विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के घटक दलों ने फ़ैसला किया है कि वह 14 टीवी एंकरों का बहिष्कार करेंगे और उनके शों में अपने प्रतिनिधि नहीं भेजेंगे। ऐसा खुला बहिष्कार पहले कभी नहीं हुआ। प्रवक्ता का कहना है कि “रोज़ शाम 5 बजे से कुछ चैनलों पर नफ़रत की दुकानें सजाई जाती है। हम नफ़रत के बाज़ार के ग्राहक नहीं हैं”। इस कदम को लेकर ज़बरदस्त विवाद शुरू हो गया है। मंत्री हरदीप पुरी का कहना है कि आपातकाल फिर लागू हो गया, मंत्री अनुराग ठाकुर का कहना है कि यह विपक्ष की हताशा दर्शाता है। ‘नैशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट’ ने इसे लोकतंत्र पर हमला करार दिया है जबकि ‘इंडिया’ गठबंधन का कहना है कि उन्होंने भारी मन से फ़ैसला लिया है और “हमें आशा है कि आने वाले दिनों में स्थिति बेहतर हो जाएगी और यह एंकर
महसूस करेंगे कि एक दिन युवा पीढ़ी उनसे सवाल करेगी”। अर्थात् यह संकेत दे दिया गया है कि भविष्य में पुनर्विचार हो सकता है। इस संदर्भ में मुझे कुछ कहना है :-
एक, यह ‘बैन’ नहीं है ‘बॉयकॉट’ है। अर्थात् प्रतिबंध नहीं लगाया, केवल बहिष्कार किया है। विपक्षी दल प्रतिबंध लगा भी नहीं सकते, यह केवल सरकार लगा सकती है। न ही यह मीडिया की आज़ादी पर हमला ही है। हमला तब होता है जब पत्रकारों पर हमले होतें है, या अख़बारों के विज्ञापन रोके जाते है, या अपना काम कर रहें पत्रकारों पर केस बनते हैं। ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरा 50 साल का पत्रकारिता का अनुभव है। हम ने यह सब झेला है। पंजाब में आतंकवाद के दौरान वीर प्रताप के कार्यालय में तो पार्सल बम तक आ चुका है और हमारे दो कर्मचारी मारे गए थे। अब ऐसा कुछ नहीं हुआ। न ही किसी को कुछ कहने या लिखने से रोका ही गया। किसी के खिलाफ हिंसा नहीं हुई, केस दर्ज नहीं किया गया। केवल यह कहा गया है कि हम तुम्हारे साथ बातचीत में शामिल नहीं होंगे। यह सैसरशिप कैसे हो गया, जैसा आरोप लगाया जा रहा है? या यह अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कुठाराघात कैसे? यह तो सिर्फ़ असहयोग है।
दो, वर्षों से कुछ एंकर और कुछ चैनल ग़ैर ज़िम्मेवारी से चल रहे हैं, बेधड़क हो गए है। परिणाम है कि मीडिया की विश्वसनीयता पर गहरी चोट पहुँची है। बहुत लोगों ने न्यूज़ देखना बंद कर दिया है। पहले पता होता है कि एंकर ने क्या करना है। टीवी पर डिबेट लगातार ज़हरीली होती जा रही है। पैनेलिस्ट को मुर्ग़ों की तरह लड़ाया जाता है। टीआरपी बढ़ाने के लिए उत्तेजना बढ़ाई जाती है। अब एंकरों को पता चल गया है कि उन पर भी नज़र है। इसका फ़ायदा होगा कि टीवी मीडिया की गिरती विश्वसनीयता रूक जाएगी और वह अंदर झांकने के लिए मजबूर हो जाएँगे। कई चैनल अब बड़े उद्योगपतियों ने ख़रीद लिए है। इनसे स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की आस भी नहीं की जा सकती। प्रैस ने देश की आज़ादी के संघर्ष में बहुत योगदान डाला था। तब यह एक मिशन था आज बिग बिज़नस बन गया है। जब आपने अपनी लगाम बड़े उद्योगपतियों के हवाले कर दी तो ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का रोना क्या? उन्हें खुद सोचना चाहिए कि क्या वह अपने व्यवसाय से न्याय कर रहें हैं? मीडिया समाज का ‘वॉच डॉग’ नहीं रहा। अब तो वह राजनेताओें और कारपोरेट के हाथों में खेल रहा है। कल को अगर मालिक लाला बदल गया तो यह भी बदल जाएँगे। टीवी मीडिया की जो हालत बनी है यह खुद पर लगाया घाव है। हां, प्रिंट मीडिया में अभी भी जान है। कई अख़बार अपना धर्म सही निभा रहें हैं। पर टीवी का संदेश अधिक प्रभावी रहता है क्योंकि यह लोगों के घरों के अंदर तक जाता है।
तीन, ऐसा बहिष्कार सब ने समय समय पर किया है केवल पहली बार इसकी घोषणा कर नाम बता कर उन्हें शर्मिंदा करने की कोशिश की गई है। कोई भी सरकार मासूम नही। कई विपक्षी सरकारें वही करती है जिसका वह केन्द्र पर दोष लगा रही हैं। कांग्रेस का अपना इतिहास बहुत चमकता नहीं है। आख़िर यह एक मात्र पार्टी है जिसने आपातकाल लगा 21 महीने अख़बारों पर सैंसर बैठा दिया था और बड़े बड़े पत्रकारों को जेल में डाल दिया था। राजीव गांधी ने मीडिया पर नियंत्रण करने का असफल प्रयास किया। बंगाल में सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस दोनो मीडिया पर दबाव बना चुकें हैं। जब यूपीए की सरकार थी तो कई चैनल सरकार पर पूरी तरह से मेहरबान थे। अब भी कई विपक्षी शासित प्रदेशों में मीडिया का उत्पीड़न किया जाता है। अप्रिय पत्रकारों को जेल भेजा जा सकता है और आलोचक अख़बारों के विज्ञापन बंद किए जा सकते है। आज कल जो बड़े बड़े कई कई पृष्ठों के विज्ञापन अखबारों में देखे जाते हैं यह केवल प्रचार का ही काम नहीं करतें, यह मीडिया को कंट्रोल भी करते हैं।
जो पहले कांग्रेस करती रही वह ही भाजपा कर रही है। कुछ चैनलों और पत्रकारों का बहिष्कार पहले भी हुआ है, केवल वह अघोषित था। कई प्रमुख पत्रकारों को मजबूरन टीवी चैनल छोड़ने पड़े या निकाले गए। अब कुछ अपने यूट्यूब चैनल चला रहें है। हाल ही में जब एडिटर्स गिल्ड का प्रतिनिधि मंडल मणिपुर गया तो उसकी रिपोर्ट को लेकर मणिपुर की सरकार ने एफ़आइआर दर्ज करवा दी जिस पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है, “ पत्रकार सही या ग़लत हो सकते हैं।पूरे देश में हर रोज़ ग़लत चीज़ें रिपोर्ट की जाती हैं। क्या शासक उन पर मुक़दमा चलाऐगे”? ऐसे एफ़आइआर दर्ज करवाना वास्तव में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है। बहिष्कार तो इसके सामने मामूली है।
चार, सबसे बड़ी शिकायत है कि यह फ़िज़ा में ज़हर घोल रहें हैं। कई (सब नही) तो दिन रात हिन्दू- मुसलमान, हिन्दू- मुसलमान करते है। पहले तो समुदाय का नाम ही नहीं लिया जाता था पर अब तो खुली छूट है। कहीं से भी ढूँढ कर ऐसे मामले निकाल कर लाते हैं जो सारा माहौल ख़राब करते हैं। देश कभी भी इतना बँटा हुआ नहीं था जितना आज है, नीचे तक साम्प्रदायिक ज़हर घुल चुका है। यह नफ़रत रुकनी चाहिए क्योंकि इसके शिकार बेक़सूर हो जातें है। चलती ट्रेन में एक कांस्टेबल ने बिना उत्तेजना के अपने वरिष्ठ सहयोगी तथा तीन मुस्लिम यात्रियों को ढूँढ ढूँढ कर मार डाला। बाद में नारे लगाने लगा। गौ- रक्षा के नाम पर लोगों के कत्ल हो रहें हैं। मोनू मानेसर जैसे लोगों को बनाने में भी ज़हरीले प्रचार का बड़ा हाथ है। और सब कुछ अभिव्यक्ति का आज़ादी’ की आड़ में किया जा रहा पर। सनातन धर्म पर स्टैलिन के बेटे की बदतमीज़ टिप्पणी पर मद्रास हाई कोर्ट का स्पष्ट कहना था कि, “आजाद अभिव्यक्ति मौलिक अधिकार है मगर यह नफ़रत फैलानी वाली भाषा देने की इजाज़त नहीं देता। विशेष तौर पर जब यह धर्म से जुड़ा मामला हो”। अर्थात् आप की आज़ादी की लक्ष्मण रेखा है। आप साम्प्रदायिक उन्माद खड़ा कर न किसी की भावना को आघात पहुँचा सकते हो, न ही ऐसा माहौल बना सकते हो कि किसी के जान और माल को हानि पहुँचे। नूंह की हाल की घटनाऐं बता रहीं हैं कि यहाँ स्थिति कितनी जल्द हाथ से फिसल सकती है।
पांच, और अंतिम। बेहतर तो होता कि मीडिया का यह वर्ग खुद पर नियंत्रण रखता तब यह नौबत ही नहीं आती। इन्हें अन्दर झांकना चाहिए। क्या उनके भड़कीले बोल देश का भला कर रहें हैं या बुरा? उनका ज़हरीलापन देश का बल्ड प्रेशर बढ़ा कर रखता है जो कभी भी नियंत्रण से बाहर हो सकता है। हर वकत अशान्ति और उत्तेजना परोसी जाती है। अगर बहिष्कार ग़लत है तो यह कैसे सही है? असहिष्णुता बढ़ाना भी तो लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ जाता है। हर बात पर विपक्ष को कोस कर यह लोग अपनी विश्वसनीयता समाप्त कर रहें है। कई एंकर तो प्रवक्ता से अधिक वफ़ादार बन जाते हैं। मणिपुर की बात पर 1966 में मिज़ोरम पर हवाई बमबारी की बात उठाई जाती है। न ही यह लोग सरकार से ही कोई सवाल करते है। हर सवाल विपक्ष से किया जाता है। 1975 में देश पर जब आपातकाल लादा गया तो कई पत्रकारों ने समझौता कर लिया। गुणगान शुरू हो गया कि देश में अनुशासन लागू हो गया, ट्रेनें समय पर चल रही हैं। इस पर लाल कृष्ण आडवाणी ने व्यंग्य किया था जो आज तक याद किया जाता है, ‘ जब उन्हें झुकने को कहा गया उन्होंने रेंगना शुरू कर दिया’ ! आज भी कई मीडिया वालों की ऐसी हालत है। इंडियन एक्सप्रेस जिसने खुद आपातकाल में बहुत सरकारी उत्पीड़न सहा है, ने इस बहिष्कार का विरोध किया है। अख़बार लिखता है , “इससे सच्चे, अच्छी पत्रकारिता और अच्छे पत्रकारों के लिए जगह सिंकुड़ जाएगी , इससे प्रेस की आज़ादी को ख़तरा है… लोकतंत्र में ब्लैक लिस्ट की कोई गुंजाइश नही”। अख़बार का विचार सकारात्मक है। सब से अच्छा समाधान तो यही है कि वह खुद को सम्भाल कर रखें या उनकी संस्था उन्हें सही करने के लिए मजबूर करे पर अगर ऐसे एंकर नहीं रूकते तो रास्ता क्या है? आख़िर इस अख़बार ने खुद माना है कि ‘टीवी एंकर जिनकी नफ़रत भरी ज़ुबान है और मुड़े हुए घुटने हैं की आलोचना होनी चाहिए’।
अंत में : एक अच्छा समाचार हिमाचल प्रदेश से है जहां मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु ने अपनी और परिवार की जीवन भर की कमाई 51 लाख रूपए बाढ़ से प्रभावित लोगों के लिए राहत कोष में दान दे दी है। अब उनके पास केवल कुछ हजार रूपए ही बचे हैं। सब बैंक खाते ख़ाली कर दिए। पत्नी की बचत भी डाल दी। हिमाचल प्रदेश सौभाग्यशाली हैं कि ऐसा संवेदनशील मुख्यमंत्री मिला है। ऐसा दानवीर नेता तो पहली बार देखा है। आम राय तो है कि जो नेता बन जाता है वह दोनों हाथों से लूटता है। आख़िर एक तेज़तर्रार सीएम भी सुर्ख़ियों में है जिसने अपनी पत्नी की कम्पनी को 10 करोड़ रूपए की सब्सिडी दिलवा दी है। सुखविंदर सिंह सुक्खु ने ऐसे लोगों को शीशा दिखा दिया है।