कांग्रेस और ‘इंडिया गठबंधन, Congress and the INDIA alliance

सिर्फ इक  कदम उठा था ग़लत राह-ए- शौक़ में

                  मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही

कांग्रेस पार्टी और ‘इंडिया गठबंधन’ के रिश्ते पर नज़र दौड़ाता हूँ तो अब्दुल हमीद अदम का यह शे’र याद आता है। जो रिश्ता मज़बूती से भाजपा को चुनौती दे सकता था वह कांग्रेस के कुछ नेताओं के घमंड और कुछ की नासमझी के कारण अनिश्चित और अविश्वसनीय बन गया है। विधानसभा चुनावों में हिन्दी बैल्ट में कांग्रेस को पड़ी मार के बाद जब पार्टी अध्यक्ष मलिक्कार्जुन खड़गे द्वारा गठबंधन की बैठक बुलाई गई तो बड़े नेता, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार और स्टैलिन, ने कोई न कोई बहाना बना आने से इंकार कर दिया। कहने की ज़रूरत नहीं कि अगर कांग्रेस मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में से एक भी चुनाव जीत जाती तो इन नेताओं का रवैया इतना नकारात्मक न होता। पर चुनाव से पहले कांग्रेस बहुत ऊँची हवा में उड़ रही थी। सोचा था कि चुनाव के बाद वह ‘पोसीशन ऑफ स्ट्रैंथ’ से बाकियों से बात करेंगे और सीटों के बँटवारे पर अपनी बात मनवाएँगे। पर चुनाव परिणाम ने कांग्रेस पार्टी के मोलभाव की ताक़त को कम कर दिया। अब कथित सहयोगी दल कांग्रेस को बिग ब्रदर मानने को तैयार नही। ममता बैनर्जी ने तो कह ही दिया है कि यह कांग्रेस की हार है, भाजपा की जीत नहीं।

अब 19 तारीख़ को गठबंधन की बैठक हो रही है तब इसकी कुछ रूपरेखा सामने आ जाए, शायद। बड़ा सवाल तो यह है कि इतना समय क्यों गँवाया गया जबकि मुक़ाबला नरेन्द्र मोदी जैसे नेता और अमित शाह जैसे कुशल चुनावी प्रबंधक से है? यहाँ कोई अनिश्चितता नही, कोई हिचक नहीं। प्रधानमंत्री मोदी अभी से कह रहें हैं कि उनकी ‘तीसरी सरकार’ के दौरान देश की अर्थव्यवस्था दुनिया में तीसरे नम्बर पर होगी। चुनाव के अगले दिन ही अमित शाह बंगाल में थे जहां वह 2024 के चुनाव में मोदी के लिए वोट माँग रहे थे। उसके विपरीत कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार राहुल गांधी कहाँ  है? हार के बाद वह संसद में नज़र नहीं आए। महुआ मोइत्रा के निष्कासन के समय अपनी ख़राब सेहत के बावजूद सोनिया गांधी वहाँ साथ खड़ी थी पर राहुल कहाँ थे? यह मौक़ा था कि राहुल बाक़ी सहयोगियों के साथ एकजुटता दिखाते पर वह नज़र नहीं आए। अब अवश्य वह नेहरू जी के बचाव में बोले हैं पर पहले तो उनकी खामोशी चर्चा का विषय बन गई थी। दूसरों को साथ लेकर चलना उनके लिए मुश्किल लगता है। पार्टी में राहुल और प्रियंका की भूमिका तय नहीं है जिससे अनिश्चितता रहती है। सोनिया गांधी उन पुराने लोगों को संरक्षण दे रही है जो वफ़ादार रहें हैं पर जो अब अप्रासंगिक बन चुकें हैं जिसका बड़ा उदाहरण कमल नाथ हैं जिनके घमंड के कारण सपा नाराज़ हो गई थी। नए मुख्यमंत्रियों के चयन में भाजपा ने फिर नए चेहरे पेश कर दिए हैं। वाजपेयी -आडवाणी के समय के नेताओं का समय ख़त्म हो रहा है। कांग्रेस में यह सोच या चुस्ती या दम ग़ायब है।  

इस गठबंधन की पहली बैठक जून में हुई थी। तब से लेकर अब तक छ: महीनों में नेतृत्व का मसला हल क्यों नहीं किया गया?  चाहिए तो यह था कि पहली बैठक के बाद ही न्यूनतम साँझा कार्यक्रम, नेतृत्व का मामला और सीट शेयरिंग का फ़ार्मूला तय कर लिया जाता। लेकिन कांग्रेस के आत्ममुद्ध नेतृत्व ने कुछ नहीं किया। शायद सोचा होगा कि कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश का परिणाम बाक़ी देश में भी दोहराया जाएगा। जून की बैठक के एक महीने बाद बेंगलुरू और उसके पाँच सप्ताह बाद मुम्बई में नेता फिर मिले पर कोई ठोस निर्णय नही लिया गया। केवल शानदार डिनर कर और फ़ोटो खिचवा कर लौट गए। अगली बैठक भोपाल में रखी गई कि चुनाव के दौरान इससे वहाँ  भाजपा विरोधी माहौल को बढ़ावा मिलेगा पर कमलनाथ ने इसे रद्द करवा दिया। कांग्रेस का नेतृत्व उस समय लाचार क्यों रहा? अब कुछ कोशिश हो रही है पर समय और पहल दोनों वह गँवा चुकें हैं।

नरेन्द्र मोदी के सामने ‘इंडिया गठबंधन’ का चेहरा कौन होगा? नीतीश कुमार, जैसा जदयू के कुछ नेता इशारा कर रहें है? या ममता बैनर्जी? या उद्धव ठाकरे? या हिचकिचाते राजकुमार राहुल गांधी? राहुल गांधी का नेतृत्व बहुत विपक्षी नेता मानने को तैयार नहीं होंगे। शायद सामूहिक नेतृत्व पेश किया जाएगा। मोदी की ‘मेरी गारंटी’ का जवाब ‘हम, मैं नहीं’ से दिया जाएगा। मोदी के सामने कई नेता इकट्ठे खड़े किए जाएँगे। अतीत में ऐसा हो चुका है। मोरारजी देसाई, वीपीसिंह, चन्द्र शेखर, देवेगौडा, इन्द्र कुमार गुजराल सब इसी तरह प्रधानमंत्री बने थे पर एक भी परीक्षण स्थाई नहीं रहा। निजी ईगो या सैद्धांतिक मतभेदों ने इनका काम तमाम कर दिया। मैं नहीं समझता कि भारत की जनता इस वक़्त अनिश्चितता में छलांग लगाने को  तैयार है। अगर अब तक ‘इंडिया गठबंधन’ अपनी रूपरेखा तैयार कर लेता और एक चेहरे पर सहमत हो जाता तो हालत बेहतर होती। अवसरवादी नेताओं का यह लड़खड़ाता गठबंधन नरेन्द्र मोदी और आक्रामक भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर सकता।  

विडंबना है कि कांग्रेस पार्टी की कारगुज़ारी बुरी नहीं रही। वह तेलंगाना जीत गए और बाक़ी तीनों प्रांतों में उसका वोट शेयर गिरा नहीं। पर तेलंगाना में मुक़ाबला बीआरएस से था भाजपा से नही। इन चार बड़े प्रदेशों के चुनाव में कांग्रेस भाजपा से 10 लाख अधिक वोट ले गई थी और अगर सारे गठबंधन का वोट गिन लिया जाए तो यह और अधिक है। राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस के वोट का अंतर केवल 2 प्रतिशत है जबकि छत्तीसगढ़ में यह 4 प्रतिशत है। केवल मध्यप्रदेश में यह 8 प्रतिशत है। लेकिन प्रभाव यह मिलता है कि पार्टी  मटियामेट हो गई है। मीडिया का सामना करने की ज़िम्मेवारी जयराम रमेश पर डाल दी गई जबकि राहुल गांधी को खुद आगे आकर अपना पक्ष रखना चाहिए था। भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस एकमात्र पार्टी है जिसका कश्मीर से कन्याकुमारी तक आधार है। संसद के दोनों सदनों में वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। पर पूर्ण हताशा का माहौल है। केवल सोशल मीडिया में तलवारें चलाई जा रही हैं। प्रभाव यह मिल रहा है कि गठबंधन में कांग्रेस कमजोर कड़ी है। अब वह क्षेत्रीय दलों के दबाव में आजाएगी। हाँ, दक्षिण में उनका प्रदर्शन सुधर सकता है।

उत्तर भारत की 186 सीटों पर कांग्रेस की भाजपा के साथ सीधी टक्कर है और कांग्रेस महज़ 15 सीटें ही जीत सकी। जिन चार प्रदेशों में अब चुनाव हो कर हटें हैं उनकी 82 सीटों में से 65 पर पहले ही भाजपा क़ाबिज़ है। राहुल गांधी ने जातीय जनगणना पर फिर ज़ोर दिया है। पर कांग्रेस तो सभी जातियों की पार्टी रही है, यह नया मुखाटा उसे शोभा नहीं देता। यह मामला प्रादेशिक दलों के लिए छोड़ देना चाहिए था। ज़रूरी है कि वह साथी दलों का विश्वास जीतने का प्रयास करे। इससे भी ज़रूरी है कि ‘इंडिया गठबंधन’ जनता को अपनी ज़रूरत समझाए। केवल एंटी-भाजपा या एंटी-मोदी पर्याप्त नहीं। देश में भाजपा विरोधी वोट है, विशेष तौर पर दक्षिण भारत में, पर यह बेड़ा पार लगाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके लिए कोई सकारात्मक संदेश चाहिए कि गठबंधन को वोट क्यों दिया जाए? नया कल्याणकारी एजेंडा  ढूँढना पड़ेगा। केवल प्रधानमंत्री को अपशब्द कहना या उनका मज़ाक़ उड़ाना पर्याप्त नहीं है। केरल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बंगाल, दिल्ली आदि प्रदेशों में सीटों का बँटवारा तकलीफ़ पहुँचाएगा। पंजाब में तो कांग्रेस और आप के प्रादेशिक युनिट पहले ही एक दूसरे के चुनावी खून के प्यासे हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी, शिव सेना के बीच गठजोड़ बहुत जटिल रहेगा। भाजपा के हिन्दुत्व और राष्ट्रवादी संदेश का कांग्रेस के पास कोई जवाब नहीं है। देश को एक मज़बूत विकल्प की ज़रूरत है पर जनता एक अस्थिर अनिश्चित गठबंधन को पसंद करेगी, इस पर बहुत शक है।

भाजपा के राष्ट्रवाद के संदेश को सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 370 और 35A हटाए जाने के निर्णय को सही ठहराए जाने के फ़ैसले से और बल मिलेगा। जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाए जाने पर सुप्रीम मोहर लग गई है। इसे अस्थाई प्रावधान कहा गया है। यह ऐतिहासिक और अत्यंत स्वागत योग्य फ़ैसला है जिसने बची अनिश्चितता भी ख़त्म कर दी है। आशा है कि न्यायालय के आदेश के अनुसार जल्द चुनाव करवा लिए जाएँगें।  5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने इसे निरस्त कर दिया था। यह बहुत दिलेराना कदम था जो पिछली सरकारें उठाने की हिम्मत नहीं दिखा सकी।  धारा 370 के अधीन वहाँ अलगाववाद को बल मिला जिसकी पराकाष्ठा हमने पंडितों के निष्कासन के रूप में देखी थी। पाकिस्तान को भी दखल देने का मौक़ा मिल गया। पत्थर बाज़ी का नया व्यवसाय शुरू हो गया था। बड़ी अदालत के निर्णय पर चीन और पाकिस्तान की नकारात्मक प्रतिक्रिया बताती है कि कहीं चोट गहरी पहुँची है।

 जब से धारा 370 को हटाया गया  हालात सही होते जा रहे है। इस साल वहाँ रिकार्ड तोड़ पर्यटक आए है। जुलाई में मैने वहाँ  परिवार समेत एक सप्ताह गुज़ारा था। सुरक्षा बहुत बढ़ी हुई थी पर सामान्य जीवन चल रहा था। कोई टेंशन नहीं थी। टैक्सी चालक के यह शब्द आज भी याद हैं, “आप आते रहें हमारा रोज़गार चलता रहेगा”। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद वहाँ कुछ नेताओं की प्रतिक्रिया को छोड़ कर हालात  सामान्य है। लोगों ने यथास्थिति स्वीकार कर ली लगती है। वह समझ गए हैं कि घड़ी की सुइयां वापिस नहीं मुड़ सकती। सरकार ने भी कोई कमजोरी  नहीं दिखाई जिसका उन्हें पूर्ण श्रेय मिलना चाहिए। अलगाववादियों की दुकानों के  शट्टर डाउन हो चुकें हैं। वास्तव में मोदी सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी कश्मीर है। बहुत हिम्मत दिखाई गई। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद आज़ाद भारत के इतिहास का एक असुखद अध्याय बंद हो गया है।  

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.