हमारे संविधान की उद्देशिका में लिखा है कि “भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथ- निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य” है। मूल प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथ- निरपेक्ष’ नही थे, इन्हें 1976 में एमरजैंसी के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने शामिल करवाया था। 1976 से लेकर आज तक दुनिया बहुत बदल चुकी है। समाजवाद के मक्का, रूस और चीन, में ही इसे दफ़ना दिया गया है। चीन के पूर्व नेता डेंग जियाओपिंग ने एक बार कहा था ‘अमीर होना भव्य है’। चीन की तरह रूस भी पूंजीवाद के रास्ते पर चल रहा है। चीन और रूस तानाशाही है जहां लोगों की भावना को आराम से कुचला जा सकता है पर भारत तो लोकतंत्र है जहां लोगों की तकलीफ़ों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। डर है कि जिस रास्ते पर हम बेधड़क बढ़ रहे हैं उससे समाजिक तनाव बढ़ेगा और पहले से हमारे समाज में जो दरारे है उन्हें और चौड़ा कर देगा। जेएनयू के प्रो.हिमांशु ने भी लिखा है, “भारत के संदर्भ में चिन्ताजनक है कि धर्म, जाति और लिंग जैसे मामलों में पहले से बँटे समाज में आर्थिक असमानता जुड़ रही है”।
कड़वी सच्चाई है कि दुनिया की सबसे तेज रफ़्तार से बढ़ रही हमारी अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक असमानता भी है। अमीर और अमीर हो रहें हैं और ग़रीबों की हालत में बहुत सुधार नहीं हो रहा। उनके अच्छे दिन नहीं आ रहे। अमीर और गरीब के बीच जो फ़ासला है वह चिन्ताजनक और ख़तरनाक ढंग से बढ़ रहा है। उच्च रईस वर्ग ने देश की दौलत के बढ़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया है। इस में सरकारी नीतियों का भी कुछ हाथ है। दूसरी तरफ़ जो गरीब और पिछड़े हैं, वह ज़िन्दगी की गाड़ी चलाने, बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और परिवार के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहें हैं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 119 बिलिनियर (अरबपति) हैं और 2018- 2022 के दौरान भारत रोज़ाना 70 मिलिनियर (लक्षाधिपति) पैदा करता रहा है। तब से यह रफ़्तार बढ़ी है। यह बुरी बात भी नहीं। अगर अर्थव्यवस्था बढ़ेगी तो अमीर भी बढ़ेंगे। चिन्ता है कि जो बहुत गरीब है वह क्यों नहीं उठ रहे? फ़ासला क्यों बढ़ रहा है? आख़िर जो देश धड़ाधड़ मिलिनियर पैदा कर रहा है वहाँ सरकार को 81 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन क्यों देना पड़ रहा है ? प्रधानमंत्री मोदी ने यह स्कीम पाँच साल बढ़ाने की घोषणा की है। अर्थात् अभी सुधार होने की संभावना प्रधानमंत्री को भी नज़र नहीं आ रही। देश की गाड़ी आगे बढ़ रही है पर जो छूट गए, वह छूट गए?
हाल ही में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिससे सबकी आँखे ज़मीनी हक़ीक़त के बारे खुल जानी चाहिए। एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट ‘द वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब’ का निष्कर्ष है कि भारत में दुनिया में सबसे अधिक असमानता है। उनका यह भी निष्कर्ष है कि भारत में ‘बिलिनियर राज’ ब्रिटिश राज से भी अधिक असमान है। साथ वह यह चेतावनी भी दे रहें हैं कि “यह स्पष्ट नहीं कि कितनी देर और बड़े समाजिक और राजनीतिक उथल पुथल के बिना ऐसी असमानता के स्तर को जारी रखा जा सकता है”। इस अध्ययन के अनुसार भारत में असमानता पूंजीवाद के गढ़ अमेरिका से भी अधिक है। 1991 में भारत में केवल 1 बिलिनियर था जो 2022 में बढ़ कर 162 हो गए। यह रिपोर्ट बिलिनियर की संख्या ऑक्सफैम से भी अधिक बता रही है। फ़ोर्ब्स के अनुसार 2023 में यह संख्या 196 थी। मुकेश अंबानी फ़ोर्ब्स के दुनिया के सबसे रईस 10 लोगों में शामिल है।
इस पर भी किसी को आपत्ति नही अगर जो नीचे रह गए हैं वह भी उठ रहें हों।’वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब’ के अनुसार देश की 1 प्रतिशत जनसंख्या के पास देश की 40 प्रतिशत दौलत है। 10000 रईसों के पास औसतन 2260 करोड़ की जायदाद है जो राष्ट्रीय औसत से16763 गुना अधिक है। यह क्या हो रहा है? क्या हमारी अर्थव्यवस्था अब बिलिनियर और मिलिनियर बनाने पर केन्द्रित है? समाजवाद तो गाली बन चुका लगता है। शिकायत है कि समाजवाद के समय केवल ग़रीबी बाँटी गई थी पर अब भी तो यही हो रहा है?अगर ब्रिटिश राज से भी अधिक असमानता है तो निश्चित तौर पर बहुत गड़बड़ है। जवाहरलाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था शुरू की थी। जिस समय देश आज़ाद हुआ हमारे पास कुछ नहीं था। निजी क्षेत्र बहुत कमजोर था इसलिए सरकार को दखल देना पडा। अब वह हालत नहीं है क्योंकि निजी क्षेत्र बहुत सशक्त है। इसे बढ़ावा देना चाहिए पर यह भी देखना चाहिए कि प्रगति का फल एक वर्ग ही न समेट ले। हमने समाजवाद को अलविदा कहते हुए पूंजीवाद को मज़बूती से जप्फा डाल लिया लगता है। सुपर रिच और रिच हो रहें हैं। यह केवल अन्याय ही नहीं ख़तरनाक भी है।
‘वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स’ के अनुसार भारत ख़ुशी की तालिका में 143 देशों में 126वे स्थान पर हैं। दुनिया के ‘हंगर इंडेक्स’ में हम 111 स्थान पर हैं। जिस असमानता के सर्वेक्षण का मैंने उपर ज़िक्र किया है, उसके अनुसार असमानता का यह रुझान 2014-15 और 2022-23 के बीच ज़्यादा बढ़ा है। इस दौरान कुछ हाथों में दौलत का जमाव हुआ है। नीति आयोग का दावा है कि इसी अवधि के दौरान 25 करोड़ लोगों को ग़रीबी से निकाला गया है। पर बढ़ रही असमानता कह रही है कि हमारी नीतियों में कुछ गड़बड़ है, सबका साथ और सबका विकास बराबर नहीं हो रहा। बेरोज़गारी भी कम नहीं हो रही जो चिन्ता का विषय होना चाहिए। एक सरकारी नौकरी के लिए लाखों नौजवान आवेदन कर रहें हैं।
यह सर्वेक्षण करने वाले विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि देश के 167 सुपर रिच पर 2 प्रतिशत टैक्स लगाया जाना चाहिए और इसका इस्तेमाल आम आदमी या आम औरत को बेहतर हैल्थ,शिक्षा और आहार देने के लिए किया जाना चाहिए। सरकार को इस तरफ़ सोचना चाहिए। आशा यह करनी चाहिए कि आने वाले चुनाव के दौरान न केवल भावनात्मक मुद्दों पर बल्कि उन मुद्दों पर भी बहस होगी जो लोगों की ज़िन्दगियों को छूते हैं। यह सुनना कि आजकल ब्रिटिश काल से भी अधिक असमानता है, बहुत कष्टदायक है। हमने समाजवाद से बिल्कुल मुँह मोड़ लिया लगता है पर जिस देश में इतनी ग़रीबी और लाचारी हो वहाँ यह जायज़ नहीं। इससे न केवल अर्थव्यवस्था का बल्कि समाज का भी नुक़सान होगा। इस बढ़ती ग़ैर बराबरी के कारण और समस्याएँ खड़ी हो रही है। समाज में ईर्ष्या और टकराव बढ़ रहा है। आजकल कुछ भी छिपा नहीं, इंटरनेट से सबको सब कुछ पता है। शहरों में बढ़ता अपराध बताता है कि हम किस तरफ़ चल रहे हैं। शहरों में बढ़ती गेटेड कालोनियाँ भी बताती है कि ख़तरे को भाँप लिया गया है। इससे बचना है तो ग़ैर बराबरी और धन दौलत के अश्लील प्रदर्शन पर नियंत्रण की ज़रूरत है। व्यवस्था को भी अधिक संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। जिस तरह उत्तराखंड की सिल्कयारा सुरंग में फँसे खनिकों के निकालने वाली रैट-होल माइनर टीम के सदस्य वकील हसन के दिल्ली के घर पर बुलडोज़र चलाया गया वह अव्वल दर्जे की सरकारी असंवेदना दिखाती है। इसी व्यक्ति को सुरंग से खनिक निकालने पर हीरो कहा गया था। अब वह और उसका परिवार बेघर है।
हाल ही में मुकेश अंबानी के पुत्र की प्री-वैडिंग, अर्थात् शादी से पहले, का जश्न जामनगर में मनाया गया है। बिल गेट्स से लेकर इवांका ट्रम्प से लेकर अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर जैसे सेलिब्रिटी सब मौजूद थे। अंतराष्ट्रीय सिंगर रिहाना को विशेष तौर पर बुलाया गया। तीन खान, सलमान, शाहरुख़ और आमिर जो एकसाथ फ़िल्म करने को तैयार नही, ने इकट्ठे डांस किया। हर बाप अपनी क्षमताओं अनुसार औलाद का विवाह सम्पन्न करता है। मुकेश अम्बानी की क्योंकि क्षमता बहुत है इसलिए यह तो स्वभाविक ही था कि भव्य समारोह का आयोजन होगा पर क्या ज़रूरी था कि लगभग 1000 हज़ार करोड़ रूपए, जैसे मीडिया में बताया जा रहा है, इस पर खर्च किया जाए और उसका भी खुला प्रदर्शन किया जाए? दिखावे की यह कैसी संस्कृति देश में उभर रही है कि ईलीट रईस वर्ग देश की हक़ीक़त के प्रति बिल्कुल बेसुध हो गया है? दस दिन के लिए जामनगर के छोटे से हवाई अड्डे को अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाया गया ताकि विदेशी मेहमानों को तकलीफ़ न हो। ऐसी उदारता हमारी व्यवस्था ने किसी और के लिए कब दिखाई है?
पुराने लोग याद करते हैं कि पहले मुम्बई के रईस परिवारों में केवल शादी के समय एक कार्यक्रम होता था। पर अब सब बदल रहा है। इसके लिए हम पंजाबियों को भी दोषी ठहराया जा रहा है कि शुद्ध महाराष्ट्रीय परिवारों में भी शादी से पहले संगीत और मेंहंदी के समारोह शुरू हो गए हैं। पर अम्बानी समारोह ने तो ग्लैमर,तड़क भड़क और असीमित खर्च का नया मापदंड खड़ा कर दिया है। अब बहुत से लोग उनकी नक़ल करने की कोशिश करेंगे। आख़िर यह वह समाज है जहां ‘हम आपके हैं कौन’ में माधुरी दीक्षित ने जो जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी, की बहुत नक़ल की गई। अम्बानी भव्य समारोह से मिडिल क्लास जो फ़िल्मी और रईस समारोह से बहुत प्रभावित होता है, और असंतुलित हो जाएगा। गांवों तक प्रभाव होगा।
इस बीच अमेरिका से समाचार है कि एक रईस महिला रुथ गौट्समैन ने एक मेडिकल कालेज को 1 अरब डालर दिए हैं ताकि वहाँ सदा के लिए बिल्कुल मुफ़्त पढ़ाई हो सके। बिना किसी शोर शराबे के उस महिला ने कालेज के अधिकारियों से कहा है कि “वह जो चाहे इससे कर सकते हैं”। अफ़सोस है कि हमारे सुपर रिच इस तरफ़ नहीं सोचते, उन्हें अपनी दौलत के प्रदर्शन का अधिक शौक़ है। वह समझते हैं कि न केवल अमीर होना ही भव्य है, अमीरी का प्रदर्शन भी भव्य है।