मुगल, लखनऊ वाले और दिल्ली वाले (Mughals of Lucknow and Delhi)

पंजाब विधानसभा के चुनाव में कम समय रह गया है इसलिए कुछ रुझान स्पष्ट हो रहे हैं। सत्तारूढ़ अकाली-भाजपा को भारी सत्ता विरोधी भावना का सामना करना पड़ रहा है। यह नहीं कि काम नहीं किया। इस सरकार की दो बड़ी उपलब्धियां हैं। इन्होंने दस साल साम्प्रदायिक सौहार्द कायम रखा और इंफ्रास्ट्रक्चर में बहुत काम किया लेकिन परिवारवाद, भ्रष्टाचार, बेअदबी और ड्रग्स जैसे मुद्दे चुनाव में भारी रहेंगे। अकाली दल की बड़ी कमजोरी है कि भाजपा यहां कमज़ोर है। पार्टी का हाईकमान भी पंजाब की बहुत परवाह नहीं करता लगता जो उम्मीदवारों की घोषणा में देरी से पता चलता है। भाजपा जैसी चुस्त पार्टी की यह बेतैयारी हैरान करने वाली है। यह इसलिए भी हैरान करने वाली है क्योंकि पंजाब चुनाव एक मामले में भविष्य के संकेत देंगे कि 2019 में भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी कौन होगा, कांग्रेस या आप? लेकिन भाजपा इस वक्त पंजाब की राजनीति से गायब लगती है चाहे एक फीकी विजय यात्रा अवश्य निकाली गई है जिस दौरान भी काफी लड़ाई झगड़ा हुआ।

सुखबीर बादल के लिए यह चुनाव महत्व रखते हैं क्योंकि इसके बाद उन्हें सरदार प्रकाश सिंह बादल का संरक्षण नहीं मिलेगा। संरक्षण की समस्या मुख्य विपक्ष पार्टी कांग्रेस, जिसे कुछ सर्वेक्षण चुनाव का फ्रंट रनर बता रहे हैं, में भी बहुत है क्योंकि सोनिया गांधी बीमार चल रही हैं जबकि निर्णायक क्षण में जब चुनाव की रणनीति तय करनी है और टिकटों का बंटवारा होना है राहुलजी विदेशों में छुट्टियां मना रहे थे। खैर, अब तो सुना है कि वह वापिस आ गए हैं पर पार्टी के प्रति राहुल की लापरवाही (अरुचि?) बहुत नुकसान कर रही है। अमरेन्द्र सिंह मेहनत तो बहुत कर रहे हैं। ऐसी मेहनत तो उन्होंने पहले कभी नहीं की पर हाईकमान ने अभी तक उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया। कथित हाईकमान की अक्कड़ कायम है। रस्सी जल गई बल न गया!

अमरेन्द्र सिंह के खिलाफ पटियाला से अकाली दल पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह को अकाली उम्मीदवार के तौर पर उतार रही है। अकाली दल के लिए अवश्य यह एक मास्टर स्ट्रोक कहा जा सकता है पर जनरल जे.जे. सिंह के लिए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। इतनी बड़ी सेना के चीफ रहे जनरल सिंह अब मामूली एमएलए बनेंगे? और अगर वह हार गए तो? क्या राजनीति में आने से उनकी चमकती वर्दी को धब्बा नहीं लगेगा? क्या जरूरत थी इस कीचड़ में फंसने की?

भगवंत मान खुद को आप का सीएम उम्मीदवार पेश कर रहे हैं चाहे अभी उन्होंने सुखबीर बादल से जलालाबाद में मुकाबला करना है जबकि पंजाब प्रभारी संजय सिंह कह रहे हैं कि मान जो भी कहें वह आप के सीएम कैंडिडेट नहीं हैं। क्या यह इसीलिए कहा जा रहा है कि अगर पार्टी जीत जाती है तो खुद अरविंद केजरीवाल सीएम बनना चाहेंगे? या संजय सिंह की भी महत्वकांक्षा है? लेकिन आप के नेतृत्व को भी अहसास होगा कि पहले से पार्टी की स्थिति का अवमूल्यन हुआ है। वह स्थिति नहीं है जब लग रहा था कि आप 100 सीटें ले जाएगी।

सुखबीर बादल का कहना है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो प्रकाश सिंह बादल ही मुख्यमंत्री होंगे। अर्थात् वह अपने पिता को पूरा सम्मान दे रहे हैं पर ऐसी स्थिति उत्तर प्रदेश में नहीं है जहां पिता और पुत्र के बीच लम्बा अशोभनीय दंगल चल रहा है।

कई बार तो यह मुगल दरबार जैसा ड्रामा लगता है जहां बेटे ने बाप को किले में कैद कर लिया या भाई ने भाई की हत्या करवा दी। मुलायम सिंह यादव के परिवार की राजनीतिक कलह उतनी गंभीर तो नहीं है और सब कुछ लोकतांत्रिक तरीके से लड़ा जा रहा है और यदाकदा मुलायम सिंह ‘बेटे’ को याद कर लेते हैं पर फिर भी एक दूसरे को मात देने में और तख्ता पलटने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। यह भी शुद्ध तख्त की लड़ाई है जिसमें परिवार का मुखिया सत्ता नहीं छोड़ने चाहता और उसे अपने ज्येष्ठ पुत्र से गंभीर चुनौती मिल रही है। बेटा बागी है। दूसरे पात्रों में मुखिया की दूसरी पत्नी, उसके बच्चे, दो बहुएं तथा कई ‘अंकल’ हैं जो एक दूसरे के खिलाफ साजिशें रचते रहते हैं।
लेकिन एक बात तो साफ है कि परिवार के मुखिया, मुलायम सिंह यादव, जिन्होंने पार्टी को खड़ा किया, के हाथ से सत्ता फिसल रही है। विधायकों का भारी बहुमत अखिलेश के साथ है लेकिन मुलायम के पास भी तुरुप के दो पत्ते हैं। एक, साइकिल का चुनाव चिन्ह अभी उनके पास है। दूसरा, उनका चेहरा उनके पास है अर्थात् अखिलेश अगर अलग रास्ते पर चलते हैं तो सपा के बादशाह की तस्वीर का वह इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे। पर सब एक दूसरे को ढहाने में लगे हैं।

मुलायम सिंह यादव जानते हैं कि उनके लिए समय तेजी से गुज़र रहा है। बेहतर होता कि वह शालीन ढंग से पुत्र के लिए जगह खाली कर देते पर मुलायम लगाम छोड़ने को तैयार नहीं और उन्होंने अपने इर्दगिर्द जिन आधारहीन लोगों को इकट्ठा किया हुआ है वह उन्हें लड़ने की उत्तेजना देते रहते हैं। अखिलेश यादव जानते हैं कि समय और आयु उनके साथ हैं। अगर हार भी गए तो फिर मौका मिलेगा पर मुलायम सिंह अपनी अंतिम लड़ाई लड़ते नज़र आ रहे हैं। उनकी हालत सर्दियों में बूढ़े दंतविहीन शेर जैसी बन रही है।

परिवारों में भी हम देखते हैं कि जब बेटा बड़ा हो जाता है तो कई बार पिता उसे जगह देने को तैयार नहीं होता। हर संस्था को नए खून और नए विचारों की जरूरत होती है। मुलायम सिंह यादव क्योंकि पुरानी जातिवादी राजनीति की उपज हैं इसलिए और कुछ सोच नहीं। भारत बहुत बदल गया है और महत्वकांक्षी हो चुका है। नोटबंदी ने इसे और बदल दिया। ‘सैक्युलर’, ‘सैक्युलर’ शोर मचाने से भी कुछ नहीं बनेगा जबकि सब जानते हैं कि निष्ठा सैक्युलरिज़्म में नहीं है ‘पावर’ में है।

सपा के गृहयुद्ध से दो को फायदा है। एक खुद अखिलेश यादव हैं जिनकी आजाद सशक्त हस्ती कायम हो रही है तथा दूसरा भाजपा है जो अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी के बिखराव का लुत्फ उठा रही है। बसपा को फायदा हो सकता था पर वह नोटबंदी के बाद नोटों की गिनती में फंस गई है।

पंजाब कांग्रेस का घोषणापत्र डा. मनमोहन सिंह ने जारी किया क्योंकि तब तक कांग्रेस के मुगल युवराज विदेश में छुट्टियों से नहीं लौटे थे। अंग्रेजों के जमाने में वायसराय भी छुट्टियां मनाना नहीं भूलते थे। ज़माना बदल गया पर दिल्ली के मुगलों की शाही आदतें नहीं बदलीं!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.