नई सरकार स्थापित हो गई। प्रधानमंत्री मोदी बता रहें हैं कि वह पुराने गियर में लौट आऐं है। गठबंधन सरकार होने के बावजूद सारे प्रमुख मंत्रालय भाजपा के पास हैं। सहयोगियों को झुनझुना दे कर संतुष्ट कर लिया गया है। स्पीकर भी ओम बिरला को बना कर संदेश है कि कुछ नहीं बदला। लेकिन नरेन्द्र मोदी को भी अहसास होगा कि चुनाव परिणाम ने बहुत कुछ बदल दिया है। विपक्ष का रूख तीखा है और देश का मूड बदल चुका है। लोग महंगाई और बेरोज़गारी पर केन्द्रित हैं और बता रहें हैं कि जो अब तक चलता रहा है उसे पसंद नहीं किया गया। इस सरकार का दुर्भाग्य है कि शुरू में ही गम्भीर शिकायतों के विस्फोट हो रहें हैं। नीट परीक्षा के घपले से अभी उभरे ही नहीं थे कि अयोध्या से नव निर्मित राम मंदिर में बरसात में पानी टपकने की खबरे आने लग पड़ी। प्रधानमंत्री द्वारा कुछ महीने पहले उद्घाटन किए गए मुम्बई हार्बर लिंक रोड में दरारें नज़र आने लगी है। एक के बाद एक, तीन एयरपोर्ट की छत गिर गई, जबलपुर, दिल्ली और राजकोट। दिल्ली पानी में डूब गई और बिहार में नौ दिन में पाँच पुल बह गए।
इन सब घटनाओं में दो बातें सामान्य है। एक कि मेटिरियल सही नहीं लगाया गया लगता। अर्थात् भ्रष्टाचार हुआ है। दूसरा, कोई जवाबदेही तय नहीं की गई और कुछ छोटे मोटे अफ़सरों को पकड़ कर मामला रफादफा कर दिया जाता है। दिल्ली का इंदिरा गांधी एयरपोर्ट तो एक प्रकार से हमारे एयरपोर्टस का ‘जयूल इन द क्राउन’ है। इसकी एक छत गिरने से सारी दुनिया में हमारी बदनामी हुई है। किसी भी दूसरे देश से इतने हादसों की खबर नहीं आती जितनी हमारे देश से आती है। हमने इंफ़्रास्ट्रक्चर में बहुत विस्तार किया है। पिछले दशक में 75 नए एयरपोर्ट बनाए गए जो बहुत प्रशंसनीय है पर क्या उनकी छतें सुरक्षित हैं? अब तो हालत यह है कि जब भी एयरपोर्ट जाएँगे तो उपर देखना पड़ेगा कि छत तो नहीं गिरने वाली! हाल ही में भर्ती के लिए पाँच परीक्षा रद्द करनी पड़ी क्योंकि या तो पेपर लीक हो गया या कोई और घपला हुआ। पिछले 7 सालों में 70 पेपर लीक हो चुके हैं जिसका लाखों बच्चों पर असर पड़ा है। यह कैसी जर्जर व्यवस्था है? एक परीक्षा के लिए बच्चा साल भर तैयारी करता है। कई के लिए दो-दो साल। माँ बाप भी खूब पैसा खर्च करते हैं पर जब परीक्षा आती है तो पता चलता है कि पेपर लीक हो गया। हमारी परीक्षा प्रणाली की शुद्धता और शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता खतरें में है। पर कोई जवाबदेही नहीं। अगर बिहार में पुल लगातार बह रहें हैं या पेपर लगातार लीक हो रहें हैं तो क्या सम्बंधित मंत्री की कोई नैतिक ज़िम्मेवारी नहीं बनती? हम लाल बहादुर शास्त्री को याद तो करते हैं पर भूल जातें हैं कि एक रेल दुर्घटना के बाद उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान उस मंत्रालय का नेतृत्व कर रहें है जिसके अधीन करोड़ों बच्चों का भविष्य खतरें में पड़ गया है। अब तो विद्यार्थी परिषद भी इस्तीफ़ा माँग रहा है।
क्योंकि नैतिक ज़िम्मेदारी तय नहीं होती इसलिए बहुत ज़रूरी है कि देश में विपक्ष अपनी भूमिका निभाए। लोकतंत्र केवल एक पहिए पर नहीं चल सकता। इसलिए संतोष की बात है कि राहुल गांधी ने आख़िर हिचकिचाहट छोड़ कर प्रतिपक्ष के नेता का पद स्वीकार कर लिया है। मैंने भी 7 जून के अपने लेख में लिखा था, “अब राहुल गांधी को भी झिझक छोड़ कर दोनों हाथ से ज़िम्मेवारी सम्भालनी चाहिए”। राहुल गांधी अब राष्ट्रीय आवश्यकता बन गए है क्योंकि उनके सिवाय और कोई नहीं जो यह भूमिका निभा सकते है। 2024 का जनादेश भी बता गया कि बेरोज़गारी और महंगाई वह मुद्दे हैं जो जनता को परेशान कर रहें हैं, पाकिस्तान नही। जनादेश यह भी बता गया हे कि देश में कांग्रेस जैसी पार्टी की जगह हैं जो विचारधारा में भाजपा से सैंटर-लेफ़्ट हो। पर राहुल गांधी का जाति जनगणना पर ज़ोर समझ से बाहर है। क्योंकि दूसरे धर्म के नाम पर बाँट रहे हैं इसलिए आप जाति के नाम पर बाँटोगे? कभी सोचा है कि जाति जनगणना के नतीजे से कितनी मारधाड़ होगी? किस तरह सरकारी टुकड़ों के लिए जातियों में जूतमपैजार होगी? जाति जनगणना भारत को समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अराजकता में धकेल सकती है।
राहुल गांधी को सम्भल कर चलना होगा क्योंकि देश ने उन्हें बहुत बड़ी ज़िम्मेवारी सौंपी है। उनसे बहुत उम्मीद भी है। जो ‘पप्पू’ कह कर मज़ाक़ उड़ाते थे वह न केवल हाथ मिलाने के लिए मजबूर हैं बल्कि देश की बड़ी कमेटियों में उन्हें राहुल गांधी के साथ बैठना पड़ेगा। सीबीआई का डायरेक्टर चुनना हो या मुख्य चुनाव आयुक्त, राहुल गांधी कमेटी के तीसरे सदस्य होंगे। वह संसद की सबसे महत्वपूर्ण लेखा समिति के चेयरमैन होंगे जो सरकार के आर्थिक निर्णयों पर तीखी नज़र रखती है और खिंचाई कर सकती है। राहुल गांधी 2004 में सांसद बने पर 20 साल वह भटकते रहे और ज़िम्मेवारी उठाने से कतराते रहे। बीच में राजनीति को ‘ज़हर का प्याला’ भी कह दिया। महत्वपूर्ण मौक़ों पर वह देश से ग़ायब भी रहे जिससे उनको गम्भीरता से लेना मुश्किल हो गया था। 2014 और 2019 के चुनावों में वह नरेन्द्र मोदी के सामने टिक नहीं सके। लेकिन अब वह संवैधानिक पद पर तैनात है। क्योंकि उनका पिछला ट्रैक रिकॉर्ड बहुत समतल नहीं है इसलिए सवाल किया जा रहा है कि क्या वह अपना फ़र्ज़ सही निभा सकेंगे?
राहुल गांधी के बारे किसी ने टिप्पणी की है कि ‘इस बार विदेश न जा कर उन्होंने हैरान कर दिया’। ऐसी टिप्पणी क्यों हो? लेकिन उनमें भी बदलाव देखने को मिल रहा है। पहला बदलाव उनकी दो भारत जोड़ों यात्राओं में देखने को मिला जब राहुल को लोगों में घुल मिलते देखा। उन्होंने बहुत लोगों को गले लगाया और वह आत्मीयता और संवेदना दिखाई जो आजकल देखने को नहीं मिलती। वास्तव में दोनों भाई-बहन, राहुल और प्रियंका, की यह ख़ासियत है कि वह लोगों के बीच जातें हैं, उन्हें गले लगाते हैं और प्यार से बात करतें है। भाजपा का कोई ऐसा नेता नहीं जो भीड़ में घुस कर बात कर सके। सब रोड शो का सहारा लेते हैं। बेरोज़गारी, अग्निपथ योजना,मणिपुर और किसानी के संकट पर फ़ोकस कर राहुल गांधी सरकार को रक्षात्मक बनाने में सफल रहें है। दस साल के बाद संसद के अंदर विपक्ष की आवाज बिना बाधा के सुनी जा रही है। लगभग हर विपक्षी पार्टी के पास अच्छे वक्ता हैं। लेकिन विरोध के लिए विरोध नहीं होना चाहिए। जो काम सरकार सही करती है उसका समर्थन होना चाहिए। याद रखना चाहिए कि बांग्लादेश की लड़ाई के बाद विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहा था।
विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल गांधी के पहले आक्रामक भाषण ने देश में सनसनी पैदा कर दी है। जो सरकार दस साल मस्ती से चलती रही उसके सात मंत्रियों को जवाब देना पड़ा। गृहमंत्री अमित शाह ने तो स्पीकर से संरक्षण की माँग भी कर दी।ऐसा धमाकेदार भाषण बहुत देर के बाद सुनने को मिला। उन्होंने सरकार को रक्षात्मक बना दिया पर हिन्दू धर्म की व्याख्या करने की क्या ज़रूरत थी? हमारी राजनीति में धर्म की दखल कम करने की ज़रूरत है, उसे जारी रखने की नही। क्या राहुल गांधी ने जनादेश नहीं समझा कि लोगों की धार्मिक मामलों में रुचि नहीं रही? जिन राहुल गांधी ने दो दिन पहले हाथ में संविधान पकड़ा हुआ था ने इस बार धार्मिक महापुरुषों के चित्र पकड़े हुए थे। लोगों ने अपनी समस्याओं को सामने लाने के लिए आपको संसद में भेजा है धार्मिक ज्ञान दिखाने के लिए है। विपक्ष के नेता को शब्दों का सही चयन करना चाहिए। वह भाजपा और आरएसएस पर वार करना चाहते थे पर आवेश में कह गए कि, “जो अपने आप को हिन्दू कहतें हैं वह चौबीसो घंटे हिंसा करते है”। यह आपत्तिजनक है। बाद में उन्होंने इसे संशोधित किया। कौन अच्छा हिन्दू है, कौन नहीं है, यह फ़िज़ूल बहस है। आप दूसरों के पदचिह्नों पर क्यों चल रहें हो? बहुत से दूसरे ज्वलंत मुद्दे हैं जिन पर प्रतिपक्ष के नेता को बोलना चाहिए। और न ही शालीनता ही छोड़नी चाहिए। उन्हें विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों का अध्ययन करना चाहिए। अटलजी ने कभी मर्यादा नहीं छोड़ी।
राहुल गांधी विपक्ष के नेता तो बन गए पर चुनौतियाँ भी कम नहीं। सरकार के पास पूर्ण बहुमत है और वह कोई कमजोरी नहीं दिखा रही। कमजोरी दिखाना नरेन्द्र मोदी की फ़ितरत में नहीं है। कांग्रेस और भाजपा के बीच भी 99 और 240 का असंतुलन है। राहुल गांधी अभी ब्रिटेन की तरह ‘शैडो प्राइम मिनिस्टर’ नहीं है। मोदी बनाम राहुल के चुनाव में वह मोदी बराबर नहीं पहुँचे चाहे बड़ी छलांग लगाई है। दूसरा, कांग्रेस का संगठन कमजोर है और भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर सकता। निर्णय का अधिकार गांधी परिवार के तीन सदस्यों और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। पार्टी को और लोकतांत्रिक बनाने की ज़रूरत है जैसे इंदिरा गांधी से पहले थी। उत्तर प्रदेश में जो जीत मिली है वह बहुत कुछ समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के कारण मिली है। आगे जम्मू कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव हैं। इनके परिणाम पर भावी राजनीति टिकी हुई है। वैसे वहाँ इंडिया गठबंधन के लिए लक्षण बुरे नहीं हैं। एक चुनौती इंडिया गठबंधन को सम्भाल कर रखने की होगी। ममता बैनर्जी जैसों को सम्भालना आसान नहीं है।
अभी तक राहुल गांधी ऐकला चलो रे की नीति पर चलते रहे हैं पर अब बड़ी ज़िम्मेवारी मिली है इसलिए सम्भलना होगा। इस में प्रियंका गांधी उनका बड़ा साथ दे सकती है। प्रियंका लोगों के बीच सहज है और उनकी भाषा बोलती है। हिन्दी का प्रवाह भाई से बेहतर है। राहुल गांधी की तरह बहुत कम आवेश में आती हैं।अपने भाई को भटकने से रोकने और राष्ट्रीय ज़िम्मेवारी पर केन्द्रित रहने का बड़ा काम प्रियंका गांधी को करना पड़ेगा।