अयोध्या में राष्ट्रीय मंदिर National Temple in Ayodhya

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अयोध्या में राम जन्म स्थल पर मंदिर की आधारशिला रखने के साथ ही हमारे इतिहास का एक कटुता भरा और कष्टदायक अध्याय समाप्त हुआ। कई शताब्दियों की प्रतीक्षा पूर्ण हुई। लम्बे संघर्ष,असंख्य बलिदानों और अनावश्यक रूकावटों के बाद पूरी मर्यादा के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम के जन्म स्थल पर भव्य मंदिर का निर्माण होने जा रहा है। मंदिर का निर्माण भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद किया जारहा है तब तक दूसरे पक्ष की हर क़ानूनी अड़चन का धैर्य से सामना किया गया। और यह भी सराहनीय है कि कोई विजयोंल्लास नही, कोई घमंड नही, किसी के प्रति नफ़रत नही और पूरीसद्भावना के साथ मंदिर का निर्माण होने जा रहा है।  भाजपा के शीर्ष नेतृत्व, विशेष तौर पर प्रधानमंत्री मोदी, का इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम में गौरवपूर्ण व्यवहार प्रशंसनीय है। भाषा और भाव दोनों में पूर्ण संयम और गरिमा है। योगी आदित्य नाथ का भी कहना है, “यह अवसर उल्लास, गौरव, आत्म संतोष तथा करूणा का है”। किसी पर कोई कटाक्ष नही।

यह स्थल करोड़ों हिन्दू की आस्था से जुड़ा है। 500 वर्षों के अन्याय और अपमान की हम समाप्ति देख रहें हैं। जानबूझकर हिन्दुओं की अस्मिता पर चोट की गई, नीचा दिखाने का प्रयास किया गया। मामलाधार्मिक ही नही हमारी सभ्यता और संस्कृति से भी जुड़ा है। बेहतर होता कि जिन्होंने इसका विरोध किया वह हिन्दू भावना के प्रति अधिक संवेदनशीलता दिखाते। कितना अच्छा होता कि क़ानूनी लड़ाई लड़ने वाले मुस्लिम नेता हिन्दुओं के ज़ख़्मों और पीड़ा को समझते। अगर मुस्लिम नेता सहयोग देते तो देश का इतिहास ही और होता। सही सोच वाले बहुत मुसलमान है जो समझते थे कि यह आम जगह नही, हिन्दुओं के लिए सबसे श्रद्धेय स्थल है और यह क़ानूनी लड़ाई फ़िज़ूल है पर ऐसे लोग बेबस थे।

अनीस खान का कहना है कि उनका परिवार 501 दीपक जलाएगा ‘क्योंकि राम लला हमारे भी पैग़म्बर हैं’।ऐसे सही सोच वाले मुसलमान बहुत हैं। अल्लामा इक़बाल ने भी लिखा था,

                 है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़

                 अहल-ए-नज़र समझतें हैं इसको इमाम-ए-हिन्द

पर अफ़सोस है कि कई लोग अभी भी राम मन्दिर के निर्माण को दिल से स्वीकार नही कर रहे। शरद पवार का फ़िज़ूल बयान है कि इस से कोरोना तो नही रूकेगा। किसने दावा किया कि इससे कोरोना रूक जाएगा? ऐसे लोग ग़ुलामी के प्रतीकों से मुक्ति की ख़ुशी में सांझेदार क्यों नही बन सकते?  पर ऐसे लोगों से नाराज़गी नही क्योंकि आज़ाद देश में सबको अपनी सोच का अधिकार है। श्री राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के महासचिव चंपत राय का बढ़िया कहना है, “राम मंदिर आन्दोलन का विरोध करने वाले देश विरोधी नही देश भक्त लोग हैं। सबके अपने अपने कारण होते हैं”।

सबसे मुखर अपनी आदत के अनुसार सांसद असदुद्दीन ओवैसी हैं। मैं उनकी हर बात को ग़ौर से सुनता हूँ मेरा मानना है कि भारत जैसे विविधा पूर्ण देश में ओवैसी  जैसी आवाज़ की अपनी जगह है लेकिन अफ़सोस की बात है कि राम मन्दिर के मामलों में उन्होंने बिलकुल नकारात्मक रवैया अपनाया है। ऐसे नेता अपनी चौधर के कारण अपने समुदाय को संकीर्णता में बंद रखतें हैं। क्या बेहतर होता कि उनके जैसा नेता राम मंदिर के निर्माण का स्वागत करता। वह देश का माहौल बदल देते और उनका सम्मान बढ़ता।  उलटा उन का कहना था कि शिलान्यास करना, “प्रधानमंत्री द्वारा ली गई शपथ का उल्लंघन करने जैसा होगा”। नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री ही नही इंसान भी है जिनकी अपनी आस्था है। न ही राम मंदिर का निर्माण सरकारी पैसे से हो रहा है। जवाहरलाल नेहरू धार्मिक नही थे पर वह भी अपनी वसीयत में लिख गए थे कि उनकी कुछ अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की जाऐं। इंदिरा गांधी  मंदिर मंदिर दर्शन के लिए जातीं थी। किसी ने आपत्ति नही की फिर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा शिलान्यास पर आपत्ति क्यों ? धर्म और आस्था निजी मामलें हैंजब तक सरकारी दख़लंदाज़ी न हो किसी को आपत्ति नही होनी चाहिए। अमेरिका का राष्ट्रपति बाईबल पर हाथ रख कर शपथ लेता है किसी को कोई समस्या नही।

ऐसा हीWhatsApp Image 2020-08-06 at 10.38.49 एक मामला आज़ाद भारत के इतिहास में पहले भी उठा था। अपनी दौलत के लिए मशहूर सोमनाथ  मंदिर पर मुस्लिम हमलावरों ने बार बार हमले किए, उसे नष्ट किया और इसे लूटा था। स्वामी विवेकानन्द जो बहुत उदार थे ने भी लिखा था, “ मंदिर के बाद मंदिर विदेशी हमलावरों ने नष्ट कर दिए थे। लेकिन उनके जाने के बाद उनका फिर निर्माण किया गया”। सबसे कुख्यात महमूद गज़नी था। मुस्लिम इतिहासकार बतातें हैं कि 1024 में सोमनाथ की लड़ाई में 50000 हिन्दू मारे गए थे। सुल्तान ने ख़ुद शिवलिंग नष्ट किया और भारी मात्रा में सोना और बहुमूल्य चीज़ें ले गया। हर विध्वंस के बाद इसका निर्माण किया गया लेकिन औरंगज़ेब ने इसे बिलकुल नष्ट कर दिया। आज़ादी के बाद सरदार पटेल ने सितम्बर 1947 में इस स्थल की यात्रा की थी और इसके पुनर्निर्माण में मदद का वायदा किया था। ज़िम्मेवारी उन्होंने के एम मुंशी पर डाली थी। महात्मा गांधी ने भी अपनी सहमति दी थी केवल एक शर्त थी कि इस के पुनर्निर्माण पर सरकारी पैसा नही लगेगा।

सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में मर्यादा का पूरा ध्यान रखा गया। लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी जीवनी में लिखा है, “ सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण हिन्दू बनाम मुस्लिम भावना से प्रेरित नही था। इसके पीछे यह भावना थी कि हमारी सहिष्णु,धर्म निरपेक्ष, साँझी और स्वाभिमानी राष्ट्रीय आत्मा चुपचाप इतिहास में ग़ैर भारतीय ताक़तों के असहिष्णु और प्रतिशोधी क़दमों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नही”।  आडवाणीजी के यह शब्द आज जब राम मंदिर बनने जा रहा है, बराबर प्रासंगिक हैं। यह कार्रवाई किसी के विरूद्ध नही। हम ‘ग़ैर भारतीय ताक़तों के असहिष्णु और प्रतिशोधी कदमों’ को सही करने जा रहें हैं।

सोमनाथ मंदिर को लेकर उस समय विवाद खड़ा हो गया जब राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद मंदिर के उद्घाटन के लिए जाने के लिए तैयार हो गए पर प्रधानमंत्री नेहरू को इस पर अत्यन्त आपत्ति थी कि यह राष्ट्रपति का काम नही है। एक पत्र में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को लिखा, “आपको सोमनाथ मंदिर के भव्य उद्घाटन में हिस्सा नही लेना चाहिए…इसके दुर्भाग्यवश कई उलझाव है”। नेहरू का मानना था कि बड़े अधिकारियों को सार्वजनिक तौर पर पूजा या आस्था स्थलों में नही जाना चाहिए। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद ने जवाहरलाल नेहरू की राय की अनदेखी करते हुए मई 1951 में इसका उद्घाटन किया। तब तक दोनों गांधीजी और सरदार पटेल का देहांत हो चुका था।

कौन सही था? राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ? इतिहासकार इस पर बँटे हुए है। हमारी ग़लती यह है कि हम पुरानी घटनाओं को आज के तराज़ू में तोलते है। राजेन्द्र प्रसाद यह संदेश देना चाहते थे कि भारत आजाद है और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए तत्पर है नेहरू का ध्यान देश के नव निर्माण पर था। उन्होंने राष्ट्रपति को लिखा था, “निजी तौर पर मैं समझता हूँ कि सोमनाथ में बड़ी इमारत बनाने का यह समय नही है। इसे आराम से और अधिक प्रभावी ढंग से बाद में किया जा सकता है”।  नेहरू का मानना था कि  देश को दूसरे मामलों पर ध्यान देना चाहिए मंदिर पर ज़ोर देने का यह सही मौक़ा नही जो बात राजेन्द्र प्रसाद ने नही स्वीकारी। मेरा मानना है कि देश का सौभाग्य था कि उस समय ऐसे लोग थे जो वैचारिक मतभेद रखते हुए भी एक दूसरे की इज़्ज़त करते थे। देश ऐसे परस्पर विरोधी विचारों से समृद्ध होता है।

सोमनाथ मंदिर की ही तरह अयोध्या में राम मंदिर भी यह याद करवाता है कि कमज़ोर क़ौम जो हमलावर से अपने को बचा नही सकती वह न केवल अपनी राजनीतिक आज़ादी बल्कि अपनी सांस्कृतिक आज़ादी भी खो देती है। दुर्भाग्यवश हमारे इतिहास में यह बार बार होता आया है। दुनिया के अजायबघर हमारे ख़ज़ाने और बहुमूल्य कलाकृतियों से भरे हुए हैं जिन्हें  देख कर बहुत कष्ट होता है। 5 अगस्त 2020 को हम ग़ुलामी के एक अध्याय को समाप्त कर रहें हैं। यह अच्छी बात है कि बाबरी केस के पक्षधर इकबाल अंसारी को राम मंदिर के भूमि पूजन का न्योता भेजा गया। इस से अच्छा संदेश गया है। कटुता भुला कर मर्यादा में रहते हुए हमें यह राष्ट्रीय मंदिर बनाना है। सबका साँझा।

सोमनाथ में राष्ट्रपति प्रसाद ने जो भाषण दिया वह किसी भी राष्ट्रपति द्वारा धर्मनिरपेक्षता पर दिया शायद सबसे महत्वपूर्ण भाषण है। सोमनाथ को राष्ट्रीय विश्वास का प्रतीक बताते हुए उन्होंने कहा, “ अपनी राख से एक बार फिर उदयमान सोमनाथ मंदिर दुनिया को यह घोषणा कर रहा है कि जिसके लिए लोगों के दिलों में अपार श्रद्धा और प्रेम है उसे कोई ताक़त या व्यक्ति नष्ट नही कर सकता”। पर साथ उन्होंने यह भी कहा, “जिस तरह सब नदियाँ सागर में जाकर मिल जाती हैं उसी तरह विभिन्न धर्म इंसान को भगवान तक पहुँचाने में मदद करतें हैं”। यही बात पहले स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो की धार्मिक संसद में कही थी। यह हमारे विश्वास, दर्शन और सिद्धांतों का निचोड़ है जिस से हम पुरातन काल से जुड़े हैं पर जिसे हमारे कई नेता कई बार भूल जाते हैं।

 

 

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.