सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम ज़मानत मिलने के बाद अरविंद केजरीवाल ने चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है। लोकसभा चुनाव के ‘असाधारण महत्व’, का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ईडी का यह तर्क रद्द कर दिया कि अंतरिम ज़मानत देने से राजनेता आम आदमी की तुलना में लाभकारी स्थिति में पहुँच जाएँगे और इससे ग़लत संदेश जाएगा। अदालत का यह भी कहना था कि बेशक उन पर गम्भीर आरोप हैं पर उन्हें दोषी नहीं पाया गया। कोई ज़ब्ती नहीं हुई। पर अदालत ने यह शर्त लगा दी है कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली सचिवालय नहीं जाएँगे, सरकारी कामकाज में दखल नहीं देगें और किसी फ़ाईल पर दस्तख़त नहीं करेंगे। अर्थात् जहां अरविंद केजरीवाल को अंतरिम ज़मानत से राहत मिली है, सुप्रीम कोर्ट की शर्तों के कारण उनके दिल्ली के मुख्यमंत्री बने रहने पर सवालिया निशान लग गया है। अगर वह कोई सरकारी कामकाज नहीं निपटा सकते तो मुख्यमंत्री बने रहने का औचित्य नहीं रहता।
ईडी का तर्क है कि चुनाव प्रचार में शामिल होना मौलिक या संवैधानिक अधिकार नहीं है। अगर सामान्य लोगों को ज़मानत नहीं मिलती तो नेताओं को देना समानता के क़ानून के शासन के खिलाफ है। ईडी का तर्क भी वज़नदार है।अब क्या इसी आधार पर झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी अंतरिम ज़मानत मिलेगी कि वह भी प्रचार कर सकें? 13 मई वाला चरण तो गुजर गया पर अभी वहाँ तीन चरण और बाक़ी हैं और हेमंत सोरेन की प्रचार में मौजूदगी से काफ़ी अंतर आ सकता है। क्या तेलंगाना की के.कविता, जो भी शराब घोटाले के कारण अंदर है, को भी ज़मानत मिलेगी? अर्थात् यह फ़ैसला बहुत बहस को आमंत्रित करेगा पर यह फ़ैसला लोकतंत्र को मज़बूत करने की तरफ बड़ा महत्वपूर्ण कदम है। जिस तरह चुनाव की घोषणा के बाद अरविंद केजरीवाल को गिरफ़्तार किया गया था उससे बहुत ग़लत संदेश गया था। ईडी का इस्तेमाल केवल विपक्ष के नेताओं के खिलाफ करने को देश में पसंद नहीं किया गया है। 2014 के बाद राजनेताओें के खिलाफ ईडी की कार्यवाही में चार गुना वृद्धि हुई है, जिनमें 96 प्रतिशत विपक्ष के नेता हैं। ईडी की कारगुज़ारी पर एक विशेष अदालत यह चेतावनी दे चुकी है,“अगर इतिहास से कोई सबक़ सीखना है तो यह कि मज़बूत नेता, क़ानून, और एजेंसियाँ आम तौर पर उन नागरिकों को काटने के लिए लौटती हैं जिनके संरक्षण का उन्होंने प्रण लिया होता है”।
अरविंद केजरीवाल को मिली इस ज़मानत से कुछ हद तक जिसे लैवल प्लेयिंग ग्राउंड कहा जाता है,वह बहाल हुआ है। एक बार फिर न्यायपालिका की संविधान के संरक्षक के रूप में भूमिका रेखांकित हुई है। देश की जनता नहीं चाहती कि एक एक कर विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया जाए। हम मज़बूत सरकार और मज़बूत विपक्ष दोनों चाहते हैं। हम आज़ाद मीडिया चाहते है। न ही इसे पसंद किया गया कि कांग्रेस पार्टी के कुछ बैंक खाते चुनाव से पहले फ़्रीज़ करने की कोशिश की गई। चुनाव लोकतंत्र की धड़कन है और जनता नहीं चाहती कि एक पक्ष को ज़बरदस्ती वैंटीलेटर पर डाल दिया जाए। इसलिए यह अच्छी बात है कि एक लोकप्रिय नेता को चुनाव प्रचार की इजाज़त मिल गई है। परिस्थिति विशेष थी, जो बात माननीय न्यायाधीशों ने भी मानी है। इस राहत से विपक्ष और केजरीवाल दोनों का मनोबल बढ़ेगा। दिल्ली में चुनाव 25 मई को हैं और पंजाब में 1 जून को। हैरानी की बात है कि अरविंद केजरीवाल छोटी सी दिल्ली के मुख्यमंत्री है पर जिस तरह दिल्ली के उपराज्यपाल से उनका टकराव चल रहा है और सरकारी एजेंसियाँ उनके पीछे लगी है उससे तो यह प्रभाव मिलता है कि भाजपा केजरीवाल को भावी ख़तरा समझती है जिसे वह शुरू में ही मसलना चाहती है।
दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 62 आप के पास ज़रूर हैं पर लोकसभा की सात की सात सीटें भाजपा जीतने में सफल रही है। अर्थात् दिल्ली की जनता विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग अलग मापदंड रखती है फिर भी अरविंद केजरीवाल को बड़ा प्रतिद्वंद्वी क्यों समझा जाता है? क्या घबराहट है कि दिल्ली में आप-कांग्रेस का गठबंधन उलटफेर न कर दे? अरविंद केजरीवाल से एक और तकलीफ़ है, वह राहुल गांधी नहीं हैं। इस बार तो राहुल गांधी ने ज़बरदस्त चुनौती दी है और प्रियंका गांधी विशेष तौर पर आक्रामक और प्रभावी हैं, पर इस परिवार के खिलाफ ग़लत-सही कहने को भाजपा के पास बहुत कुछ है। वह ‘डायनॉस्ट’ अर्थात् उच्च वंश से सम्बंधित है। कांग्रेस के पूर्व शासन की ग़लतियों को उन पर थोपा जा सकता है। राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी ‘शहज़ादा’ कहते हैं, अमित शाह ‘राहुल बाबा’। पर ऐसी कोई संज्ञा ज़मीन से उठे और दस साल की अल्पावधि में दिल्ली और पंजाब में पैर जमाने वाले अरविंद केजरीवाल के बारे इस्तेमाल नहीं की जा सकती। दिल्ली के जेएनयू के पोलिटिकल साईंस के प्रोफ़ेसर नरेन्द्र कुमार का कहना है, “इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा का लम्बे समय का लक्ष्य विपक्ष को बिल्कुल मामूली बनाना है…केजरीवाल भविष्य के लिए गम्भीर ख़तरा हैं”।
विचारधारा को एक तरफ़ रख लोगों की मूलभूत समस्याओं पर केन्द्रित रहने के प्रयास ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया है। बिजली, पानी, मुहल्ला क्लिनिक, अच्छे स्कूल आदि प्रदान कर उन्होंने अपना आधार बढ़ाया है। अब रिहा होने के बाद उन्होंने ग़रीबों के लिए 200 युनिट मुफ़्त बिजली, बेहतर सरकारी स्कूल,हर गाँव में क्लिनिक का वादा किया है। सारा ध्यान कल्याणकारी योजनाओं पर है। न ही उनके बारे यह कहा जा सकेगा कि वह ‘राम मंदिर पर बाबरी ताला लगवा देगें’। हनुमान भक्त अरविंद केजरीवाल पर किसी तरह के तुष्टिकरण का आरोप भी नहीं लग सकता। वह भगवंत मान को लेकर राम मंदिर के दर्शन भी कर आए हैं। अर्थात् केजरीवाल के खिलाफ कहने को बहुत कुछ नहीं है। कई तो यह भी मानते हैं कि एक दिन वह भाजपा और कांग्रेस दोनों का विकल्प हो सकते हैं। आख़िर ज़मीन से जुड़े नेता हैं और लोगों की नब्ज पहचानते हैं। उन्होंने स्पष्ट तौर पर धारा 370 हटाए जाने, अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड का समर्थन किया है। पर यह आगे की बात है। इस समय तो वह इस कथित शराब घोटाला में फँसे हैं जिस पर न्यायालय का फ़ैसला आना बाक़ी है।
अन्ना हज़ारे की ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आन्दोलन से निकले अरविंद केजरीवाल का उभार प्रभावशाली रहा है। उस आन्दोलन के वह एकमात्र लाभार्थी हैं। 10 साल में उन्होंने अपने पैर जमा लिए हैं। उन्हें हवा का ताज़ा झोंका समझा गया, कुछ नए विचार और नई कार्यशैली सामने आए। वह तो नरेन्द्र मोदी के गुजरात मे 2022 के चुनाव में 12 प्रतिशत वोट और 2 सीटें जीतने में सफल रहे हैं। इसके बाद आप को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिल गया। अन्ना हज़ारे खुद अप्रासंगिक हो चुकें हैं। बाक़ी साथी, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, किरण बेदी, आशुतोष, कुमार विश्वास, मयंक गांधी, धर्मवीर गांधी सब एक एक कर या छोड़ गए या छोड़ने पर मजबूर कर दिए गए। अब मुसीबत की घड़ी में इनकी कमी महसूस की गई होगी। केजरीवाल ने स्थापित राजनेताओं का विरोध कर खुद को स्थापित किया था। शीला दीक्षित को तो जेल में डालने की धमकी दी थी। पर अब वह बदले हैं। वह नीली वैगन-आर वाले केजरीवाल नही रहे। जो नए साथी राज्य सभा में लिए गए हैं उनमें से संजय सिंह को छोड़ कर मुसीबत की घड़ी में किसी ने भी साथ नहीं दिया। सब डर के मारे या तो विदेश भाग गए हैं या छिप गए हैं। जिस तरह सड़क पर उतर कर तृणमूल कांग्रेस के सांसद प्रदर्शन करते हैं उससे आप के सांसद तो कोसो दूर भाग गए हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ज़रूर पूरा साथ दे रहें हैं।
अंतरिम ज़मानत अरविंद केजरीवाल की समस्याओं का अंत नहीं है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि केस का क्या बनता है? इस दौरान वह लोगों की सहानुभूति बटोरने की कोशिश करेंगे पर क़ानून की लड़ाई तो अदालत में ही लड़ी जाएगी। उनकी ज़मानत ईडी के लिए धक्का जरूर है पर यह क्लीन चिट नहीं है। वह सख़्त पीएमएलए क़ानून के नीचे जेल भेजे गए हैं पर एक रूपए का काला धन बरामद नहीं हुआ। जब तक उन्हें स्थाई ज़मानत नहीं मिल जाती तब तक उनकी मुसीबतें ख़त्म नहीं होंगी। सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि अगर चुनाव न होते तो अंतरिम ज़मानत न मिलती। आप का भी वही हाल हैं जो बसपा, सपा, जदयू, बीजेडी,बीआरएस,तृणमूल कांग्रेस जैसी एक व्यक्ति पर आधारित पार्टियों का है। अगर बड़े नेता को कुछ हो गया तो पार्टी भटक जाती है। सब कुछ अपने इर्द गिर्द समेटने की क़ीमत चुकानी पड़ती है। नवीन पटनायक की बीमारी के कारण उड़ीसा में बीजू जनता दल अब अनिश्चित दौर में प्रवेश कर रहा है। अरविंद केजरीवाल की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी सुनीता ने कुछ भूमिका निभाने की कोशिश की थी पर यह प्रभाव सही नहीं कि आम लोगों पर आधारित पार्टी भी एक परिवार तक सिंकुड कर रह गई है। सुनीता केजरीवाल आप के 40 स्टार प्रचारक की सूची में दूसरे नम्बर पर रखीं गई हैं। दूसरी राबड़ी देवी बनाने के प्रयास को पसंद नहीं किया जाएगा।
वैसे भी अभी उनकी पार्टी बहुत छोटी है। विपक्ष में वह कांग्रेस का मुक़ाबला नहीं कर सकते जो सारे देश में फैली है। अमित शाह ने भी कटाक्ष किया है कि जो पार्टी केवल 22 सीटों पर चुनाव लड़ रही है उसके नेता सारे देश में बिजली मुफ़्त करने का वादा कर रहें है। विपक्ष के नेता की भूमिका पर अब राहुल गांधी का अधिकार बनता है जिनकी स्वीकार्यता बहुत बढ़ गई है। यह स्थिति भी आ सकती है कि अरविंद केजरीवाल को पूरी ज़मानत न मिले और वह मुख्यमंत्री की ज़िम्मेवारी न निभा सकें। ऐसे में उन्हें इस्तीफ़ा दे कर अदालत में अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए और मुख्यमंत्री की ज़िम्मेवारी किसी साथी को सम्भाल देनी चाहिए। इस गरिमापूर्ण व्यवहार से उनकी इज़्ज़त बढ़ेगी। ज़बरदस्ती कुर्सी से चिपके रहने से उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुँचेगी।