चन्द्र मोहन
यह बिल्कुल लहर विहीन चुनाव है जैसा मैंने एक महीने पहले अपने लेख में भी लिखा था। यह नहीं कि लोगों को दिलचस्पी नहीं है। गली, मोहल्लों, चौपालों, बैठकों, रेलों, बसों में सब जगह चर्चा चुनाव की ही है। लेकिन परिणाम को लेकर एक प्रकार की अपरिहार्यता है, ‘आएँगें तो वो ही’। पर उत्साह नहीं है, न किसी के पक्ष में, न किसी के विपक्ष में। 2014 और 2019 वाला जोश ग़ायब है। 2014 में जनता यूपीए सरकार के घपलों से परेशान थी, और 2019 में बालाकोट पर कार्यवाही ने लहर पैदा कर दी थी। इस बार ऐसा कुछ नहीं है। पाकिस्तान तो मुद्दा ही नहीं रहा चाहे कुछ नेता उठाने की कोशिश करते रहतें हैं। स्थानीय फ़ैक्टर भी उतार चढ़ाव को प्रभावित कर रहे हैं। दिल्ली में मुख्यमंत्री की गिरफ़्तारी और अंतरिम रिहाई, झारखंड के आदिवासी मुख्यमंत्री की गिरफ़्तारी, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनाव सब अलग अलग तरह से चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं। महाराष्ट्र में पार्टियों में इतनी टूट हो चुकी है कि कोई निश्चय से नहीं कह सकता कि क्या होगा। चुनाव आयोग ने पहले चरण के मतदान के 11 दिन बाद और दूसरे चरण के मतदान के 4 दिन बाद डेटा जारी किया है। इस देर से आयोग ने अपनी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं और सुप्रीम कोर्ट भी सवाल कर रहा है। इन 5 चरण के मतदान से 5 बातें निकलतें है।
1.भाजपा दवारा शुरूआत विकसित भारत से की गई। 2047 की बात कही गई। इंफ़्रास्ट्रक्चर में भारी वृद्धि, डिजिटल इकॉनिमी का विस्तार,मिडलमैन को हटाना,करप्शन में कमी,आदि बहुत कुछ बताने को है। रोज़ 35 किलोमीटर सड़कें बन रही हैं, 100 नए एयरपोर्ट बने हैं, हम तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाले हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना में 3 करोड़ घर बने हैं, ‘हर घर नल से जल’योजना से 14 करोड़ घरों को नल से पानी मिला है। ‘प्रधानमंत्री की उज्ज्वल योजना’ के अंतर्गत 9.6 करोड़ घरों को गैस कनेक्शन मिले हैं, 12 करोड़ टॉयलेट बनाए गए हैं। यह सब योजनाएँ बिना किसी भेदभाव के बराबर सबको पहुँच रहीं हैं। धारा 370 जिसे पिछली कोई सरकार नहीं हटा सकी, को हटाना भी कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। श्रीनगर में 38 प्रतिशत शांतिमय मतदान जो पिछली बार से 14 प्रतिशत अधिक है, बताता है कि सरकार के कदम कितने सफल रहें हैं। बारामूला में भारी 58.17 प्रतिशत वोट पड़ा है जो महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से अधिक है। सरकार इन उपलब्धियों पर जायज़ नाज कर सकती है पर हैरानी है कि संवाद को मंगलसूत्र, भैंस, मुर्ग़ा- मछली, मटन, लैंड जिहाद आदि की तरफ़ मोड़ने का प्रयास किया गया। पर यह चुनाव बता रहें हैं कि यह कहानी पसंद नहीं की जा रही।
21 अप्रैल को राजस्थान में बंसवारा में प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर हमला करते वक़्त कह दिया, “पहले जब उनकी सरकार थी उन्होंने कहा कि देश की संपत्ति पर पहला अधिकार मुसलमानों का है… जिनके ज़्यादा बच्चे हैं उनको बाँटेंगे, घुसपैठियों को बांटेगे”। इस दुर्भाग्यपूर्ण भाषण को चुनाव के ध्रुवीकरण के प्रयास से जोड़ा गया। फिर प्रधानमंत्री ने यह कहते हुए भरपाई करने की कोशिश की कि, “मैं जिस दिन हिन्दू- मुसलमान करूँगा, उस दिन मैं सार्वजनिक जीवन में रहने योग्य नहीं रहूँगा। मैं हिन्दू-मुसलमान नहीं करूंगा, यह मेरा संकल्प है”। प्रधानमंत्री के इस बयान का स्वागत है। यह राष्ट्रीय हित में नहीं है कि देश के सबसे अधिक 20 करोड़ अल्पसंख्यकों को इशारों से अलग थलग कर दिया जाए और वह समझने लगे कि उन्हें यहाँ न्याय नहीं मिलेगा। पर फिर कह दिया कि यूपीए सरकार मुसलमानों के लिए देश के 15 प्रतिशत साधन रखना चाहती थी। इस सब से लोग असमंजस में हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिश्व शर्मा के अनुसार, “हमें यह निश्चित करना है कि बाबरी मस्जिद देश में फिर न बने…हमने भारत का हर मंदिर मुक्त करवाना है”। अर्थात् भविष्य के टकराव की विधि बता रहें है। कब समझ आएगी कि अगर यह मुद्दे पसंद किए जाते तो रोज़ मुद्दा बदलने की ज़रूरत न होती।
2. विपक्ष की लहर भी नहीं है। जहां यह तो स्पष्ट है कि भाजपा के लिए पिछली वाली बात नहीं है पर यह भी साफ़ है कि विपक्ष को सत्ता में स्थापित करने का माहौल भी नज़र नहीं आता। देश भर में कहीं भी यह नज़र नहीं आता कि नरेन्द्र मोदी या उनकी पार्टी को उखाड़ फेंकने का लोगों में संकल्प है। निराशा जरूर है। भाजपा के कार्यकर्ता उदासीन नज़र आ रहें है। भाजपा के लगभग 25 प्रतिशत उम्मीदवार दल बदलू हैं, अधिकतर कांग्रेस से है। इनकी हिन्दुत्व की विचारधारा में कोई आस्था नहीं। इससे भाजपा के काडर को बहुत ग़लत संदेश गया है। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी फिर पुराने मुद्दों को उठा रहे है। सोशल मीडिया का बड़ा वर्ग भी भाजपा विरोधी है। यूट्यूब पर भाजपा विरोधी चैनलों को लाखों लोग देखते है। प्रमुख टिप्पणीकार परकला प्रभाकर, जो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन के पति हैं, ने भविष्यवाणी की है कि भाजपा 200 से 220 के बीच सीटें जीतेगी और वह अपने राजग सहयोगियों के साथ 255 तक ही पहुँच सकती है। पर ऐसी भविष्यवाणी का बेसिस क्या है?
आँकड़े बता रहें हैं कि पिछले चुनाव में भाजपा ने 105 सीटें तीन लाख से अधिक वोट से जीती थीं और 125 सीटों पर 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। 2019 में भाजपा को 37 प्रतिशत और एनडीए को 45 प्रतिशत वोट मिला था जबकि कांग्रेस को 19 प्रतिशत और यूपीए को 38 प्रतिशत वोट मिला था। अर्थात् वोट दो गुना और सीटें लगभग छ: गुना। यह फ़ासला कुछ तो कम हो सकता है पर पूरा नहीं। विपक्ष विश्वस्त है कि सरकार के पक्ष में बालाकोट जैसा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है पर आँकड़ों को पार करना भी आसान नहीं। जैसी आँधी ने इंदिरा गांधी को उखाड़ फेंका था, वैसी आँधी आज नज़र नहीं आ रही। बहुत बड़ी छलांग की ज़रूरत है। इस सवाल का जवाब भी विपक्ष के पास नहीं कि विकल्प क्या है? नरेन्द्र मोदी नहीं तो कौन?
3. सत्ता पक्ष के लिए यह चिन्ताजनक खबर है कि इस चुनाव में बेरोज़गारी बड़ा मुद्दा है। राम मंदिर का मुद्दा अब पीछे चला गया है। पहले भी जो सर्वेक्षण निकले थे उनमें जहां यह बताया गया कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के बराबर कोई नहीं है, वहाँ यह भी बताया गया कि आर्थिक कष्ट, बेरोज़गारी, महंगाई, खेती का संकट बड़े मुद्दे है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव की सभाओं में जो भीड़ आ रही है वह बड़ी संख्या में बेरोज़गार युवाओं की है।सरकारी योजनाओं के लाभार्थी भी सही रोज़गार की माँग कर रहें हैं। बढ़ती असमानता भी चर्चा का विषय है। अग्निवीर योजना और पेपर लीक से युवा परेशान और नाराज़ है। अग्निवीर योजना जहां 75 प्रतिशत भर्ती को चार वर्ष के बाद निकाल दिया जाता है के कारण पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उतराखंड, महाराष्ट्र,उत्तर प्रदेश जहां से बहुत युवा सेना में भर्ती होने का सपना देखते हैं, में असंतोष है। युवा कह रहें हैं कि राजनेताओें की अपनी रिटायरमेंट की सीमा नहीं पर युवाओं को चार साल बाद भरी जवानी में रिटायर कर दिया जाता है। हिसार में एक साल में सेना में भर्ती के आवेदन 22 हज़ार से कम होकर 6 हज़ार रह गए हैं। कांग्रेस ने सता में आने पर इस योजना को रद्द करने का वायदा किया है भाजपा को भी पुनर्विचार करना चाहिए। दशकों से सही चली आ रही सेना में भर्ती प्रक्रिया से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। इन्हीं प्रदेशों में खेती का संकट भी किसान को परेशान कर रहा है। पंजाब और हरियाणा विशेष तौर पर उत्तेजित हैं।
4. यह पहली बार है कि संविधान भी चुनाव में मुद्दा बना है। शुरूआत ‘400 पार’ के दावे से हुई कि हम दो तिहाई बहुमत के बल पर अपने मुद्दे निपटाना चाहते हैं। पर भाजपा के कुछ नासमझ नेताओं बहुत आगे बढ़ गए और कहना शुरू कर दिया कि हम इतना बहुमत चाहतें हैं कि हम संविधान बदल सकें। यह बैकफायर कर गया। जिस संविधान को प्रधानमंत्री मोदी ‘पवित्र ग्रंथ’ कह चुकें हैं उसे बदलने की बात पहले भाजपा के सांसद अनन्त कुमार हेगड़े ने और बाद में अरण गोविल, लालू सिंह, ज्योति मिर्धा, दिया कुमारी ने दोहरा दी। इससे बहुत डैमेज हुआ है क्योंकि विपक्ष ने संविधान बदलने की इच्छा को आरक्षण ख़त्म करने की कथित साज़िश से जोड़ दिया। विशेष तौर पर दलित, ओबीसी,अनुसूचित जाति और जनजाति में बेचैनी है कि भारी बहुमत प्राप्त कर भाजपा का एजेंडा आरक्षण ख़त्म करने का है। प्रधानमंत्री मोदी को खुद कहना पड़ा कि उनका संविधान बदलने या आरक्षण ख़त्म करने का कोई इरादा नहीं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस संविधान और आरक्षण की क़समें खा रही है। लेकिन संविधान की अक्षुण्णता को लेकर जो बवाल मचा है उसका एक फ़ायदा अवश्य होगा कि भविष्य में अगर कोई सिरफिरा नेता संविधान से छेड़खानी करने की सोच भी रहा होगा उसे समझ आ जाएगी कि जनता यह बर्दाश्त नहीं करेगी।
5. लोग अब नहीं चाहते कि वह मुद्दे उठाए जाऐं जो बाँटते है। न ही लोग चाहतें है कि कोई नेता या पार्टी अत्यधिक शक्तिशाली हो जाए। हिन्दू-मुसलमान बहुत हो चुका। हमें याद रखना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने यह स्वीकार किया था कि भारत का राष्ट्रवाद हमारी अनेकों पहचानों के बल पर मज़बूत होगा न कि उन्हें दबा कर। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने लिखा है कि हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात तो करतें हैं,पर सारी दुनिया को गले लगाने से पहले हम अपने देश के लोगों को तो गले लगाएँ! वैसे भी साम्प्रदायिकता हमारे दर्शन के विरूद्ध है। अगर हमने दुनिया में अपनी जगह बनानी है तो लड़ना झगड़ना बंद करना होगा। अटलजी ने संसद में कहा था “सरकारें आएँगी, जाऐंगी, पार्टियाँ बनेगी, बिगड़ेंगी, मगर यह देश रहना चाहिए, इसका लोकतंत्र रहना चाहिए”। इस चुनाव में उन मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर जो बाँटते हैं, जनता ने भी यही संदेश दिया है। वह अब ज़मीन से जुड़ी नई कहानी चाहती है।