
खालिस्तानी हरदीप सिंह निज्जर की कैनेडा में हत्या के बाद उठे बवाल पर लंडन के साप्ताहिक द इकोनॉमिस्ट का कहना है, “अगर हरदीप सिंह निज्जर की हत्या की जाँच भारत की संलिप्तता की पुष्टि करती है तो पश्चिमी देशों को नरेन्द्र मोदी के साथ सख़्त होने की ज़रूरत है…”। कितना अहंकार और कितनी हिमाक़त इस कथन में भरी हुई है। आप दुनिया के हैड मास्टर हो क्या? पश्चिम के कई अख़बार और टीवी मीडिया यह बात दोहरा रहें है कि भारत और उसके नेतृत्व के प्रति ‘सख़्त’ होने का समय है जबकि अभी तक हमारे ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं दिया गया। जब हमारे दूतावासों पर हमले होते हैं, या हमारे राजनयिकों की हत्या करने के पोस्टर लगते हैं तो यह मीडिया मामले को गम्भीरता से क्यों नहीं लेता? इसका जवाब है कि उपर से कुछ भी कहें, पश्चिम के देश भारत के उभार को पचा नही पा रहे। यह आज से नहीं है, आज़ादी के बाद से ही वहां के प्रेस, विशेष तौर पर ब्रिटिश प्रेस, का नज़रिया नकारात्मक और आलोचनात्मक रहा है कि हम से आज़ाद होकर यह लोग कैसे फल फूल रहें हैं? इन्हें हमारी ज़रूरत क्यों नहीं है? वह शायद उस महापापी विसंटन चर्चिल की भविष्यवाणी पर विश्वास कर बैठे कि 50 वर्षों में भारत का नामोनिशान नहीं बचेगा। लेकिन अब हमारी अर्थव्यवस्था ब्रिटेन से आगे निकल गई है और यह सबसे तेज तरक़्क़ी कर रही अर्थ व्यवस्था है इसलिए तकलीफ़ हो रही है, बहुत तकलीफ़ हो रही है। हमारे देश में भी बहुत लोग है जो अपने हीरो और विलेन पश्चिम के मीडिया को देख कर चुनते हैं।
लंडन के ही अख़बार द गार्डियन की शिकायत है, “भारत सजा देने के लिए आर्थिक हथियार का इस्तेमाल करता है। भारत अपने 140 करोड़ लोगों के बाज़ार में प्रवेश पर नियंत्रण रखता है। दूसरे उन देशों को भी चेतावनी दी जा रही है जो अपनी भूमि पर भारत विरोधी गतिविधियों की इजाज़त देती हैं, इनमें ब्रिटेन भी शामिल है”। सवाल तो यह है कि क्या ऐसा केवल भारत ही करता है? क्या पश्चिम के देश आर्थिक हथियार का इस्तेमाल नहीं करते रहे, और कर रहें हैं? इसी अख़बार ने भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियों की ‘बेधड़क गतिविधियों’ की शिकायत की है पर जब पश्चिम की एजेंसियाँ ऐसा करती हैं तो वह सही है, नैतिकता के अनुरूप है? पश्चिम के मीडिया को अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों की हरकतों के बारे भूलने की बीमारी है जिन्होंने दुनिया भर में कई हत्या करवाईं हैं। वह जो चाहते हैं वह करतें हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ने विदेशों में नेताओं की हत्या की, अप्रिय सरकारों का तख्ता पलटा, टकराव पैदा किया, देशों और समाजों को तबाह किया। पर उनसे कोई सवाल नहीं किया जाता क्योंकि वह पॉवरफुल पश्चिम है और उनका मीडिया उनके ढिंढोरची का काम करता है। अपने हित के लिए पश्चिम के देश किसी भी देश में घुस कर हिंसक कार्यवाही कर सकते हैं। कोई जवाबदेही नहीं होगी पर बिना सबूत के हमारे ख़िलाफ़ ‘सख़्त’ होने की सलाह दी जाएगी।
निज्जर मामले में अमेरिका के एक प्रवक्ता ने कहा था कि ‘भारत को छूट नहीं दी जाएगी’। कितना घमंड है इस कथन में। पर क्या अमेरिका के पास ऐसी छूट देने का नैतिक अधिकार भी है? उन्होंने हैलिकॉप्टर भेज कर पाकिस्तान के अंदर एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को पकड़ कर मार डाला। पाकिस्तान से इजाज़त लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी गई। दुनिया भर में ढँढोरा पीटा गया कि इराक़ के सद्दाम हुसैन के पास ‘सामूहिक विनाश के हथियार’ हैं। सीएनएन जैसे अमरीकी नेटवर्क ने सद्दाम हुसैन के खिलाफ खूब अभियान चलाया यहाँ तक कि उसे आधुनिक हिटलर बना दिया। पश्चिम की सेनाओं ने इराक़ पर हमला कर दिया। एक गुफा में छिपा भयभीत सद्दाम हुसैन मिला जिसे पकड़ कर मार दिया गया। सामूहिक विनाश के कोई हथियार नहीं मिले। इस बीच हज़ारों इराक़ी मारे गए और वह देश तबाह कर दिया गया। किसी की जवाबदेही नहीं हुई। किसी को ‘वॉर क्राइम’ के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया, जैसे पुतिन को किया जा रहा है। संदेश क्या है? संदेश है कि व्हाइट देश कहीं भी कुछ कर सकते हैं। वह इराक़ या सीरिया या अफ़ग़ानिस्तान जैसे ब्राउन देशों को तबाह कर सकते है। कोई शोर नहीं मचेगा पर पुतिन इसलिए फँस गए क्योंकि उन्होंने व्हाइट देश युक्रेन पर हमला कर दिया। हमें तो माफ़ किया ही नहीं जा सकता क्योंकि हम पर आरोप है कि हमने एक व्हाइट देश के अन्दर कार्यवाही करने की जुर्रत की।
हम तीन दशकों से भारत से भाग कर पश्चिम में सुरक्षित पनाह लिए हुए आतंकवादियों, क्रिमिनल और गैंगस्टर के प्रत्यर्पण की माँग कर रहें हैं पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हमला किया गया। हमलावर पाकिस्तान से आए थे। 175 लोग मारे गए और 300 से अधिक घायल हुए। चाहिए तो यह था कि हम पाकिस्तान को ठोक देते पर तत्कालीन सरकार कमजोर निकली। ख़ैर, यह अलग बात है। अमेरिका ने हमें सलाह दी कि आप जवाबी कार्रवाई न करो हम पाकिस्तान को सजा देंगे जबकि अमेरिका पर 9/11 के हमले के बाद इराक़, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में तबाही बरसाई गई। मुम्बई हमले का एक सूत्रधार डेविड हेडली जिसने हमले के लिए जगह की रैकी की थी, को पकड़ तो लिया गया है। वह शिकागो की जेल में 35 साल की सजा भुगत रहा है पर उसे हमारे हवाले करने से अमेरिका ने इंकार कर दिया है। अगर वह अमेरिका का अपना अपराधी होता तो किसी भी तरीक़े से उसे या हासिल कर लिया जाता या ख़ामोश कर दिया जाता। यह वह दोहरा मापदंड है जिसके बारे विदेश मंत्री जयशंकर शिकायत कर चुकें हैं। ईरान के एक जैनरल की इराक़ के बग़दाद हवाई अड्डे के बाहर ड्रोन द्वारा हत्या कर दी गई। क्यूबा के प्रसिद्ध नेता फ़िडल कास्ट्रो को मारने के छ: असफल प्रयास किए गए थे। लेकिन बाक़ी दुनिया को मानव अधिकारों और नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाएगा। बताया यह जा रहा हैं कि जैसे ‘रूल ऑफ लॉ’ और ‘नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ जैसी मुहावरों पर उनका विशेषाधिकार है।
क्या अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा भारत के साथ पंगा लेने के लिए ट्रूडो को उकसाने से दोनों देशों के रिश्तों पर असर पड़ेगा? इस पर दो राय हैं। भारत सदा ही अमेरिका के इरादों के प्रति आशंकित रहा। है। हमारी राजनीति, हमारे प्रशासन और हमारे समाज में सदा ऐसे लोग रहे हैं जो अमेरिका को अविश्वसनीय समझते है। यह अब और मुखर होंगे। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी सब आशंकित थे इसीलिए हमारा रूस की तरफ़ इतना झुकाव रह है। विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी का मानना है कि “ आपसी विश्वास बनाना और मुश्किल होगा”। क्वाड में भी अविश्वास बढ़ेगा। हमारे नीति निर्धारक भी मामले पर फिर गौर करेंगे। विशेषज्ञ और लेखक माईकल कुगलमैन का कहना है कि दोनों तरफ़ से ‘चाकू बाहर आगए हैं’।यह तो अतिशयोक्ति होगी पर पुनर्विचार तो दोनों वाशिंगटन और नई दिल्ली में चल रहा होगा कि रिश्तों को कैसे दिशा दी जाए? वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक डैरिक जे. ग्रौसमैन का कहना है, “ यह देखना दिलचस्प होगा कि बाइडेन प्रशासन स्थिति से कैसे निपटेगा… अमेरिका चाहता है कि चीन का मुक़ाबला करने के लिए भारत उनके साथ रहे। यह सबसे टॉप लक्ष्य है”। लीज़ा करटिस का भी कहना है कि “नरेन्द्र मोदी के भारत के साथ सम्बंधों को बढ़ाने में अमेरिका ने इतना निवेश किया है कि इस घटना का अधिक देर तक प्रभाव नहीं होगा।अमेरिका भारत को चीन के प्रिजम से देखता है इसलिए सम्बंध सामान्य रखेगा”। चीन का सामना करने के लिए हमें भी अमेरिका की मदद की ज़रूरत है। दोनों तरफ़ मजबूरी है पर अविश्वास तो है।
अगर अमेरिका भारत साथ मज़बूत रिश्ते चाहता है तो यह हासिल करने का अजब ढंग है। हमें दुनिया भर में बदनाम करने के बाद कहा जा रहा है कि वास्तव मे वी लव यू ! वह यह भी भूलते हैं कि भारत वह राष्ट्र
है जिसका जन्म खूनी विभाजन के बाद हुआ था। उसके बाद भी कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ा। हमें लम्बे आतंकवाद का सामना करना पड़ा है जो हमारे पड़ोस से प्रेरित है। कश्मीर को लेकर बार-बार इम्तिहान लिया गया। कुछ समय पहले तक पश्चिम के देश और उनका मीडिया कश्मीर को लेकर हमारी क्लास लगा रहे थे। पाकिस्तान की मदद की गई और उसके भारत विरोधी तानाशाहों का सत्कार किया गया। बांग्लादेश के युद्ध के समय निक्सन ने वहाँ लोगों के मानवाधिकारों की चिन्ता किए बिना याहया खान के पाकिस्तान को समर्थन दिया और भारत को दबाने के लिए अपना सातवाँ बेड़ा भेजा था। अब भी पश्चिम में बैठे हुए तथाकथित खालिस्तानी तत्वों को ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के नाम पर खुली छूट दी गई है। अगर यह देश चाहें तो इन्हें सम्भालने के लिए पर्याप्त कानून हैं पर इच्छा शक्ति नहीं है। यही कारण है कि भारत में लोग नाराज़ हैं। हैरानी है कि चाहें अमेरिका हो या कैनेडा हो या इंग्लैंड हो, यह देश अपनी ज़मीन पर पनप रहे खालिस्तानियों की गतिविधियों के बारे इतने उदार है। अगर वह बेहतर सम्बंध चाहते हैं तो भारत विरोधी तत्वों को वहां संरक्षण देना बंद करना पड़ेगा नहीं तो सम्बंध असहज और शंकित रहेंगे। इस विवाद में सम्बंधों को पटरी से उतारने की क्षमता है।
हमने कभी किसी देश को आतंकवाद निर्यात नहीं किया। हम खुद साज़िशों का शिकार हैं, न केवल दुश्मनों की बल्कि कथित दोस्तों की भी। पंजाब शांत है, खालिस्तान की माँग को कोई समर्थन नहीं है पर बाहर साज़िशें हो रही है इसलिए हमें शंकित और सावधान रहना है। व केवल चीन के प्रति बल्कि पश्चिम के प्रति भी। निज्जर प्रकरण हमें यह सबक़ सिखा गया है।