारतें हैं जो किसी बड़े धक्के के समय ताश के घर की तरह ढह जाएँगी। दूसरी तरफ़ शिमला का कृष्ण नगर इलाक़ा और कुल्लू में अन्नी है जहां सात-आठ मंज़िला ऊँची इमारतें भारी वर्षा में पहाड़ के नीचे गिर गईं हैं। अन्नी के बारे उल्लेखनीय है कि यह पंचायत इलाक़ा है अभी टाउन घोषित नहीं हुआ पर एक इमारत जो गिरी वह आठ मंज़िला थी। एक पहाड़ी पिछड़े इलाक़े में इतनी ऊँची इमारतें कैसे बन गईं ? क्या स्थानीय विधायक ने भी नही देखा कि कितनी तबाही हो सकती है?
हिमाचल प्रदेश की जो त्रासदी हम देख रहें हैं वह सरकारों की उपेक्षा और लोगों की लापरवाही की आपराधिक मिली भगत का परिणाम है। विभिन्न सरकारें तो अपनी ज़िम्मेवारी निभाने में बिलकुल नालायक निकली हैं पर लोग भी लालच में सब सीमाएँ पार कर गए है। मैक्लोडगंज में पहाड़ से सटी छ:छ: सात:सात मंज़िला इमारतें देख कर मैं दंग रह गया था जबकि उस क्षेत्र में बहुत भूस्खलन होता है। प्रमुख भूवैज्ञानिक ऐ के महाजन चेतावनी देते हैं कि “ अगर सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए तो यह शहर भी वैसी तबाही देख सकता हैं जैसी प्रदेश के दूसरे हिस्से देख रहें हैं”। ऐसे समाचार सारे प्रदेश से मिल रहें है पर मैंने मैक्लोडगंज का विशेष वर्णन इसलिए किया है क्योंकि यह मशहूर पर्यटन स्थल है जो दलाई लामा का मुख्यालय भी है, अन्नी की तरह पिछड़ा इलाक़ा नहीं है। यहाँ इतनी ऊँची अरक्षणीय इमारते कैसे बनने दी गई? प्रशासन इतना बेख़बर कैसे रहा? क्या वह इसकी इंतज़ार में है कि प्रकृति का प्रकोप सब कुछ बहा कर ले जाऐ?
शिमला की जो हालत है उसे देख कर आंसू बहाने को दिल चाहता है। अपने सबसे प्रिय हिल स्टेशन जिसके साथ मेरे जैसे बहुत लोगों की यादें जुड़ी हुईं हैं, कि यह दुर्गति बहुत कष्ट देती है। शहरीकरण की तेज़ रफ़्तार ने शहर को बर्बाद कर रख दिया है। 2016 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ 65 प्रतिशत इमारतें अपनी आयु और निर्माण के तरीक़े के कारण असुरक्षित हैं। तब से हालात और भयंकर हो गए हैं। 15 अगस्त को कृष्ण नगर में ज़मीन धँसने से आठ मकान नीचे गिर गए। आसपास की जो इमारतें बच गईं वह भी बहुत अस्थिर तरीक़े से टिकी हुईं हैं। बताया जाता है कि इस क्षेत्र के 1200 मकान खतरें में हैं जिनमें से 200 की हालत तो बहुत नाज़ुक है। सब कुछ तबाह होने के बाद नगर निगम ने अवैध इमारतों का जाँच के आदेश दिए है। अब तक आप क्या करते रहे, जनाब? अगर नगर निगम इतना सुस्त न होता और अपनी ज़िम्मेवारी सही तराके से निभाता तो यह आफ़त न आती। इनके पास तो यह आँकड़ा भी नहीं है कि वास्तव में कितनी अवैध इमारतें हैं? अनुमान है कि 1985 के बाद 10000 ऐसी इमारतें बनी हैं जिनके नक़्शे पास नहीं करवाए गए। इमारत के साथ इमारत सटी है। एक क्षतिग्रस्त हो गई तो साथ वाली इमारतों को भी साथ ले गिरेगी। रिज में बार बार आती दरारें भी क्या संकेत दे रहीं हैं? शिमला में तो भागने की भी जगह नहीं बची है। जहां नगर निगम इतना कमजोर हो वहाँ क्या एक सख़्त प्रशासक को तैनात नही करना चाहिए जो सख़्ती से शहर को बचाने का प्रयास करे? किसी को ग़लतफ़हमी में नहीं रहना चाहिए। हाल की त्रासदी बता गई है कि शहर का अस्तित्व, उसकी सुख शान्ति, जलवायु, आकर्षण, पर्यटन,आर्थिक स्थिति सब खतरें में हैं। भारी बारिश में शहर के इर्द-गिर्द कई सौ देवदार के ऊँचे पेड़ों का गिरना भी ख़तरे की निशानी है। अंग्रेजों के समय के लगे यह पेड़ पहाड़ों की रक्षा करते थे।
न केवल शिमला बल्कि सारे हिमाचल प्रदेश से तबाही के दर्दनाक दृश्य नज़र आ रहें है। हज़ारों बेघर हो चुकें हैं। सरकार के अपने आँकड़ों को अनुसार 24 जून जब मानसून शुरू हुई की तीव्रता से 22000 इमारते, सरकारी, कमर्शल या प्राईवेट क्षतिग्रस्त हुई है। लेकिन यह अंतिम आँकड़ा नहीं होगा। प्रमुख भूवैज्ञानिक नारायण भार्गव के अनुसार ग़लत निर्माण, नाज़ुक ढलान, और जलनिकास की बाधा के कारण यह तबाही हुई है। उनके अनुसार “:हिमाचल प्रदेश में अधिकतर जगह जल निकास का रास्ता नहीं है जिससे पानी इमारतों के इर्दगिर्द जमा हो जाता है । जब बारिश होती है तो ज़मीन धँसनी शुरू हो जाती है और इमारतों में दरारें पैदा हो जाती हैं”। उत्तराखंड में भी जोशीमठ में ज़मीन धँसने से 1000 मकानों में दरारें पैदा हो गई थी और लोगों को वहाँ से निकालना पड़ा था। असली समस्या है कि पहाड़ अब वह बोझ नहीं बर्दाश्त कर सकते जो उन पर लादा जा रहा है। टूरिज़्म को बढ़ावा देने के लिए वह समझौते किए गए जो अब महँगे साबित हो रहें हैं और टूरिज़्म को ही तबाह कर गए हैं। न केवल इमारते बल्कि सड़कें भी धँस रही है जिससे चुनौती और बढ़ गई है। विशेषज्ञ यह भी कह रहें हैं कि जिस तरह ढलानों पर निर्माण हो रहा है वह भी समस्या है। वैज्ञानिक जी के भट्ट के अनुसार अगर इमारत ढलान पर 10 से 20 डिग्री पर बनाई जाएँ तो वह सुरक्षित रहती हैं। पर जब इमारते 45 से 70 डिग्री ढलान पर बनाई जाती हैं तो यह तबाही को निमंत्रण देना है।
यह भी उल्लेखनीय है कि जो इमारतें, सुरंगें और सड़कें अंग्रेजों ने एक शताब्दी पहले बनाई वह इस बरसात में भी क़ायम रही पर जो हाल में बनाई गईं वह ध्वस्त हो गई। निश्चित तौर पर या निर्माण का डिसाईन ग़लत था या जो सामग्री लगाई गई वह कमजोर थी। पहाड़ों में जो पुराने स्लेट और लकड़ी के बने मकान हैं उन्हें नुक़सान कम हुआ पर जो कंक्रीट से बड़ी इमारतें बनी वह ढह गईं। उत्तराखंड की सरकार ने नैनीताल और मसूरी जैसे लोकप्रिय हिल स्टेशन समेत 15 शहरों का सर्वेक्षण करवाने का आदेश दिया है कि पता चल सके कि वह कितनी जनसंख्या का बोझ सम्भाल सकते हैं क्योंकि जनसंख्या का दबाव पहाड़ों को असुरक्षित बना रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी विशेषज्ञों की कमेटी बनाने पर विचार कर रहा है जो बताएगी कि हिमालय क्षेत्र कितनी जनसंख्या का बोझ उठा सकता है। हिमाचल प्रदेश को भी अपने शहरों का ऐसा सर्वेक्षण करवाना चाहिए यह देखते हुए कि जिस शिमला को अंग्रेजों ने 16000 लोगों के लिए बसाया था अब वहाँ की जनसंख्या 2.25 लाख है और रोज़ाना एक लाख से अधिक लोग वहाँ आते हैं। पर अब शिमला बता रहा है कि उसकी बेशर्म लूट के बाद उसकी बस हो गई है। शिवालिक पहाड़ हिमालय के सबसे युवा और सबसे नाज़ुक ऋंखला बताई जाती है। इस पर अंधाधुंध और अविवेकपूर्ण निर्माण की क़ीमत कभी तो चुकानी पड़नी थी। यह समय आगया लगता है। मौसम में आ रहा बदलाव समस्या को और विकट बना रहा है।
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का कहना है कि ‘इमारतों के त्रुटिपूर्ण डिसाइन,अंधाधुंध निर्माण और प्रवासी आर्किटेक्ट’ वर्तमान विनाश के लिए ज़िम्मेवार है’। उन्होंने सड़क निर्माण के तरीक़े पर भी सवाल उठाऐ है। उनकी बात सही है। सड़क निर्माण के लिए पहाड़ों को सीधा काटने से ढलानें अस्थिर हो गई है। विशेषज्ञ बता रहें हैं कि जल्द या देर से यह ढलानें ज़रूर नीचे खिसकनी शुरू हो जाऐंगी। अब सवाल है कि क्या वर्तमान हिमाचल सरकार में इस विपदा का सामना करने और हिमाचल प्रदेश के विकास का जो ढाँचा तैयार किया जा रहा है उस पर रोक लगाने और वैकल्पिक ढाँचा तैयार करने का दम भी है? मुझे बहुत शक है क्योंकि आज तक किसी भी हिमाचल सरकार ने कठोर कदम उठाने की हिम्मत नहीं दिखाई। प्रदेश की ‘सब चलता है’ कि संस्कृति घातक सिद्ध हो रही है। और यह तो वह सरकार है जो स्थिति को सही करने के विपरीत ऐसे कदम की वकालत कर रही है जो शिमला के विनाश को पूर्ण कर देगी।
नैशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने नवम्बर 2017 में शिमला में असुरक्षित और अनियंत्रित निर्माण से हो रहे नुक़सान का गम्भीर उल्लेख किया था। उन्होंने कहा था कि पर्यावरण के तौर पर नाज़ुक क्षेत्र में निर्माण से शिमला प्राकृतिक और इंसानी तबाही के लिए खुल गया है। इनकी बात सुनने और समझने के विपरीत प्रदेश सरकार ने शिमला डिवैलपमैंट प्लैन तैयार किया है जिसके अनुसार 17 ऐसे क्षेत्र जहां निर्माण पर पाबंदी है, को निर्माण के लिए खोला जाएगा। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी है पर सवाल तो प्रदेश सरकार की निन्दनीय सोच और अदूरदर्शी दिशा का है। सारे विशेषज्ञ चेतावनी दे रहें हैं कि हिमाचल प्रदेश भूकम्प के ख़तरनाक ज़ोन में पड़ता है। शिमला को भी अधिक नहीं, कम निर्माण की ज़रूरत है। कम से कम बड़ी संख्या में सरकारी दफ़्तर यहाँ से हटाने चाहिए। एनजीटी ने शिमला को बचाने के लिए एक लक्ष्मण रेखा खींची थी पर हिमाचल सरकार बेधड़क विनाश की तरफ़ बढ़ रही है। क्या वर्तमान त्रासदी को देखते हुए हिमाचल सरकार यह घोषणा करेगी कि वह विनाशक शिमला डिवैलपमैंट प्लैन वापिस ले रही है ? क्या विकास के वर्तमान मॉडल जिससे इतना विनाश हुआ है, पर पुनर्विचार होगा? क्या सरकार की अपनी अत्यंत ढीली कार्य -संस्कृति बदलेगी? और सबसे महत्वपूर्ण, प्रदेश को बचाने के लिए मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु कठोर कड़वे अलोकप्रिय कदम उठाने का अपना राजधर्म निभाएँगे?