7 नवम्बर को शुरू हो रहे पाँच विधानसभाओं, मध्यप्रदेश-राजस्थान-छत्तीसगढ़-तेलंगाना-मिज़ोरम, के चुनावों में असमान्य दिलचस्पी है। इसके तीन कारण है- एक, लोकसभा चुनावों से पहले यह अंतिम चुनाव होंगे। इनसे कुछ पता चलेगा कि वोटर क्या सोच रहा है? दो, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बड़ी भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर है चाहे आप, सपा और ओवैसी साहिब भी टांग अड़ाने की कोशिश कर रहें है। पर वह हाशिए पर ही रहेंगे। हिन्दी बैल्ट के यह चुनाव बताऐंगे कि यह दोनों पार्टियां कितने पानी में है? तीन, तेलंगाना का चुनाव बताएगा कि पड़ोसी कर्नाटक के चुनाव का कुछ असर हुआ है या नहीं? वहाँ चुनाव तिकोना है और केसीआर की बी.आर.एस. भी बड़ी खिलाड़ी है। के. चन्द्र शेखर राव की तो राष्ट्रीय महत्वकांक्षा भी है पर इसमें उनके सिवाय किसी और को दिलचस्पी नहीं लगती। मिज़ोरम का परिणाम राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित नहीं करेगा, उस में दिलचस्पी इतनी है कि मणिपुर की घटनाओं का वहाँ असर पड़ता है या नहीं?
मिज़ोरम को छोड़ कर चार प्रदेशों की सरकारें अपनी पीठ थपथपाने वाले बड़े बड़े विज्ञापन प्रकाशित और प्रसारित कर रहीं हैं। यह रुझान आप ने शुरू किया था पर अब सब सरकारें करोड़ों रूपए खर्च कर रही है। इससे मीडिया का तो भला हो रहा है पर क्या वास्तव में जनता मुस्कुराते नेताओं का मुखड़ा देख कर गदगद हो रही हैं या पूरे न हुए वादों को लेकर गालियाँ निकाल रही हैं? सब सरकारें फ़्रीबीज जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने ‘रेवड़ी’ कहा था, बाँटने में व्यस्त है जिनमें उनकी अपनी पार्टी की सरकारें भी शामिल हैं। ‘मामाजी’ के नाम से प्रसिद्ध मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ‘लाडली बहनों’ को खुश करने में लगे हुए हैं। उनके लिए चुनौती सबसे ज़्यादा है क्योंकि संक्षिप्त समय को छोड़ कर वह 18 साल से मुख्यमंत्री है और उनके ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी रुझान नज़र आ रहा है। कांग्रेस के प्रति सहानुभूति भी है कि उनकी सरकार दलबदल से गिरा दी गई थी। शायद यही कारण है कि भाजपा ने चुनाव लड़ने के लिए वहाँ दिल्ली से बड़ी बड़ी तोपें उतार दी हैं। इनमें तीन केन्द्रीय मंत्री, चार सासंद और एक महासचिव हैं। यह सभी अपनी पदावनति से दुखी लगते है। कैलाश विजयवर्गीय तो खुलेआम कह चुकें हैं कि “चुनाव लड़ने में मुझे एक प्रतिशत दिलचस्पी नहीं है”। उनका यह भी कहना है कि “हम बड़े नेता हो गए हैं। क्या मैं अब हाथ जोड़ कर वोट माँगूँगा?” अगर भाजपा यह चुनाव जीत भी जाती है तो निश्चित तौर पर ऐसे नेता मामाजी के लिए चुनौती होंगे। शायद यही केन्द्रीय नेतृत्व भी चाहता है।
छत्तीसगढ़ के बारे समझा जाता है कि मुख्यमंत्री भूपेन्द्र बघेल की लोकप्रियता क़ायम है और सत्ता विरोधी रुझान उन्हें परेशान नहीं कर रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी योजनाएँ सफल और लोकप्रिय रहीं हैं। भाजपा के पास उनके सामने क़द्दावर नेता नहीं है। रमन सिंह जिनके नेतृत्व में पार्टी पिछला चुनाव हार गई थी की वह लोकप्रियता नहीं है इसीलिए गृहमंत्री अमित शाह वहाँ घोषणा कर चुकें हैं कि “छत्तीसगढ़ में हर वोट मोदी के नाम पर पड़ना चाहिए”। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में कांग्रेस अच्छी स्थिति में लगती है। कांग्रेस को असली चुनौती राजस्थान से है जहां अशोक गहलोत की सरकार को न केवल सत्ता विरोधी रुझान से बल्कि गहलोत और सचिन पायलट के बीच गृहयुद्ध के दुष्प्रभाव से भी निपटना है चाहे अब पायलट सहयोग देते नज़र आ रहें है। यहाँ कुछ देर हिचकिचाने के बाद भाजपा नेतृत्व ने भी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को खुश करने का प्रयास किया है और दूसरी लिस्ट में उनके समर्थकों को जगह दी गई है। समझ लिया गया है कि ज़ख़्मी महारानी बहुत नुक़सान कर सकतीं हैं। लेकिन उनके भविष्य के बारे अटकलें लगती रहेगी क्योंकि यह तो साफ़ है कि वह हाई कमान की प्रिय नहीं है। पार्टी के पोस्टरों से वह ग़ायब हैं।
कांग्रेस ने सब कुछ अशोक गहलोत के भरोसे छोड़ दिया है और आशा है कि लोकलुभावनी योजनाओं और जातीय समीकरण से वह बेड़ा पार लगाने में सफल रहेंगे पर राजस्थान का चुनावी इतिहास इस आशा पर पानी फेरता है क्योंकि पिछले तीन दशक से हर चुनाव में लोगों ने नया जनादेश दिया है। तेलंगाना का तिकोना मुक़ाबला ज़बरदस्त होगा। खुद को राष्ट्रीय नेता बनाने के प्रयास में मुख्यमंत्री केसीआर ने अपनी पार्टी का नाम बदल कर भारतीय राष्ट्रीय समिति रख दिया है। वह न एनडीए में हैं न इंडिया में, पर देश हासिल करते करते वह अपने प्रदेश को ही खोने की स्थिति में हैं। भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोपो के कारण उन्हें विरोध की लहर का सामना करना पड़ रहा है जिससे कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए मौक़ा है। कांग्रेस ने तेलंगाना बनवाया था पर फल दूसरे ले भागे पर इस बार वह गम्भीर दावेदार है।
भाजपा पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व और आकर्षण पर निर्भर है पर यहाँ भी दिलचस्प बदलाव नज़र आ रहा है। पहले कहा जाता रहा कि नरेन्द्र मोदी के नाम पर वोट दो। प्रधानमंत्री मोदी खुद भी कहते रहे कि मुझ पर भरोसा रखो पर अब प्रधानमंत्री ने चुनाव सभाओं में कमल के नाम पर वोट माँगने शुरू किए हैं। जो व्यक्ति आधारित राजनीति थी उसे पार्टी आधारित बनाया जा रहा है। क्या नेतृत्व समझ गया कि प्रदेश चुनावों में प्रदर्शन अच्छा नहीं रहेगा इसलिए नरेन्द्र मोदी एक कदम पीछे ले रहे हैं ताकि इन परिणामों का उनकी छवि पर असर न पड़े? भाजपा में ज़रूरत से अधिक केन्द्रीयकरण है। प्रदेशों में किसी भी नेता को चेहरा नहीं बनाया गया। इससे लोकसभा चुनाव में तो फ़ायदा रहता है पर प्रदेशों में पार्टी कमजोर हो रही है क्योंकि स्थानीय नेतृत्व नहीं उभर रहा। हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, बंगाल,मध्यप्रदेश सब जगह पार्टी पिट गई थी जबकि लोकसभा में भाजपा स्पष्ट विजेता रही थी और रहने की संभावना भी है, सतपाल मलिक कुछ भी कहें। केन्द्रीयकरण का यह भी नुक़सान होता है कि दूसरी पार्टियाँ नहीं जुड़तीं। जदयू और अन्नाद्रुमुक जैसी पार्टियाँ एनडीए को छोड़ चुकीं है। न ही भाजपा के पास बालाकोट जैसा कोई मुद्दा है जिससे देश भर में लहर खड़ी की जा सके। उल्टा महंगाई और बेरोज़गारी जैसे मसले तंग कर रहें है।
विपक्ष के गठबंधन इंडिया में भी हालत संतोषजनक नहीं है। विधानसभा चुनाव को लेकर विरोधाभास उभर रहे है। कांग्रेस इन चुनावों नें किसी गठबंधन साथी के लिए जगह छोड़ने को तैयार नहीं। उनका कहना है कि यह गठबंधन 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए है न कि इन विधानसभा चुनाव के लिए। कांग्रेस इन्हें भाजपा के साथ सीधी टक्कर बनाना चाहती है। मध्यप्रदेश को लेकर कमलनाथ और अखिलेश यादव के बीच अशोभनीय तू तू मैं मैं हो चुकी है। कांग्रेस समझती है कि इन चुनावों में उनकी सम्भावना अच्छी है इसलिए किसी और सहयोगी को एक ईंच जगह देने को तैयार नही। गठबंधन के दूसरे साथी समझते हैं कि अगर कांग्रेस विजयी हो कर उभरती है तो नेतृत्व पर उसका दावा और मज़बूत हो जाएगा। लोकसभा चुनाव में सीटों के बँटवारे को लेकर भी उसका अपर हैंड रहेगा। नीतीश कुमार या शरद पवार का इंडिया का कनवीनर बनने का मौक़ा बिलकुल ख़त्म हो जाएगा। यही कारण है कि नीतीश कुमार कभी कभार भाजपा से दोस्ती की बात दोहरा देते है। शरद पवार का कहना है कि प्रदेश स्तर के विवादों का लोकसभा चुनावों पर असर नहीं पड़ेगा पर यह भी हक़ीक़त है कि सीटों के बँटवारे को लेकर जो कड़वाहट पैदा हुई है उस कारण नागपुर की बड़ी रैली फ़िलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।
इस बीच कांग्रेस जातीय जनगणना को लेकर बहुत उत्साहित हैं। राहुल गांधी समझते हैं कि उनके पैर के नीचे बटेर आगया है और इस जनगणना के बल पर ओबीसी वोटर उनकी तरफ़ आकर्षित हो जाएगा और वह भाजपा के हिन्दुत्व का मुक़ाबला कर सकेंगे। उनका तर्क है कि ‘जितनी आबादी उतना हक़’। यह अत्यंत घातक अव्यवहारिक सिद्धांत है और इसमें समाज को और बाँटने की क्षमता है। मारधाड़ उन नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में सीटों को लेकर होगी जो है ही नहीं। अगर सब कुछ जाति है तो बिहार इतना बैकवर्ड क्यों है जबकि पिछले 30 वर्षों से वहाँ उन लोगों का राज रहा है जिन्हें ओबीसी कहा जाता है ? प्रधानमंत्री मोदी की बात सही है कि सबसे बड़ी जाति गरीब है और उनका सबसे बड़ा हक़ बनता है। अफ़सोस है कि इस मामले में राहुल गांधी बहक गए हैं और जवाहरलाल नेहरु की नीति के विपरीत चल रहे हैं जो जाति राजनीति में विश्वास नहीं रखते थे। और अगर हक़ आबादी के अनुसार ही मिलना है, तो गांधी परिवार के कांग्रेस के नेतृत्व पर भी सवाल उठ सकते हैं।
इन चुनावों को फ़ाईनल से पहले ‘सैमी फाईनल’ नही कहा जा सकता है। वोटर बार बार यह प्रदर्शित कर चुकें हैं कि वह नई दिल्ली में किसे चाहते हैं और प्रदेश में किसे चाहते के बारे उनकी अलग अलग पसंद हो सकती है। जो मध्यप्रदेश या राजस्थान या छत्तीसगढ़ में होगा उसका निश्चित असर होगा पर 2018 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव बतातें हैं कि ज़रूरी नहीं कि वहाँ जो हुआ वही केन्द्र में भी दोहराया जाए। 2018 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी पर 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल एक सीट मिली थी और भाजपा को 28। राजस्थान में कांग्रेस को 100 सीटें और भाजपा को 73 मिली थीं पर लोकसभा की एक भी सीट कांग्रेस को नहीं मिली थी जबकि भाजपा और सहयोगी दल सभी 25 सीटें जीत गए थे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस 68 और भाजपा 15 सीटें जीत पाई थी पर अगले साल 2019 में भाजपा को 11 सीटें और कांग्रेस को 2 सीटें ही मिली थीं। वैसे तो राजनीति के बारे कुछ भी भविष्यवाणी करना ख़तरे से ख़ाली नहीं पर अतीत दोनों नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी को सावधान करता है कि यह सम्भव है कि लोग जिसे प्रदेश की सत्ता सौंपने के लिए तैयार हो उसे केन्द्र से दूर रखें और जिसे केन्द्र की सत्ता दें उसे पहले प्रदेश में रद्द कर चुकें हो। यह चुनाव यह संदेश दोहरा सकतें हैं। हमारी राजनीति भी संघीय है और पूरे देश में एक जैसी राजनीतिक व्यवस्था कांग्रेस के पतन के साथ ख़त्म हो चुकी है।