पाकिस्तान की सेना के आशीर्वाद से पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ निर्वासन से लौट आए है। छ: साल पहले इसी सेना ने इनका बोरिया बिस्तर गोल कर देश निकाला दे दिया था। अगर साऊदी अरब के शेख़ दखल न देते तो नवाज़ शरीफ़ का हश्र भी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो या बेनजीर भुट्टो जैसा हो सकता था। वह तीन बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री निर्वाचित हो चुके है और हर बार अवधि पूरी होने से पहले किसी न किसी बहाने उन्हें हटा दिया गया। अब सौदेबाज़ी के बाद वह वापस लौट आए है और उनके ख़िलाफ़ सारे अदालती मामले रास्ते से हट रहें हैं। जिसे पाकिस्तान का सुरक्षा प्रतिष्ठान कहा जाता है अर्थात् सेना के जरनैल, नवाज़ शरीफ़ की वापिसी चाहते हैं क्योंकि वह अपदस्थ इमरान खान का विकल्प बन सकते है। अगर इमरान खान जो जेल में बंद होने के बावजूद अत्यंत लोकप्रिय है, का कोई मुक़ाबला कर सकता है तो यह नवाज़ शरीफ़ ही हैं। इसलिए नवाज़ शरीफ़ पाकिस्तान की शक्तिशाली व्यवस्था के लिए मजबूरी बन गए हैं। उनकी अपनी मजबूरी है कि उन्हें स्वदेश लौटना था। अगर खुद लौटते तो जेल जाते अब फिर प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल सकता है। इसीलिए उन्हें व्यवस्था के साथ समझौता करना पड़ा।
पाकिस्तान में 8 फ़रवरी को चुनाव है और जैसे अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी, ने लिखा है, “ नवाज शरीफ़ की वापिसी और जिस तरह उनके ख़िलाफ़ आपराधिक मामलों को फ़ास्ट ट्रैक से वापिस किया जा रहा है यह व्यवस्था की इस योजना का परिणाम है कि ऐसे चुनाव करवाए जाएँ जो इमरान खान जीत न सकें”। पाकिस्तान का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश पंजाब है जहां से पाकिस्तान की सेना के अधिकतर जवान भी आतें हैं। जब नवाज़ शरीफ़ प्रधानमंत्री थे तो वह पंजाब को अपने भाई शहबाज़ शरीफ़ की मार्फ़त चलाते थे। उनकी पार्टी मुस्लिम लीग (नवाज़) वहाँ सबसे बड़ी पार्टी थी। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। पंजाब में इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ़ की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है जो सेना प्रमुख जनरल आसिफ़ मुनीर को स्वीकार नहीं। उनका और इमरान खान का छतीस का आँकड़ा है। वह किसी भी हालत में इमरान खान को फिर सत्तारूढ़ होते नहीं देखना चाहते। एकाधिक मामलों में इमरान खान जेल में है जहां एक बार तो उन्होंने शिकायत की थी कि मुर्ग़ा नहीं मिलता! यह माँग तो शायद मान ली गई है पर सम्भावना नहीं कि इमरान को चुनाव लड़ने या प्रचार करने की इजाज़त दी जाएगी। देश, जो बहुत संकट से गुजर रहा है को सम्भालने के लिए अनुभवी हाथ चाहिए। यहाँ नवाज़ शरीफ़ काम आएँगे।
पाकिस्तान की सेना ने कभी उस प्रधानमंत्री को बर्दाश्त नहीं किया जो सेना के आंतरिक मामलों में दखल दे या जो भारत और अमेरिका के साथ अपना अलग सम्बंध बनाने की कोशिश करे। इमरान खान ने सेना के आंतरिक राजनीति में दखल दिया था जबकि नवाज शरीफ़ आज़ाद तरीक़े से भारत के साथ सम्बंध सामान्य करने की बार बार कोशिश करते रहे। जिस भी प्रधानमंत्री नें वहाँ अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए आज़ाद नीति अपनाने की कोशिश की, उसे सेना की उच्च व्यवस्था के कोप का सामना करना पड़ा। सवाल यह है कि क्या अब नवाज शरीफ़ अगर वह फिर प्रधानमंत्री बनते हैं, सेना के आगे गुड बॉय बन कर चलेंगे और सुरक्षा तथा भारत सम्बंधी मामलों पर सेना का वीटो स्वीकार करेंगे ? अतीत में वह कश्मीर के बारे सख़्त रवैया अपनाते हुए भी भारत के साथ आर्थिक संबंधों बेहतर करने का प्रयास करते रहे। इसी प्रयास में उन्होंने अटलजी को लाहौर बुलाया था जिस प्रयास को मुशर्रफ ने कारगिल में सैबोटाश कर दिया था। नवाज़ शरीफ़ बार बार सम्बंध बेहतर करने का प्रयास करते रहे क्योंकि वह समझते थे कि पाकिस्तान की मुक्ति इसी में है। पूर्व जनरल कमर बाजवा का भी यही मत था इसीलिए दोनों देशों के बीच गोलाबारी बंद हो गई थी। जनरल मुनीर ने कोई ऐसा संकेत नहीं दिया कि वह बाजवा की तरह भारत के साथ बेहतर रिश्ता चाहते है। सीमा पार से और नियंत्रण रेखा से फ़ायरिंग और घुसपैंठ फिर शुरू हो गई है। नवाज़ शरीफ़ ने अवश्य कहा है कि पड़ोसियों के साथ टकराव में पाकिस्तान की तरक़्क़ी सम्भव नहीं। यह तो बढ़िया है पर असली बॉस जनरल मुनीर क्या सोचतें है?
नवाज़ शरीफ़ ने कहा है कि पाकिस्तान अपने पड़ोसियों से बहुत पीछे रह गया है। उन्होंने बांग्लादेश का ज़िक्र करते हुए कहा है कि एक समय वह पाकिस्तान का पिछड़ा हिस्सा था आज बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान से 1000 डालर अधिक है। उन्होंने अपने देश जो कुछ अरब डालर के लिए इधर उधर भागदौड़ कर रहा है, कि तुलना भारत से की है जो चन्द्रयान की सफल लैंडिंग करवा चुका है। वहाँ से खबर है कि पंजाब को छोड़ कर बाक़ी प्रांतों के सरकारी अस्पतालों में दवाईयां ख़त्म हैं। कई अस्पतालों में ओपीडी बंद हो चुकी है। पाकिस्तान की सरकारी एयरलाइन पीआईए को बार बार अपनी अधिकतर हवाई जहाज़ पार्क करने पड़ रहें है क्योंकि या ईंधन के लिए पैसे नहीं या जहाज़ों की मेनटेनस नहीं हो रही या पायलटों को देने के लिए पैसे नहीं। मुद्रास्फीति की दर वहाँ भारी 40 प्रतिशत है। उनके सेंट्रल बैंक ने बताया है कि देश के पास मात्र 4.19 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार है (भारत के पास लगभग 600 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार है)।यह मुश्किल से एक महीने के आयात के लिए काफी है। खाने की वस्तुओं तथा बिजली और गैस की दरों में भारी वृद्धि की गई है। जो परिवार ग़रीबी की रेखा के नीचे हैं उनकी संख्या में नाटकीय वृद्धि हुई है। परिणाम है कि लोगों में भारी ग़ुस्सा है। 278 पाकिस्तानी रूपए से 1 डालर मिलता है जो साल पहले 168 रूपए से 1 डालर मिलता था। हालत इतने ख़राब हैं कि वरिष्ठ पत्रकार मरिआना बाबर ने लिखा है कि “शहबाज़ शरीफ़ और उनकी आर्थिक टीम ने अर्थ व्यवस्था को इतने ख़राब ढंग से सम्भाला है कि उनके मंत्री और सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाने से डर रहें हैं क्योंकि मतदाता ग़ुस्से में हैं”।
इस नाज़ुक हालात में शहबाज़ शरीफ़ के बड़े भाई साहिब नवाज शरीफ़ एक बड़ी आशा बन देश में लौटें हैं। उनकी छवि आर्थिक उदारवादी और भारत के साथ बेहतर संबंध चाहने वाले की है। चन्द्रशेखर, पी वी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, इन्द्र कुमार गुजराल, मनमोहन सिंह, और नरेन्द्र मोदी सब के साथ वह संवाद का प्रयास कर चुकें हैं चाहे वह बेनतीजा निकला है। न केवल बेनतीजा निकला बल्कि उसके हिंसक दुष्परिणाम भी निकले। वाजपेयी के समय कारगिल हो गया, मनमोहन सिंह के समय मुम्बई पर हमला हो गया और नरेन्द्र मोदी के समय पठानकोट, उरी और पुलवामा हो गए जिनसे सम्बंध सुधरने की बजाए और पीछे चले गए। शायद ही अब भारत का कोई प्रधानमंत्री पाकिस्तान के साथ रिश्ता सामान्य करने की पहल करेगा यह जानते हुए कि जो उधर हाथ बढ़ाता है उससे हाथ झुलस जाते हैं।
पर दिलचस्प प्रश्न यह है कि अतीत में नवाज शरीफ़ की भारत की तरफ़ पहल को देखते हुए सेना ने उन्हें वापिस लौटने ही क्यों दिया? लाहौर उतरते ही नवाज शरीफ़ ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर करने की बात कर भी दी। सामरिक विशेषज्ञ सी.राजा मोहन का लिखना है कि “यह लगता है कि जनरल मुनीर ने अपने पूर्ववर्ती जनरल बाजवा का तर्क मान लिया है कि समय आगया है कि पाकिस्तान आर्थिक विकास पर केन्द्रित हो और अकारण भू- राजनीतिक महत्वकांक्षा को छोड़ दे”।पर क्या वास्तव में पाकिस्तान की सेना की यह राय है? ज़रूरी नहीं, कहते हैं हमारे कुछ प्रमुख राजनयिक। पाकिस्तान में हमारे पूर्व राजदूत जी.पार्थसारथी का कहना है कि वहाँ सेना का प्रभुत्व यह विश्लेषण करना मुश्किल कर देता है कि पाकिस्तान क्या दिशा लेगा? पाकिस्तान में रहे हमारे एक और राजदूत टीसीए राघवन का भी कहना है कि यह पाकिस्तान के हित में है कि वह भारत के साथ सम्बंध बेहतर करे पर यह समय ही बताएगा कि इस बार नवाज शरीफ़ सफल होतें है या नहीं? एक और वहाँ रहे हमारे पूर्व राजदूत अजय बिसारिया का कहना है कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री की एंट्री इस हक़ीक़त को नहीं बदल सकती कि जो भी सरकार चुनी जाती है उसके गले पर सेना का पैर होगा चाहे उसके प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ हों। जबकि पूर्व डिप्लोमैट विवेक काटजू अधिक स्पष्ट हैं कि नवाज शरीफ़ की वापिसी का पाकिस्तान की राजनीति पर असर हो सकता है पर कोई सम्भावना नहीं कि इससे उनकी विदेश और सुरक्षा नीति विशेष तौर पर जहां तक भारत का सम्बंध है, में कोई बदलाव आएगा।
बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि नवाज शरीफ़ अपनी मुक्ति के लिए क्या डील कर लौटें हैं ? उन्हें भी याद होगा कि तीन बार उनका तख्ता पलटा जा चुका है। यह भी मालूम नहीं कि न्यायपालिका सेना की योजना से सहमत हैं या नहीं और आपराधिक मामलों में नवाज शरीफ़ को पूरी छूट मिलती है या नहीं? उपर से आतंकवादी लगातार हमले कर रहें हैं और पिछले सप्ताह तीन अलग घटनाओं में 17 सैनिक मारे गए। इस सप्ताह फिर हमले जारी हैं। देश पूरी तरह से बदहाल और अशांत है। चाहे इमरान खान को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाए पर लोगों में उनकी लोकप्रियता परेशान करती रहेगी। पाकिसतान के प्रमुख सम्पादक और लेखक रजा रूमी ने सही लिखा है कि “आगे का रास्ता ख़तरों और अज्ञात से भरा है”।
वह बहुत बहादुर आदमी होगा जो इस हालत में पाकिस्तान की बागडोर सम्भालने के लिए आगे आएगा।