आक्रमण रक्षा का सबसे बेहतर तरीका है। इसी सिद्धांत को अपनाते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने विधि आयोग की उस प्रश्नावली को गुस्से से रद्द कर दिया है जिसमें पूछा गया था कि क्या देश में समान नागरिक कानून की जरूरत है या नहीं? विधि आयोग संविधान के मुताबिक काम कर रहा है और यह सवाल सभी धर्मों से सम्बन्धित है। बहस करने की जगह बोर्ड के महासचिव सैयद मोहम्मद वली रहमानी ने तो नरेन्द्र मोदी सरकार पर ही हमला कर दिया कि उसने मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों के खिलाफ जंग शुरू कर दी है और अगर समान नागरिक कानून लागू किया गया तो भारत की विविधता खतरे में पड़ जाएगी।
किसी भी लोकतंत्र में मसलों का निपटारा बहस से होता है। स्विट्जरलैंड में हर बड़े छोटे मसले पर जनमत संग्रह करवाया जाता है पर यहां यह संस्था जो खुद को मुसलमानों का प्रतिनिधि होने का दावा करती है, बहस से ही भाग रही है। देश बहुत बड़ा है और सबको साथ लेकर चलने की जरूरत है पर संविधान की यह मांग है कि यहां समान कानून लागू किया जाए। गोवा में ऐसा है। देश भी संविधान के मुताबिक चलना चाहिए कथित धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नहीं। लेकिन जब ऐसा हलका सा भी प्रयास किया जाता है तो मुस्लिम कट्टरवादी संगठन जिन्हें अपनी दुकानदारी की चिंता है, आसमान सिर पर उठा लेते हैं। खिसयानी बिल्ली खम्भा नोच रही है।
आजादी के बाद के इन सात दशकों में दुनिया बहुत बदल गई है। हिन्दू कानून में बहुत परिवर्तन हो चुका है। सती प्रथा से लेकर दहेज, जायदाद में लड़कियों को बराबरी का अधिकार, विधवाओं के अधिकार, घर के अंदर हिंसा आदि मसलों पर बहुत प्रगतिशील कानून बन चुके हैं जो आज के माहौल के अनुसार हैं। जिन मंदिरों में सदियों से महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी थी उनके किवाड़ महिलाओं के लिए खोले जा रहे हैं। यह नहीं कि हिन्दुओं में इसका विरोध नहीं था लेकिन मुख्यधारा सही उदारवादी बदलाव चाहती है इसलिए यहां कट्टरवादियों की नहीं चलती। यह हिन्दू धर्म की ताकत भी है। लेकिन दुर्भाग्यवश मुसलमानों में कट्टरवादी हावी रहते हैं और जब भी कोई परिवर्तन करने की कोशिश करता है तो शरियत तथा इस्लामी कानून का हवाला देकर तूफान खड़ा कर उसे चुप करवाने की कोशिश करते हैं। परिणाम यह है कि आधुनिकता, न्याय, आजादी, बराबरी आदि की जो अवधारणाएं हैं उनके साथ उनका टकराव होता है।
आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाएं आधुनिक दुनिया के साथ संवाद पैदा करने में पूरी तरह अक्षम रही हैं। वह उन परम्पराओं से चिपके हुए हैं जो अरब देशों में कभी सार्थक थीं। वह अपने समुदाय को कैदी रखना चाहते हैं ताकि उनकी पूछ रहे। वैसे भी यह सवाल जायज़ उठता है कि बखेड़ा खड़ा करने के सिवाय इस बोर्ड का योगदान क्या है? वह क्यों मुसलमानों के मुख्यधारा में शामिल होने का विरोध करते हैं?
सुप्रीम कोर्ट में मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक, हलाला निकाह तथा बहुविवाह का विरोध कर केन्द्रीय सरकार ने पहली बार देश की महिलाओं के बहुत बड़े वर्ग से हो रहे अन्याय को खत्म करने की तरफ बड़ा कदम उठाया है।
देश की सबसे बड़ी अदालत का भी कहना था कि तीन तलाक की वैधता की संवैधानिक मापदंडों पर परीक्षण करने की जरूरत है। उत्तराखंड की सायरा बानो ने एक अपील दायर कर तिहरे तलाक पर कानूनी पाबंदी लगाने की मांग की। और मुस्लिम महिलाओं ने भी अदालत में गुहार लगाई कि तीन तलाक पर पाबंदी लगाई जाए। तीन तलाक का मामला अब तो और भी गंभीर हो गया है क्योंकि कईयों के शौहर आधुनिक संचार के साधन जैसे फोन, व्हाट्सअप, स्काइप या एसएमएस या फेसबुक द्वारा तलाक दे रहें हैं। याचिका देने वालों में 25 वर्षीय अफरीन भी है जिसे उसके पति ने स्पीड पोस्ट के जरिए तलाक दे दिया था। इस शर्मनाक तीन तलाक की प्रथा के विरोध में जून में 50,000 से अधिक मुस्लिम महिलाओं ने ऑनलाइन याचिका पर दस्तखत किए थे।
इनके अतिरिक्त लाखों मुसलमान महिलाएं हैं जो समाज के डर से इसका विरोध नहीं कर रहीं लेकिन अंदर घुट रही हैं। तलाक की तलवार सदैव उन पर लटक रही है मालूम नहीं कि किस वक्त यह घिनौने तीन शब्द, तलाक, तलाक, तलाक, बोल कर उन्हें बेदखल कर दिया जाएगा।
कई ऐसे उदाहरण भी हैं कि जहां शौहर ने शराबी हालत में पत्नी को तलाक दे दिया और जब सुबह होश आई तो अपनी गलती का एहसास हुआ लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वह पति पत्नी नहीं रहे। अब महिला को ‘निकाह हलाला’ से गुजरना पड़ेगा। अर्थात पहले उसे किसी और मर्द से निकाह लेना पड़ेगा और उसके साथ हमबिस्तर होना पड़ेगा। फिर उससे तलाक लेकर वह पहले शौहर से विवाह कर सकती है।
समय आ गया है कि इन मजहबी ठेकेदारों से मुस्लिम समाज को छुटकारा दिलवाया जाए। यह आधुनिक भारत का दायित्व है। ऐसी प्रथाएं नामंजूर हैं, नामंजूर हैं, नामंजूर हैं। मामला इंसानी हक तथा लैंगिक बराबरी का है और अंतिम फैसला अदालत का होना चाहिए किसी काज़ी या मुल्ला का नहीं।
तीन तलाक हमारे देश पर कलंक है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाओं से पूछा जा सकता है कि आप समान नागरिक कानून का विरोध कर रहे हो पर आप मुस्लिम महिलाओं के हक का क्यों विरोध कर रहे हैं? दोनों अलग मसले हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश, मिस्र, ईरान, मोरक्को, जार्डन आदि सब मुस्लिम देश बदल चुके हैं लेकिन यहां कट्टरवादी किसी भी परिवर्तन पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं।
सरकार को इनकी धमकी के आगे नहीं झुकना चाहिए और अपना धर्म निभाना चाहिए। जहां समान नागरिक कानून पर और बहस की गुंजायश है वहां महिलाओं के खिलाफ ज्यादती को तो तत्काल खत्म करना चाहिए। विभिन्नता को कायम रखने के नाम पर मुस्लिम महिलाओं का शोषण नामंजूर है। आज के आधुनिक भारत में मुस्लिम महिलाओं की हैसियत पुरानी जूती जैसी नहीं होनी चाहिए कि जब चाहा बाहर फेंक दिया। उत्तर प्रदेश के चुनाव के कारण दोनों, कांग्रेस तथा सपा, समान नागरिक कानून का विरोध कर रहे हैं। कांग्रेस पहले ही शाहबानो मामले में बहुत नुकसान कर चुकी है अब फिर नजर मुस्लिम वोट पर है। अब कहना है कि तीन तलाक का मामला उठा कर ध्रुवीकरण का प्रयास किया जा रहा है। अफसोस है कि 120 वर्ष पुरानी संस्था को राजनीति नजर आती है, महिलाओं का शोषण नहीं।
एक और वर्ग है जिसकी मुस्लिम महिलाओं से हो रही ज्यादती के प्रति खामोशी हैरान करती है। जिन्होंने ‘असहिष्णुता’ को लेकर देश में तूफान खड़ा किया था उनकी इस ज्यादती पर बोलती बंद क्यों है? मुस्लिम महिलाओं के हक में जुलूस क्यों नहीं निकाले जा रहे? सम्मान क्यों नहीं लौटाए जा रहे? कट्टरवादी मुल्ला, काज़ी, मौलाना आदि के खिलाफ धरने क्यों नहीं दिए जा रहे?
और हमारे तीन चमकते खान सितारे? वह खामोश क्यों हैं? हर बात पर बिन मांगे राय देने वाले यह तीन खान अपने ही समुदाय की महिलाओं के उत्पीड़न के बारे चुप क्यों हैं? इस मामले में उन्हें घोर असहिष्णुता क्यों नज़र नहीं आती?
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The decision of the Muslim Personal Law board is regressive, and it is evident that the self styled representatives of Islamic faith in India are caught in the medieval rut and aren’t ready to change and assimilate.
At a time when there is talk of gender equality all over the world, such a stand shows the chauvinistic mindset who control the religious belief system
The move of the government is the right one in the right direction, and should be supported overwhelmingly …