दो पीढ़ियों के बीच हम (In Between Generation)

एक मित्र की पत्नी शिकायत कर रहीं थीं कि हमारी पीढ़ी वह है जिसने पहले अपने मां-बाप और सास-ससुर की सुनी और अब हम अपने बच्चों की सुन रहे हैं। ऐसा ही एक मैसेज सोशल मीडिया के द्वारा अमेरिका से मुझे भेजा गया, ‘‘हमारी पीढ़ी अनोखी पीढ़ी है क्योंकि हमारी अंतिम पीढ़ी है जिसने अपने मां-बाप की बात सुनी और पहली पीढ़ी है जो अपनी बच्चों की बातें सुन रही है।’’

यह मैसेज मैंने अपने कई मित्रों को भेजा था। सभी इस बात से सहमत हैं। तो क्या हम जो चली गई और जो आ गई है के बीच फंसी हुई पीढ़ी है?

मानना होगा कि हमारे से पहले की पीढ़ी अधिक सख्त और कम अनुदार थी। यह नहीं कि संतान के प्रति चिंता और लगाव नहीं था। यह रिश्ता तो प्रकृति ने बनाया है पर उस पीढ़ी में और हमारी पीढ़ी के बीच संवाद की बहुत कमी थी। बात करने से डर लगता था, झिझक थी। जिस तरह आज हम में से बहुत अपने बच्चों से संवाद रखते हैं, वैसी स्थिति नहीं थी। विशेषतौर पर पिता समझते थे कि अगर अधिक नरमी दिखाई या लाड-प्यार दिखाया तो संतान बिगड़ जाएगी या कमजोर हो जाएगी। भावना के प्रदर्शन पर बिल्कुल रोक थी। अधिकतर परिवारों में मां के माध्यम से बाप और बेटे के बीच संवाद होता था। सीधे संवाद की गुंजाइश बहुत कम थी।

मुझे याद है कि स्कूली दिनों में सिनेमा देखने की अनुमति लेने के लिए एक महीना पहले से हिम्मत जुटानी पड़ती थी। कितना कुछ बदल गया? आज अनुमति मांगता कौन है? वैसे भी ‘‘सब कुछ’’ आजकल मोबाईल पर है। मेरे एक मित्र का बेटा लुधियाना से शिमला मोटरसाईकिल पर जाना चाहता था। बाप ने रोक दिया। एक रविवार बाप को उसने शिमला पहुंच कर फोन किया कि मैं सकुशल पहुंच गया हूं। गुस्सा होने की जगह बेबस बाप का पूछना था, तुझेे पैसे तो नहीं चाहिए? हमारी पीढ़ी ने परिस्थिति से समझौता कर लिया। आजकल तो हाई स्कूल के अंतिम सालों में से ही मां-बाप की अनुमति फालतू हो गई है।

हमारे मां-बाप की हालत भी हमारे से अलग थी। मेरे जैसे परिवार ने विभाजन का गहरा जख्म सहा था। सब कुछ गंवा कर वह यहां आए थे। मेरे परिवार के पास लाहौर में कार थी पर जब जालंधर आकर पहला साईकिल खरीदा तो बड़ी कामयाबी समझी गई। एक-एक ईंट जोड़ कर सब कुछ जमा किया गया। ऐसे लोग अधिक उदार हो नहीं सकते थे, तंगी ने उन्हें जकड़ा हुआ था। नए आजाद हुए देश में पहाड़ जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ा था। देश भी दशकों घाटे की अर्थ व्यवस्था में फंसा रहा। यह संघर्ष अपना प्रभाव छोड़ गया और शायद इसीलिए वह उस तरह दयालु नहीं हो सकते थे जैसे आज अभिभावक हैं।

और हमने उनकी बात सुनी। हमारे सामने विकल्प ही नहीं था। कहां पढऩा है, क्या पढ़ना है, क्या करना है सब तय था। पिता के विरोध करने की जुर्रत नहीं थी। कई बागी जरूर हुए लेकिन अधिकतर ने समझौता कर लिया। लेकिन उन्होंने हमें बंदा बना दिया। इससे हम मज़बूत बने। संघर्ष करना सीखा। मैं कई बार उन बच्चों के बारे मेें सोचता हूं जो एयर कंडिशन क्लास रूम में पढ़ते हैं। क्या वह हमारी तरह आऊटडोर गेम्स खेल सकेंगे?

पर एक बात समझ नहीं आती कि हमारे से पहली पीढ़ी में विशेषतौर पर पिता, संतान के प्रति स्नेह व्यक्त करने से घबराते क्यों थे? आप अपनी संतान से प्यार करते हो फिर इसका प्रदर्शन क्यों नहीं? मेरे दादा महाशय कृष्ण बहुत सख्त स्वभाव के दमदार व्यक्ति थे। अपने पोते, मुझे, अवश्य आईसक्रीम खिलाने नई दिल्ली के प्रसिद्ध गेयलार्डस ले जाते थे पर अपने दोनों बेटों के साथ न्यूनतम संवाद था। पर आजादी की लड़ाई के दौरान जब मेरे क्रांतिकारी पिता जो भगत सिंह तथा चंद्रशेखर आजाद के टोले के सदस्य थे वीरेन्द्र जी, को फांसी की सजा लगी थी तो दादाजी के रोतोंरात बाल सफेद हो गए थे।

यह दूरी क्यों थी? कुछ परिवारों में आज भी मैं यह देखता हूं कि पिता-बेटे के बीच संवाद नहीं है। बेटी के साथ संवाद होता है पर बेटे के साथ नहीं। ऐसे ही एक मित्र का एकलौता बैटा कैनेडा में अपना समय बर्बाद कर रहा था। मैंने पूछा ‘‘तुम उसे बुला क्यों नहीं लेते?’’ जवाब था, ‘‘मैं उसे क्यों बुलाऊं?’’ ‘‘तुम्हें जरूरत है।’’ ‘‘उसे मालूम नहीं?’’ ‘‘वह अपरिपक्व है। तुम बड़े हो। उदारता दिखाओ और उसे फोन करो की घर आ जाए।’’ ‘‘नहीं, मैं नहीं करुंगा।’’

आखिर में उसने फोन कर ही दिया। लड़का कुछ सप्ताह के बाद आ भी गया। लेकिन बाप-बेटे में फिर तकरार हो गई और लड़का वापिस कैनेडा चला गया। लेकिन बर्फ पिघल चुकी थी। अगले साल वह वापिस आ गया। सदा के लिए। यहां शादी हो गई। और हां, वह सभी खुशी से संयुक्त परिवार में रह रहे हैं।

क्या गया? थोड़ी ईगो कम करने का कितना मीठा फल मिला? हमारी पीढ़ी अब अवश्य समझौता कर रही है। कहा जा सकता है कि हम अगली पीढ़ी की बात अधिक सुनते हैं, अपनी पर अड़ते नहीं लेकिन हमें भी समझना चाहिए कि इस पीढ़ी पर हमसे अधिक सफल होने का दबाव है। सीबीएसई की बारहवीं में प्रथम रहने वाली रक्षा गोपाल के 99.6 प्रतिशत अंक रहे है। समझा जा सकता है कि आज किस प्रकार का दबाव है। हमारे समय में तो 60 प्रतिशत से अधिक ले फर्स्ट डिवीजन में आना बहुत शान की बात थी।

तब जरूरतें कम थीं। आज ग्लोबलाईजेशन के युग में इस चुनौती का सामना करने के लिए लगातार भागना पड़ता है। जानकारी भी बहुत मिल रही है जिसका निचोड़ निकालना पड़ता है। जिसे ‘पीयर प्रैशर’ अर्थात साथियों का दबाव कहा जाता है वह भी बहुत है। कई पथभ्रष्ट भी हो जाते हैं। इस पीढ़ी के लिए तो फटी जीन्स भी फैशन स्टेटमैंट है! लेकिन भेड़ चाल है। ऐसी स्थिति में कई बार मां-बाप उपक्षित रह जाते हैं जिसकी आजकल ऊंची शिकायत भी हो रही है। परिस्थिति परिवार पर हावी हो रही है।

टैनिस के प्रसिद्ध खिलाड़ी रोर्जर फैडरर जिसके जुड़वां बेटियां हैं, ने लिखा है, ‘‘पहले मां-बाप सब कुछ थे। लेकिन अब यह दो नई लड़कियां हैं। और यह पूरी तरह आप पर निर्भर है। यह तीसरी पीढ़ी है। अजीब परिवर्तन है। अचानक अब आपके पास यह बेबी है, फिर आप हो और फिर आप के मां-बाप।’’ अर्थात उसने माना है कि मां-बाप तीसरे नंबर पर हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह अपने मां-बाप का ध्यान नहीं रखेगा। केवल उसकी प्राथमिकता बदल गई है।

ऐसा सदा से है। पुरानी पीढ़ी नई को जगह देती है। हम खुद अधिक उदार और सहिष्णु हैं। अगली पीढ़ी की मजबूरी समझते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वह हमारी परवाह नहीं करते या हमारी बढ़ती उम्र के बारे चिंतित नहीं। ठीक है आपसी रिश्ते नरम हो गए हैं। हमने अपने अनुभव से सबक सीखा है। हम दो पीढ़ियों के बीच की पीढ़ी अवश्य है लेकिन हमने जो समझौते किए हैं उनका नुकसान तो नहीं हुआ। पर चिंता यह अवश्य है कि जब हमारे से अगली पीढ़ी हमारी जगह होगी और उसका नई पीढ़ी से सामना होगा तो क्या वह भी इसी तरह परिस्थिति को संभाल सकेगी?

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.