चौधरी देवीलाल ने एक बार कहा था कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। यह अलग बात है कि खुद ताऊ ने अपने बेटों को सब कुछ सम्भालते वक़्त लोकलाज की अधिक परवाह नहीं की, पर बात तो उन्होंने पते की कही थी। लोकतंत्र लोकलाज से चलना चाहिए पर हमारे कई जन प्रतिनिधियों ने लोकलाज को फ़िज़ूल चीज़ समझ कर कूड़ेदान में फेंक दिया है। पार्टी या विचारधारा के प्रति वफ़ादारी अब मायने नहीं रखती, सब कुछ कुर्सी है। नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा है कि, “मैं प्रधानमंत्री को भरोसा दिलाता हूँ अब…इधर उधर नहीं जाऊँगा”। यह वहीं नीतीश कुमार है जिन्होंने कहा था कि ‘मरना पसंद है उधर जाना पसंद नहीं’। पर अब ‘उधर’ को भरोसा दिला रहें हैं कि वापिस ‘इधर’ नहीं जाऐंगे ! राजनीतिक शर्म बिलकुल हटा दी गई लगती है। महाराष्ट्र में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए और दो दिन के बाद उन्हें राज्य सभा का सदस्य बना दिया गया। उनके पिता शंकर राव चव्हाण न केवल राज्य के मुख्यमंत्री रहे वह कांग्रेस सरकार में केन्द्रीय गृह मंत्री भी रहे। अशोक चव्हाण के खिलाफ आदर्श सोसाइटी का मामला चल रहा है पर अब सब कुछ माफ़ हो गया लगता है। लगभग एक दर्जन कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री पार्टी छोड़ चुकें हैं। इनमें से सात भाजपा में शामिल हो चुकें हैं। सब कुछ लचीली अंतरात्मा के अनुसार किया गया है।
हाल ही में हम हिमाचल प्रदेश में तमाशा देख कर हटें हैं। लगभग 14 महीने पहले इसी हिमाचल की जनता ने स्पष्ट बहुमत दे कर कांग्रेस की सरकार क़ायम की थी। आज यह लड़खड़ा रही है। राज्यसभा के चुनाव में 40 सदस्यों वाली कांग्रेस 25 विधायकों वाली भाजपा से पिट गई क्योंकि उसके छ: विधायकों ने 3 निर्दलीय के साथ मिल कर क्रॉस वोटिंग कर अपनी पार्टी के उम्मीदवार अभिषेक मनु सिंघवी को ही पराजित करवा दिया। प्रदेश कांग्रेस के अन्दर काफ़ी समय से असंतोष पनप रहा था पर केन्द्र ने परवाह नहीं की। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह विशेष तौर पर असंतुष्ट नज़र आती है पर राज्यसभा में उम्मीदवार तो हाईकमान उतारता है। स्पष्ट तौर पर गांधी परिवार के वर्चस्व को चुनौती दी गई है। अभिषेक मनु सिंघवी को पराजित करने वाले हर्ष महाजन और उनके परिवार की पृष्ठभूमि भी कांग्रेसी है। इससे पता चलता है कि वफादारियां कितनी नरम हो गईं है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु शिकायत कर रहे हैं कि ‘मर्डर ऑफ डैमोक्रैसी’, यह तो है ही पर कांग्रेस का प्रबंधन भी ढीला है। उत्तर भारत में हिमाचल प्रदेश एकमात्र प्रदेश है जो कांग्रेस के पास है उसे ही सम्भालना मुश्किल हो रहा है। पार्टी के हाईकमान को भी आभास होना चाहुए कि उनका कमान अब नहीं चल रहा। निश्चित तौर पर भाजपा विद्रोह को हवा दे रही होगी पर अपना घर सम्भालने की ज़िम्मेवारी तो कांग्रेस की है। जैसे पाकिस्तान के पंजाबी शायर मुनीर नियाज़ी ने कहा है,
‘कुज शहर दे लोक वी ज़ालम सन, कुज सानूँ मरन दा शौक वी सी’ !
हिमाचल विधानसभा में 15 विधायक निलम्बित कर किसी तरह बजट पास करवा लिया गया है। लोकतंत्र के लिए यह नया ख़तरा है। जो भी सरकार ख़तरे में होगी वह कोई बहाना बना कर विपक्षी सांसदों या विधायकों को निलम्बित करवा अपना बचाव कर लेगी। संसद में 146 विपक्षी सांसद निलम्बित करवा केन्द्रीय सरकार ने कई महत्वपूर्ण बिल पास करवा लिए। इन नई परिस्थितियों में स्पीकर का पद अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया है। सरकार बचाने की शक्ति स्पीकर के पास आ गई है इसीलिए हर मुख्यमंत्री अपने वफ़ादार को स्पीकर बनवाना चाहेँगे कि ज़रूरत पड़ने पर वह संकट मोचक बन सके। हिमाचल प्रदेश के स्पीकर ने भी इन छ: विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया है। वह अब अदालत गए हैं पर उल्लेखनीय है कि यह बाग़ी विधायक पंचकूला में हरियाणा सरकार के मेहमान है जहां उन्हें होटल में बंद रखा गया है, प्रदेश लौटने और जनता का सामना करने की अभी हिम्मत नहीं है। जन प्रतिनिधियों के दल बदल और अनैतिक आचरण को रोकने का सब से सशक्त तरीक़ा यही है कि जनता इसका विरोध करें और उन्हें सबक़ सिखाएँ। क़ानून से बचने का वह रास्ता निकाल लेंगे। यह बहुत दुख की बात है कि हिमाचल जैसे शरीफ़ प्रदेश में ऐसी बदमाशी हो रही है। अपने नवीनतम फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि “जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार से संसदीय लोकतंत्र की नींव हिल सकती है”।
उत्तर प्रदेश में भी समाजवादी पार्टी के सात और बहुजन समाज पार्टी के एक विधायक ने राज्य सभा के चुनाव में क्रॉस वोटिंग की है। इससे पहले हम चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में अलग और अजीब धांधली देखकर हटें है जब रिटर्निंग अफ़सर अनिल मसीह ने आप और कांग्रेस के आठ बैलेट पर खुद निशान लगा कर उन्हें अयोग्य करार दिया और हारे हुए भाजपा के उम्मीदवार को विजयी घोषित कर दिया। अनिल मसीह भाजपा का सदस्य हैं उसे तो रिटर्निंग अफ़सर बनाया ही नही जाना चाहिए था। उसने तो सबके सामने बेशर्मी दिखाते हुए बैलेट पेपर ख़राब कर दिए। आख़िर में क्रोधित सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और इन आठ बैलेट पेपर को गिन कर आप के उम्मीदवार को मेयर घोषित कर दिया।
इस भद्दे प्रकरण से दो सवाल उठते है। एक, अनिल मसीह किस के आदेश पर दबंग हो कर धांधली कर रहा था? निश्चित तौर पर स्वेच्छा से तो नहीं कर रहा होगा। दूसरा, इसकी ज़रूरत भी क्या थी?आख़िर चंडीगढ़ छोटा सा शहर है अगर वहां आप का मेयर बन जाता है तो क्या फ़र्क़ पड़ता? हर जगह, हर हाल और हर तरीक़े से जीतने का प्रयास भाजपा की छवि को ख़राब कर रहा है, आख़िर यह तो ‘पार्टी विद् ए डिफ़रेंस’ होने का दावा करती है। चंडीगढ़ मेयर चुनाव जैसी धांधली से सारे देश में बहुत ग़लत संदेश गया है। भाजपा सत्तारूढ़ पार्टी है इसलिए उसकी ज़िम्मेवारी और भी बढ़ जाती है कि वह संवैधानिक शिष्टाचार की मिसाल क़ायम करें पर वह तो दूसरी पार्टियों का कचरा इकट्ठा कर रही है। जिनके कारण कांग्रेस बदनाम हुई उनमे से कई भाजपा में है। क्या ज़रूरत है? अगर विपक्ष की सरकारों को अस्थिर किया गया तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा। पार्टी के पास नरेन्द्र मोदी जैसा सशक्त और लोकप्रिय नेता है, फिर ज़रूरत क्यों हैं?
हिमाचल प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को 40 विधायक दे कर पाँच साल का जनादेश दिया था। अगर कुछ नेताओं या विधायकों को तकलीफ़ है तो उनके सामने त्यागपत्र देने का विकल्प है। क्रास वोटिंग तो लोकतंत्र को खोखला कर देगी। किसी भी जन प्रतिनिधि को इस बात की इजाज़त नहीं होनी चाहिए कि वह मध्यावधि दल बदल कर जाए। हमने सोचा था कि ‘आया राम गया राम’ का युग ख़त्म हो गया पर अब तो नए से नए रास्ते खोजे जा रहें हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर कोई सांसद या विधायक रिश्वत लेता है तो यह उसे मिले विशेषाधिकार का हिस्सा नही है,उसे सजा मिल सकती है। यह बहुत महत्वपूर्ण फ़ैसला है। सभी दलों को सावधान हो जाना चाहिए। अगर यही सिलसिला चलता रहा और जनादेश से खिलवाड़ होता रहा तो लोग लोकतंत्र में विश्वास खोना शुरू कर देंगे। जिसे ‘हार्स ट्रेडिंग’ कहा जाता है वह लोकतंत्र के लिए बहुत ख़तरनाक है। जन प्रतिनिधियों को खुद को बेचने पर सख़्ती से पाबंदी लगनी चाहिए। हमारे चुनावी लोकतंत्र के केन्द्र में राजनीतिक दल स्थापित है पर दलों के अनुशासन की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। पार्टियाँ भी आंतरिक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को महत्व नहीं देती। सब पार्टियों में मनोनीत करने की प्रथा बन गई है। एक समय था कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं को पार्टी के अन्दर से विरोध का सामना करना पड़ा था। आज किस की हिम्मत है कि किसी बड़े नेता को चुनौती दे? छोटी छोटी प्रादेशिक पार्टियाँ भी व्यक्ति विशेष की मर्ज़ी के मुताबिक़ चल रही है। बसपा का उदाहरण हमारे सामने है। पार्टी लगातार समर्थन खो रही है पर मायावती को चुनौती देने वाला कोई नहीं।
अंत में: हाल ही में राजनेताओें के बिगड़े आचरण को लेकर बहुत चर्चा रही है। एक क़िस्सा पश्चिम बंगाल से है जहां टीएमसी के बाहुबली शेख़ शाहजहाँ को आख़िर गिरफ़्तार कर लिया गया। ज़बरदस्ती क़ब्ज़े से लेकर महिला उत्पीड़न के बहुत से आरोप उस पर लगते रहे पर फिर भी उसे गिरफ़्तार करने में 55 दिन लग गए और पकड़ा तब गया जब संदेशखली का मामला सुर्ख़ियों में छा गया। हैरानी है कि महिलाओं के यौन उत्पीड़न के आरोपी पर ममता बनर्जी की सरकार इतनी मेहरबान रही है। दूसरी तरफ़ पूर्व केन्द्रीय मंत्री हर्षवर्धन हैं जिन्हें इस बार टिकट नहीं मिला। उन्होंने गरिमा के साथ राजनीति से संन्यास ले लिया है। उनका कहना है कि ‘मेरा ईएनटी क्लिनिक मेरा इंतज़ार कर रहा है’। कोई कड़वाहट नहीं, कोई अफ़सोस नहीं, आराम से हर्षवर्धन राजनीति के सूर्यास्त में प्रवेश कर गए। अफसोस यह है कि हर्षवर्धन जैसे लोगों की जमात हमारी राजनीति में लगातार कम होती जा रही है। हाल ही में भाजपा ने अपनी पहली सूची जारी की है इसमें से साध्वी प्रज्ञा, रमेश बिधूडी और परवेश शर्मा के नाम काट दिए हैं। बिधूडी और परवेश शर्मा हेट स्पीच के अपराधी है जबकि साध्वी प्रज्ञा ने नत्थू राम गोडसे को ‘महान देशभक्त’ कहा था। उस वकत प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह साध्वी प्रज्ञा को दिल से माफ़ नहीं करेंगे। संतोष है कि वह भूलें नही। इन तीनों के टिकट कटने से देश भर में बहुत अच्छा संदेश गया है।