
“12 साल के बाद भी कुछ नही बदला”, यह शब्द निर्भया की माता आशा देवी के हैं जिनकी बेटी की 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में चलती बस में बलात्कार के बाद अत्यंत क्रूरता के साथ हत्या कर दी गई थी। सारा देश रोंगटे खड़े करने वाली इस बर्बरता के बाद तड़प उठा था। कानून को सख़्त बनाया गया। उत्तेजित समाज ने जगह जगह कैंडल मार्च निकाले। पर अब कोलकाता के आर.जी.कर मैडिकल कॉलेज में युवा ट्रेनी डाक्टर की बलात्कार के बाद हत्या बताती है कि वास्तव में कुछ नहीं बदला, वहीं बीमार समाज, वहीं लचर व्यवस्था और वहीं खोखले राजनेता। उल्टा लगता है कि स्थिति और बिगड़ गई है। अब तो समाचार देखना या पढ़ना ही कष्टदायक हो गया है।
अभी कोलकाता वाला मामला ज्वलंत था कि महाराष्ट्र में बदलापुर से केजी की चार साल की दो बच्चियों के यौन शोषण का समाचार मिल गया। आरोपी उसी स्कूल का कर्मचारी है जिसने स्कूल के बाथरूम में उनका यौन उत्पीड़न किया। ग़ुस्साए लोगों ने उग्र प्रदर्शन किया। स्कूल पर तोड़फोड़ हुई। पर इससे क्या होगा इसके सिवाय कि समाज अपनी बेबसी प्रकट कर रहा है? यह कैसी हैवानियत है कि युवा डाक्टर अपने अस्पताल और बच्चियाँ अपने स्कूल में भी संरक्षित नहीं हैं? डाक्टरों की सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने टास्क फ़ोर्स बनाने की बात कही है, पर अब क्या स्कूलों के लिए भी टास्क फ़ोर्स बनाई जाऐंगे?और किस किस के लिए टास्क फ़ोर्स बनेगी? डाक्टर तो संगठित वर्ग है। उन्होंने क्रोध में हैल्थ सेवाएँ रोक दी पर जो संगठित वर्ग नहीं है उनकी कौन सोचेगा ? बदलापुर की घटना के बाद बॉम्बे हाई कोर्ट का कहना था कि ‘ऐसे कैसे चलेगा? लड़कियों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं हो सकता’। ऐसी ही बात राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, हर बड़ी अदालतें सब कहतें है पर ज़मीन पर तो अंतर नहीं आया।
असली बात है कि हमारे समाज का एक वर्ग मानसिक तौर पर बीमार है। महिला को वस्तु समझा जाता है। क़ानून उनकी हैवानियत को रोकने में नाकाम है। तस्वीर भयानक है। लगभग हर शहर और क़स्बे में यौन- अपराधियों की बढ़ती संख्या झकझोर करने वाली है। आभास है कि कहीं भी महिला शाम और रात के वक़्त अकेली नहीं जा सकती, जगह जगह भेड़िए भरे हुए हैं। कोलकाता कि घटना के बाद बैंगलोर, देहरादून ,उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश ,रायगढ़ ,जोधपुर, दिल्ली , उतराखंड, असम, बिहार सब जगह से ऐसे समाचार मिलें हैं। कोलकाता के दो अस्पतालों से महिला उत्पीड़न के और समाचार मिलें हैं। 2022 में हमारे देश में 31000 रेप हुए थे। तब से हालात बिगड़े ही है। और वह कितने मामले हैं जो दबाव में या समाजिक लाज के रिपोर्ट नहीं किए गए? ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ के सरकारी नारे पर कटाक्ष करते हुए लोगों ने पोस्टर निकाला, ‘बेटी पढ़ी, पर बची नहीं’। किसी को ‘निर्भया’ कहा गया तो किसी को ‘अभया’। पर इससे क्या होगा जब कि आए दिन हो रहे दुष्कर्म संकेत है कि बहुत लोग यहाँ सैक्स- मरीज़ हैं।
विदेश में सोशल मीडिया पर भारत को विश्व की ‘रेप कैपिटल’ कहा जा रहा है जो सही नहीं है। जनसंख्या के अनुपात में यहाँ कम ऐसी घटनाऐं होती हैं पर हो तो रही है, और दैनिक तौर पर हो रही हैं। यूएई जैसे देशों में देर रात तक महिलाओं को अकेले चलते देखा जासकता है। किसी की हिम्मत नहीं कि उस तरफ़ आँख उठा कर देख भी सके। पत्रकार पत्रलेखा चटर्जी बैंकाक से लिखतीं हैं, “ मैं बिना किसी डर से सड़क पर अकेली चलती हूँ, देर रात सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करती हूँ…पर मैं पीछे मुड़ कर नहीं देखती कि कौन मेरा पीछा कर रहा है”। ऐसी हालत हमारे देश में क्यों नहीं हैं? इसलिए क्योंकि समाज बीमार है, व्यवस्था लचर और राजनेता खोखले भाषण दे आगे बढ़ जातें है। हमारी व्यवस्था कितनी ग़ैर गम्भीर है यह इससे पता चलता है कि कोलकाता में महिला सुरक्षा को लेकर मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने मार्च निकाला। आपके काम तो सुरक्षा देना है तमाशा करना नही।
रेप या शोषण करने वाले अज्ञात पुरूष ही नहीं होते बहुत मामलों में परिचित भी होतें हैं जैसे बदलापुर के स्कूल में हुआ या कोलकाता के अस्पताल में हुआ। कई बार तो घर भी सुरक्षित नहीं है और अपराधी परिवार का सदस्य होता है। उत्तर प्रदेश में एक पिता साल भर अपनी बेटी का यौन शोषण करता रहा। आख़िर में माँ ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई तो रूका। दक्षिण की प्रसिद्ध अभिनेत्री और राजनेता ख़ुशबू सुन्दर ने बताया है कि 8 वर्ष की आयु में उनके पिता ने उनका यौन शोषण किया था। वह बताती हैं, “मेरा उत्पीड़न उसने किया जिसने मेरा बचाव करना था”। ऐसी बात सार्वजनिक तौर पर कहना बहुत दिलेरी माँगता है पर सवाल तो है कि ऐसी कितनी और है जो दबाव में चुप रहने को मजबूर हैं?बँगला अभिनेत्री अपर्णा सेन का कहना है कि ‘रेपिस्ट अंकल या ससुर या बहनोई या कज़न या रिश्तेदार या पारिवारिक मित्र हो सकता है’। इस सूची में टीचर भी जोड़े जासकता हैं। कोयम्बटूर में एक टीचर महीने से 9 बच्चियों का यौन शोषण करता रहा। जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलती, कुछ नहीं हो सकता। मुलायम सिंह यादव का शर्मनाक कथन याद आता है “ लडके हैं लड़कों से गलती हो जाती है”। एक महिला या बच्ची की ज़िन्दगी तबाह हो जाती है और यह इसे मात्र ‘गलती’ करार दे रहें थे। हमारे पुरूष प्रधान समाज में रेप और महिला उत्पीड़न को बदले के हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है जैसे मणिपुर में देखा गया जहां तीन कुकी महिलाओं को नग्न कर घुमाया गया और मैतेई पुरूषों द्वारा रेप किया गया।
ऐसी ख़तरनाक स्थिति से निबटने के लिए ज़रूरी है कि व्यवस्था चुस्त और निष्पक्ष हो। कोलकाता मामले को पहले आत्महत्या का बताने की कोशिश की गई। एफआईआर 14 घंटे बाद दर्ज करवाई गई। मैडिकल कालेज के प्रिंसिपल को पहले निलम्बित किया गया फिर दूसरे किसी कालेज में नियुक्ति दे दी गई। उसे बचाने की इतनी कोशिश क्यों की गई? बदलापुर में पुलिस ने 12 घंटे केस दर्ज करने से बचती रही। क्या उपर से किसी निर्देश की इंतज़ार था? दुख यह भी है कि बदलापुर थाने की पुलिस निरीक्षक महिला हैं। उसे इन बच्चियों पर तरस नहीं आया? कठुआ में 8 वर्ष की लड़की का यौन उत्पीड़न हुआ पर मामला भड़का नही। इसलिए कि वह मुस्लिम थी? क्या रेप पीडिता का धर्म देख कर हमारी उत्तेजना जागेगी? बिलकिस बानो के सामूहिक रेप और परिवार की हत्या के आरोपियों को 14 साल के बाद रिहा कर दिया गया जबकि आजीवन कारावास की सजा थी। आख़िर में सुप्रीम कोर्ट ने दखल दे कर उन्हें वापिस जेल भिजवाया। और भी शर्मनाक है कि जब यह लोग जेल से बाहर आए तो उनका हार डाल कर स्वागत किया या। हाथरस में एक दलित युवती के साथ चार ने सामूहिक बलात्कार किया। दो हफ़्ते के बाद युवती की दिल्ली के अस्पताल में मौत हो गई और उसके शव को ज़बरदस्ती रात के समय परिवार को घर में बंद कर जला दिया गया।
इस मामले में उग्र प्रतिक्रिया क्यों नहीं हुई? इसलिए कि वह एक गरीब दलित महिला थी। न मीडिया को,न मिडल कलास जो कैंडल मार्च निकालती है, को दिलचस्पी थी। व्यवस्था की कमजोरी भी अपराध को आमंत्रित करती है। पुलिस और जाँच अधिकारी मामला लटकाने की कोशिश करते हैं जब तक कि वह दबाव में नही आजाते, जैसे निर्भया और अभया के मामले में हुआ है। अगर कोई टास्क फ़ोर्स बन भी जाती तो भर्ती तो ऐसे लोगों की ही होगी जो मामला खींचने में माहिर है। न्यायपालिका की सुस्त चाल, तारीख़ पर तारीख़, भी अभियुक्तों को दिलेर बनाती है। इसकी शिकायत अब राष्ट्रपति ने भी की है। निर्भया मामले में चार लोगों को फाँसी पर लटकाने में सात साल से अधिक लग गए। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का क्या फ़ायदा जबकि मानसिकता स्लो ट्रैक है? अजमेर में 1992 में एक गैंग ने 100 स्कूली छात्राओं से बलात्कार किया था। छह को अब 32 साल के बाद आजीवन कारावास की सजा दी गई है। 32 साल बाद? छह लड़कियों ने तो आत्म हत्या कर ली थी। 32 साल में 10 बार चार्जशीट दाखिल की गई। ऐसी न्यायपालिका में भी कौन विश्वास करेगा जहां इंसाफ़ मिलने में 32 साल लग जाते हैं? अगर निर्धारित समय में सजा हो जाए तो कुछ फ़र्क़ ज़रूर पड़ेगा।
क्या कुछ बदलेगा या मामला ठंडा पड़ जाने के बाद आक्रोश भी ठंडा पड़ जाएगा? विशेषतौर पर अगर पीड़िता गरीब है या कमजोर हैं तो मामले पर गौर ही नहीं किया जाएगा? प्रतिक्रिया पीडिता की जात या धर्म या स्तर को देख कर तो व्यक्त नही की जाएगी? मैं तो समझता हूँ कि कुछ नहीं बदलेगा जब तक समाज नहीं बदलता या व्यवस्था मुजरिमों पर मेहरबानी करना बंद नहीं करती जैसे बृज भूषण सिंह पर की गई थी या गुरमीत राम रहीम के साथ आजकल की जा रही है। आख़िर में घर से शुरू होना है। संस्कार गड़बड़ा चुकें हैं। माँ बाप परवाह नहीं करते कि लड़का क्या कर रहा है,किधर जा रहा है क्या देख रहा है। फ़ोन पर खुला पोर्न उपलब्ध है जो वर्तमान स्थिति के लिए बहुत हद तक ज़िम्मेवार है। ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म पर भी सब कुछ खुला और आपत्तिजनक दिखाया जाता है। सरकार नियंत्रण करना चाहती पर हिम्मत नहीं दिखा पा रही कि कथित लिबरल वर्ग पीछे पड़ जाएँगे कि सरकार का दक़ियानूस नज़रिया है। पर जब कोई हादसा हो गया तो सबसे पहले सरकार को कोसने और कैंडल मार्च निकालने वाले भी यही कथित लिबरल लोग होंगे। सरकार को इस ओर सख़्ती से कदम उठाने चाहिए। वैसे सैंसर लगाना चाहिए जैसा फ़िल्मों पर है।सरकार का वैसे भी कर्तव्य बनता है कि समाज को फिसलने से और परिवारों को उजड़ने से बचाए।
अंत में: ऐसी घटना के बाद परिवार की हालत क्या बनती है यह आशा देवी के इन मार्मिक शब्दों से पता चलता है जो उन्होंने कोलकाता की घटना के बाद ज्योत्सना मोहन के साथ इंटरव्यू में कही है, “ डर मन से नही निकलता पर जीने के लिए तो कुछ करना ही पड़ता है। ठीक है…हमें हर वक़्त और हर जगह प्रूव करना पड़ता है कि हमारी बच्ची के साथ रेप हुआ है। यह तकलीफ़ देता है। लोगों को लगता है कि फाँसी लग जाएगी पर होता नही। बहुत लूपहोल हैं…हम जीतेजी मर जातें हैं। माँ बाप रोज़ मरते हैं। इंसाफ़ के लिए दर दर भटकते हैं। अंदर तकलीफ़ दबा कर रखना पड़ता है… यह तकलीफ़ हमारी सरकारों को नहीं होती। जिसकी औलाद जल जाती है उसे मालूम होता है”।