खड़गपुर आईआईटी में एक और छात्र नें फंदा लगा कर आत्महत्या कर ली है। 21 वर्षीय तेलंगाना निवासी किरण चन्द्रा जो इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के चौथे साल का छात्र था, का शव होस्टल के कमरे में लटका पाया गया। इसी वर्ष जून में तमिलनाडु से एक छात्र की वहां अप्राकृतिक मौत हो गई थी। हाल ही में राजस्थान में डूंगरपुर में एक छात्रा ने होस्टल की छत से कूद कर आत्महत्या कर ली। पंजाब यूनिवर्सिटी के एक छात्र ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि वह एंट्रेंस एग्ज़ाम क्लीयर नहीं कर सका। पिछले महीने राजस्थान के कोटा में मेडिकल की ‘नीट’ परीक्षा की तैयारी कर रहे एक 20 वर्षीय छात्र उत्तर प्रदेश के मुहम्मद तनवीर ने अपने कमरे में फंदा लगा कर आत्महत्या कर ली। वैसे तो सारी दुनिया में छात्र/छात्राओं द्वारा आत्महत्या के मामलों में वृद्धि हुई है पर हमारे देश में तो यह प्रवृत्ति डरावनी बनती जा रही है। जब हम पढ़ते थे तब भी पढ़ाई का तनाव था। हम भी स्कूल, कालेज, होस्टल सब से गुजरे हैं। खटी मीठी सब यादें हैं पर ऐसा कोई क़िस्सा याद नहीं कि किसी ने आत्महत्या की हो। कई फेल हुए, घर जाकर मां-बाप की डाँट खाई होगी पर किसी ने आत्महत्या के बारे नहीं सोचा। आज कल यह इतना क्यों हो रहा है? यह पीढ़ी अत्यधिक तनावग्रस्त क्यों है? क्या इसका कोई इलाज भी है या हम ऐसी दर्दनाक घटनाओं के बारे सुनते जाएँगे?
आँकड़े चौंकाने वाले हैं;
*पिछले एक दशक में स्टूडेंट्स द्वारा आत्महत्या के मामलों में 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत की आत्महत्या की दर दुनिया में अधिकतम में से एक है।
*इस देश में रोज़ाना 35 स्टूडेंट्स आत्महत्या करते हैं।
*98 स्टूडेंट्स ने पिछले 5 वर्षों में देश के प्रतिष्ठित संस्थानों जिनमें सेंट्रल यूनिवर्सिटी , आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी,आईआईएसईआर शामिल हैं, में आत्म हत्या की है। इस साल ही ऐसे 20 मामले हैं।
*कोटा के कोचिंग सेंटर में इस साल 27 स्टूडेंट्स ने आत्महत्या की है।
* नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2021 में 13089 स्टूडेंट्स ने आत्महत्या की थी।
आईआईटी खड़गपुर के छात्र किरण चन्द्रा के शोकाकुल पिता ने सवाल किया है कि बच्चों की ज़िन्दगी में इतना तनाव और दबाव क्यों है? इस संदर्भ में बार बार अंग्रेज़ी के शब्द stress का इस्तेमाल किया जाता है। हमारे प्रीमियर इन्स्टीट्यूशनों में पहले प्रवेश के लिए और बाद में सफल होने के लिए इतना दबाव क्यों है? जो बच्चे इस दबाव का सामना नही कर सकते वह कई बार टूट जाते हैं और समझते हैं कि इस तनाव से मुक्ति के लिए आत्महत्या आसान रास्ता है। बच्चा जानता है कि उसकी पढ़ाई के लिए मां बाप ने बड़ी क़ुर्बानी की है। जब वह उनकी महत्वकांक्षा पर खरा नहीं उतरता तो खुद को दोषी समझने लगता है। उस समाज में जहां अच्छी नौकरी के रास्ते सीमित है संघर्ष स्वभाविक बन जाता है। यही कारण है कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, बिसनेस मैनेजमेंट, कम्प्यूटर साइंस जैसे विषयों के लिए यूनिवर्सिटी और कालेज में प्रवेश के लिए मारधाड़ लगी रहती है। इस साल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए 300000 आवेदन आए थे पर सभी कालेज को मिला कर केवल 71000 सीटें ही हैं। परिणाम यह है कि अच्छे कालेजों में केवल उन्हें प्रवेश मिलता है जो 95 प्रतिशत से अधिक नम्बर लेकर आते है। 95%+%? हमारे जमाने में तो ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इतने नम्बर भी होतें है !
प्रतिस्पर्धा का वातावरण बुरा नहीं है। संघर्ष करना आना चाहिए इससे इंसान को अपनी क्षमता पता चलती है पर हम तो इसे किसी और स्तर पर ले गए है। इसकी एक मिसाल कोटा के कोचिंग सैंटर हैं जिन्हें कोटा फ़ैक्ट्री भी कहा जाता है। ‘फ़ैक्ट्री’ कहा जाना ही बताता है कि वहाँ छात्र छात्राओं को बच्चों की तरह नहीं बल्कि कारख़ाने के उपकरण की तरह समझा जाता है। कोटा के 300 कोचिंग सैंटर 5000 करोड़ रूपए की इंडस्ट्री बताई जाती है। इसे ‘इंडस्ट्री’ कहना भी बताता है कि यहाँ बच्चों को पढ़ाया जरूर जाता है पर कोई मानवीय दृष्टिकोण नहीं है। कोई अपनापन नहीं है। यह एक बड़ा धंधा बन चुका है। यहाँ हर साल 2.5 लाख बच्चे पढ़ने के लिए आते है। कई सौ होस्टल और पी.जी. कमरें हैं। एक एक क्लास में 200-250 स्टूडेंट्स पढ़ते है इसलिए अध्यापक का बच्चों के साथ कोई भावनात्मक सम्बंध नहीं बनता। वह देख नहीं पाते कि मानसिक तौर पर बच्चा परेशान है। कोटा की ज़िला मेडिकल टीम द्वारा 223 होस्टलों में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार 83 छात्र ऐसे थे जो बुरी तरह से दुखी थे। ऐसे छात्र अंतिम कदम उठा सकते है। इन्हें सम्भालने वाला भी कोई नहीं है। कोचिंग सैंटर को दिलचस्पी नहीं, न उनके पास टाईम ही है। कई बार मां बाप भी पूरा सम्पर्क नहीं रखते। वह समझते हैं कि हमने पैसे खर्च कर बच्चे को महँगी जगह दाखिल करवा दिया है पर वह यह जानने की कोशिश नहीं करते कि बच्चे की मानसिक स्थिति क्या है? वह कैसी हालत से गुजर रहा है? और सब से महत्वपूर्ण कि क्या सफल होने की उसमें क्षमता भी है? हर बच्चा डाक्टर, या इंजीनियर या सी.ए. नहीं बन सकता है जो बात अति महत्वकांक्षी अभिभावक समझ नहीं पाते जिसके कई बार बुरे नतीजे निकलते हैं।
स्कूल से निकल कर कालेज में प्रवेश करना महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है। अगर होस्टल में रहना पड़े तो कईयों को समस्या आती है। पहली बार परिवार और दोस्तों के सम्पर्क से वह वंचित होते हैं। घर का खाना नहीं मिलता। अकेलापन दुखी करता है। समाज में अकेलापन इतना बढ़ गया है कि इंग्लैंड के बाद जापान ने भी इससे निपटने के लिए ‘मिनिस्ट्री ऑफ लोनलीनैस’ अर्थात् ‘अकेलापन का मंत्रालय’ शुरू कर दिया है। हमारे यहाँ इस गम्भीर समाजिक समस्या की तरफ़ अभी गौर नहीं किया जा रहा पर जैसे जैसे संयुक्त परिवार टूट रहें है अकेलापन बढ़ रहा है। जहां छात्रों को घर से निकल कर अधिक आज़ादी मिलती है वहाँ नई नई चुनौतियाँ भी खड़ी हो जाती हैं। शैक्षणिक दबाव बढ़ता है। नए माहौल के अनुसार खुद को ढालना पड़ता है। कई तो शराब और ड्रग्स का प्रयोग शुरू कर देते हैं जिससे मूड में बदलाव और आत्महत्या की सम्भावना बढ़ जाती है। हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार कालेज जाने वाले स्टूडेंट्स में 16 प्रतिशत में डिप्रेशन अर्थात् उदासी और निराशा पाई गई। जिन्होंने आत्महत्या की उनमें से 90 प्रतिशत मानसिक परेशानी से पीड़ित थे।
युवाओं के लिए बड़ी चुनौती रोज़गार है जिसकी देश में बहुत कमी है। हर वक़्त चिन्ता रहती है कि पढ़ लिख जाऐंगे फिर भी नौकरी मिलेगी या नहीं? यह हिम्मत भी नहीं होती कि पेरंटस को बता सके कि वह पढ़ाई का सामना करने में समस्या महसूस कर रहें हैं। कोटा जैसी जगह तो माहौल दमघोटू, प्रतिस्पर्धी और सहानुभूति रहित है। मनोवैज्ञानिक बतातें हैं कि “ कठोर पाठ्यक्रम, निर्मम प्रतियोगिता और माँ बाप तथा समाज की अवास्तविक उम्मीदे” बच्चों को अंदर से तबाह कर देती हैं। हमारा समाज सफलता का जश्न खूब मनाता है। अख़बारों में मिठाई खाते तस्वीरें छपती है। कोटा भी अपने चंद टॉप्परस के बल पर लाखों को आकर्षित करता है, पर जो रह जाते हैं? या जिन्हें नौकरी नहीं मिलती? वह खुद को हीन, कमजोर और बेबस समझने लगते हैं। उनमें से कुछ खुद को नुक़सान पहुँचाने का आसान रास्ता चुन लेते हैं। जिन्होंने अभी पूरी तरह ज़िन्दगी का मतलब नही समझा वह मौत का रास्ता अपना लेते हैं।
अब तो नई समस्या खड़ी हो गई है कि स्कूल के बाद ही बच्चों को विदेश भेजा जा रहा है। इस कच्ची उम्र में उन्हें पढ़ाई, खर्चा, रहन सहन, अकेलापन और नौकरी सबका बोझ सम्भालना पड़ता है। कई माँ बाप चाहते हैं कि वह जल्द कमाना शुरू करें और घर पैसे भेजें जो हर किसी के लिए सम्भव नहीं। विदेशों, विशेष तौर पर कैनेडा, से जो समाचार मिल रहें है वह बहुत चिन्ताजनक है। अपना खर्चा चलाने के लिए कई छात्र छात्राओं को वह समझौते करने पड़ रहे हैं जो उनके माँ बाप यहाँ कभी इजाज़त न देते। सवाल यह भी है कि लाखों की संख्या में हमारे बच्चे बाहर जाने को मजबूर क्यों हैं? अरबों रुपए और लाखों प्रतिभाऐं दूसरों के काम आ रही है। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना है और अधिक उच्च शिक्षा संस्थान खोलने है। यह खोले भी जा रहे हैं, पर पर्याप्त नहीं है। पाठ्यक्रम में बदलाव कर उन विषयों पर ज़ोर देना चाहिए जो रोज़गार देते है। सरकार स्किल डेवलपमेंट पर ज़ोर दे तो रही है पर अंग्रेज यह मानसिकता भर गए हैं कि कुर्सी मेज़ वाला काम सबसे बेहतर है। हाथ के काम को प्राथमिकता नहीं दी जाती। शिक्षा व्यवस्था को नरम और सहानुभूतिशील बनाने के भी ज़रूरत है। अगर बच्चों को सही शिक्षा दी जाए तो कोटा जैसी शिक्षा -फ़ैक्टरी या ट्यूशन की ज़रूरत ही क्यों पड़े?
लेकिन सबसे बड़ी ज़रूरत परिवार की मानसिकता बदलने की है। हम अपनी अरमानों का बोझ अपने बच्चों पर लाद देते हैं यह देखे बिना कि वह सम्भाल सकते है या नहीं? कई इस बोझ के नीचे कुचले जातें हैं। कई माँ बाप अपने अधूरे सपने अपने बच्चों के द्वारा पूरा करने की कोशिश करते हैं पर हर बच्चा आईएएस या डाक्टर या इंजीनियर या वकील या सीए नहीं बन सकता। न ही हर बच्चा विदेश में सफल हो सकता है। विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि रोज़ाना बैठ कर बच्चों से संवाद करना चाहिए ताकि पता चल सके कि वह क्या सोचतें है। बच्चे को फ़ैमिली सुपोर्ट हर वकत हर परिस्थिति में मिलनी चाहिए। जब बच्चों को बिना सहारा अंजान वातावरण में छोड़ दिया जाता है तो वह कई बार ग़लत कदम उठा लेते हैं।