7 अक्तूबर का दिन दुनिया बहुत देर तक याद रखेगी। इस दिन क्रूरता और पाश्विकता की हर सीमा को पार करते हुए आतंकवादी संगठन हमास ने अचानक इज़रायल पर हमला कर दिया। उस देश की विख्यात सुरक्षा और ख़ुफ़िया व्यवस्था की घोर असफलता को प्रदर्शित करते हुए हमास के हज़ारों आतंकियों ने आकाश, ज़मीन और समुद्र से इज़राइल पर हमला कर दिया। 20 मिनट में 6000 राकेट दागे गए। कई सौ इज़राइली मारे गए, 200 का अपहरण कर लिया गया जिन में महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं। कलशनिकोव पकड़े हमास के आतंकवादियों ने इज़राइल के अंदर घुस कर अंधाधुंध फ़ायरिंग की। मासूम बच्चे, बुजुर्ग, विदेशी टूरिस्ट किसी को बख्शा नहीं गया। घायल इज़राइल चीख उठा ‘यह हमारा 9/11 है’। इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजमिन नेतन्याहू ने अमेरिका के विदेश मंत्री को वह चित्र दिखाएं हैं जिसमें हमास ने कुछ नवजात बच्चों के सर कलम किए हुए हैं। ऐसी नृशंसता तो पहले देखी नहीं गई।
यह कैसे हो गया? अचूक माने जाने वाली इज़राइल की सुरक्षा व्यवस्था पर ऐसा नामुमकिन सा हमला कैसे हो हो गया? कई वर्ष नहीं तो कई महीनों की तैयारी की गई होगी, पर इज़राइल की विख्यात ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद जिसने कभी किसी इसरायली विरोधी को माफ़ नहीं किया, इस तरह घोर असफल कैसे हो गई? इज़राइल की सेना भी दुनिया में सबसे सतर्क और पेशावर है। बताया जाता है कि ग़ाज़ा पिछले 18 महीने से अपेक्षाकृत शांत चला आ रहा था। क्या इज़राइल की एजेंसियाँ में सुरक्षा की झूठी भावना पैदा कर दी गई कि हमास अब लड़ने को तैयार नही ? सुरक्षा एक्सपर्ट एरोन डेविड मिलर का कहना है कि इज़राइल निश्चिंत हो गया था कि हमास कभी सीमा पार कर हमला नहीं कर सकता।
अब इज़राइली स्तब्ध है। इज़राइल के राजनीतिक और विदेशी मामलों के विशेषज्ञ अटिला सोमफालवी सवाल पूछतें हैं, “ड्रोन, सैटेलाइट, निगरानी करने वाले ग़ुब्बारों, कैमरों, और दुनिया के सबसे बेहतरीन ख़ुफ़िया तंत्र की निगरानी के बीच यह कैसे हो गया…इज़राइल के पास बढ़िया दिमाग़ है और आधुनिक टेक्नोलॉजी है। इस व्यवस्था को कुछ हज़ार लड़ाकों की आतंकी संस्था के सामने विफल नहीं होना चाहिए था”। इज़राइल के पास सीमा पर लगा बहुत सोफ़िस्टिकेटेड अलार्म सिस्टम है जिसकी कथित सफलता के बल पर इज़राइल इसे दूसरी सरकारों को बेचता रहा है। इनमें भारत भी शामिल है। कई जगह ड्रोन से बम गिरा कर जिसे इज़राइल का ‘आयरन डोम’ अर्थात् लौह कवच कहा जाता है, को बेअसर कर दिया गया। इज़राइल और ग़ाज़ा पट्टी के बीच सीमा मात्र 60 किलोमीटर लम्बी है जिस पर इलेक्ट्रॉनिक इंटरसेप्शन सिस्टम लगा हुआ है। यह ग़ाज़ा के अन्दर गतिविधियों तथा घुसपैंठ पर नज़र रखता है। पर जैसे न्यूयार्क टाइम्स ने भी लिखा है, “इस बार हज़ारों राकेट व मिसाइल ग़ाज़ा पट्टी से दागे गए पर इज़राइल इन्हें रोक नहीं सका। यह कैसे हुआ, इसका जवाब अभी किसी के पास नहीं है”।
अपनी घोर विफलता छिपाने और बदला लेने के लिए इज़राइल ने ग़ाज़ा पट्टी पर भयंकर हमला बोल दिया है। शायद उनके पास और विकल्प नहीं था। इज़राइल का चरित्र भी ऐसा है कि वह ईंट का जवाब पत्थर से देते हैं। पर उनका अपना इतिहास गवाह है कि इस नीति से उन्हें भी चैन नहीं है। ग़ाज़ा पर 2009 में 15 दिन और 2014 में 19 हमला किया गया था। अगर वह सफल रहता तो अब यह हालत न बनती। ग़ाज़ा पर अब ज़बरदस्त हमला किया गया और कई क्षेत्रों पर ऐसी बमबारी की गई कि वह मलबे में तब्दील हो गए है। हज़ारों मारे गए। पत्रकार रूशदी अबू अलौफ ने इज़राइल की बमबारी के बाद ग़ाज़ा की हालत के बारे बताया है, “ मैंने चक्कर लगाया और ऐसा लगा कि जैसे भूचाल आगया हो। इतनी तबाही थी कि मैं कई इमारतों को पहचान नहीं पाई”। ग़ाज़ा पट्टी का भूगोल समझना ज़रूरी है। यह इजरायल और मिस्त्र के बीच 365 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र है जिसके पश्चिम में भूमध्यसागर है। यहाँ खचाखच 23 लाख लोग रहते हैं जो पृथ्वी पर सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। वहाँ बिजली -पानी -राशन- मेडिकल सहायता सब बंद है। इज़राइल ने इसकी सीमाएँ सील कर दी है और अंतरराष्ट्रीय सहायता पर निर्भर चारों तरफ़ से बंद यह लोग खाने पीने को मोहताज हैं। अस्पतालों में दवाईयां नहीं है। बदला लेने पर उतारू इज़राइल कोई छूट देने को तैयार नही। बदला हमास से लेना है पर सजा आम फ़िलिस्तीनी को दी जा रही है जिस पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेज का भी कहना है कि ‘युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं’।
हमास के लोगों की तलाश में इज़राइल ने 11 लाख लोगों को उत्तरी ग़ाज़ा से निकल कर दक्षिण गाजा जाने का निर्देश दिया है नहीं तो बमबारी सहनी पड़ेगी। पर सवाल है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग घर बार छोड़ कर जाएँगे कहाँ? जहां जाने को कहा जा रहा है वहाँ न पानी है न रहने की जगह। न रोज़ी रोटी का प्रबंध है। पूरी तरह से नाकाबंदी है। लाखों लोगों की जान संकट में है। आतंकवादियों की नृशंसता का जवाब राज्य की क्रूरता नहीं होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र ने भी कहा है कि जो इज़राइल कर रहा है वह अस्वीकार है पर इज़राइल का जवाब है कि हमें नसीहत देने की ज़रूरत नहीं, हम जानते है कि हमने करना क्या है। इज़राइल के इस हठी रवैये पर हैरानी नहीं क्योंकि वह अपने ख़िलाफ़ और फ़िलिस्तीन के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र के सैंकड़ों प्रस्तावों को रद्दी की टोकरी मे डाल चुकें है। इज़राइल का इतिहास भी गवाह है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया के बारे वह अधिक चिन्ता नही करते। पर उनके दमन की नीति के कारण विश्व राय बदल रही है और इस बात की सम्भावना बन रही है कि सारे मध्य पूर्व में विस्फोट हो जाए। जो अरब देश इज़राइल के साथ सम्बंध सामान्य करना चाहते थे वह भी अपने नागरिकों की तीखी प्रतिक्रिया देखते हुए कदम पीछे हटा रहे हैं। साऊदी अरब विशेष तौर पर पीछे हट गया है। हमास के हमले का एक मक़सद यह भी था।
1948 में ब्रिटेन और फ़्रांस ने ज़बरदस्ती यहूदियों को फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर बसा दिया था। उनकी ज़मीन छीनी गई, घर उजाड़े गए और बाहर से लाकर यहूदियों को वहाँ बसा दिया गया। जितना फ़िलिस्तीन 1984 में था उसका चप्पा अब रह गया है और वह भी चारों तरफ़ से घिरा हुआ है। इज़राइल अपनी ताक़त के बल पर फैलता गया और फ़िलिस्तीन के घर और गाँव उजड़ते गए। पश्चिम के देशों के अंधे समर्थन के बल पर फ़िलिस्तीन को एक प्रकार से दुनिया के सबसे बड़े और सबसे कठोर ओपन-एयर जेल में परिवर्तित कर दिया गया जहां केवल हवा ही खुली है बाक़ी सब के लिए इज़राइल की अनुमति लेनी पड़ती है। आतंकवाद का कोई औचित्य नहीं पर लोगो को अपने घरों से बेघर करने का भी कोई औचित्य नहीं। फ़िलिस्तीनियों को बेघर कर वहाँ ज़बरदस्ती यहूदी ‘किबुट्स’ अर्थात् आबादी बसा दी गई। इनमें से एक ऐसे ‘ किबुट्स’ पर 7 अक्तूबर को हमास ने हमला कर दिया। यह वह कुचक्र है जिसे कोई रोक नहीं सका। अगर अब इज़राइल ग़ाज़ा पर ज़मीनी हमला करता है, जिसकी प्रबल सम्भावना है, तो वह लम्बी और खूनी लड़ाई में उलझ सकता है। ग़ाज़ा के नीचे हमास का सुरंगों का जाल है जो लगभग 500 किलोमीटर लम्बा बताया जाता है। यह दिल्ली मैट्रो से भी लम्बा है। इससे निकल कर वह इज़राइल सैनिकों पर हमले करते रहेंगे।
इज़राइल की विस्तारवादी नीति के कारण दशकों से वहाँ चैन नही है। वह अब भी अपने दुश्मन को तबाह कर देंगे पर क्या इससे इज़राइल चैन से रहेगा? इनकी नीति और अधिक असंतुष्ट पैदा करेगी जो इज़राइल को परेशान करते रहेंगे। ईरान ने कह ही दिया है कि ग़ाज़ा का दमन रोक दो नहीं तो ‘हमारा हाथ भी बंदूक़ के ट्रिगर पर है’। ईरान समर्थक हिज़बुल्ला और इज़राइल के बीच अभी से गोलीबारी हो रही है।
ऐसी हालत क्यों बन गई है कि 75 वर्षों में केवल एक राज्य, इज़राइल, ही उभर सका है? कैनेडा के लेखक डा. गैबर मेटस जिनकी किताबें 30 भाषाओं में छप चुकीं हैं, ने लिखा है, “ इज़राइल के अपने यहूदी इतिहासकारों ने बताया है कि फ़िलिस्तीनियों को अपनी ज़मीन से निकालने की कार्रवाई निरंतर, व्यापक, घातक, और जानबूझकर कर की गई”। फ़िलिस्तीनियों की कई पीढ़ियाँ अपने ही देश में रिफयूजी की तरह जीने के लिए मजबूर क्यों हैं? इज़राइल के पास अपनी रक्षा का अधिकार है पर यह फ़िलिस्तीनियों को बेघर करने और उनके उत्पीड़न के बल पर क्यों हो? अस्तित्व का अधिकार दोनों इज़राइल और फ़िलस्तीनियों को मिलना चाहिए। इज़राइलियो को भी खुद से पूछना चाहिए कि क्या 1984 के बाद से उनकी सरकारों की नीतियों ने उन्हें सुरक्षित बनाया है? अगर वह वास्तव में सुरक्षित होते तो यह संकट पैदा न होता। हमास को सजा मिलनी चाहिए, फ़िलिस्तीनियों को नही। वर्तमान खूनी चक्र से तो कोई विजेता नहीं निकलेगा। इज़राइल के ग़ाज़ा पर प्रहार से फ़िलिस्तीन प्रतिरोध ख़त्म नहीं होगा, और हमास और उसके हिज़बुल्ला जैसे आतंकी साथी इज़राइल को उखाड़ नहीं सकेंगे। जो आज हम देख रहें हैं वह आगे चल कर फिर दोहराया जाएगा। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एकमात्र समाधान है। दोनों क़ौमों को शान्ति से रहना चाहिए नहीं तो यह खूनी सिलसिला चलता जाएगा। ग़ाज़ा के अस्पताल पर बम गिरने से लोगों के मारे जाने की घटना इस बात की दर्दनाक पुष्टि करती है। इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि बम बाएँ से आया है या दाऐं से, मारे तो 500 बेक़सूर हैं।