भारत-चीन और अमेरिका-रूस India-China and America-Russia

लद्दाख में भारत और चीन के बीच गम्भीर  टकराव को लेकर दुनिया में चिन्ता है। कहा जा रहा है कि यह दूसरे शीत युद्ध की शुरूआत हो सकती है। पर न्यूयार्क टाईम्स ने एक विश्लेषण में लिखा है कि चाहे चीन भारत और जापान जैसे पड़ोसी देशों के साथ तनाव भड़का रहा है पर असली निशाना अमेरिका है। यह अख़बार अमेरिका के साथ ‘घातक टकराव’ की चेतावनी दे रहा है। लंडन का अख़बार फ़ाइनेंशियल टाईम्स कुछ और लिखता है, “सीमा पर टकराव के बाद भारत और चीन के बीच अलगाव अब अवश्यभावी नज़र आता है…भारत के नीति निर्माताओं में यह सहमति है कि क्योंकि चीन एक वैरी ताक़त है इसलिए भारत की एकमात्र जायज़ प्रतिक्रिया अमेरिका तथा एशिया के लोकतान्त्रिक देशों के नज़दीक जाना है…अमेरिका तथा चीन के बीच बराबर दूरी का विचार भारत द्वारा त्यागने की सम्भावना है”। और भी कई विशेषज्ञ कह रहें है कि इस वक़्त भारत के विकल्प सीमित हैं। अलीसा एयरस लिखती है, “चीन भारत को यह चुनाव करने के लिए मजबूर कर रहा है कि उसके दोस्त कौन है”।  प्रमुख विश्लेषक एशले टैलिस लिखतें हैं, “चीन और भारत के सम्बन्ध कभी भी वापिस सामान्य नही हो सकते”। हर्ष पंत का कहना है कि “जो इस बात की वकालत करते रहे कि अमेरिका और चीन के बीच बराबर दूरी रखी जाए को अपनी बात पर ज़ोर देने में कठनाई होगी”।

 अर्थात देश के अन्दर और बाहर एक सशक्त राय है कि साँझे दुष्मन चीन का मुक़ाबला करने के लिए अमेरिका, भारत, जापान और एशिया के दूसरे सताए देशों को एकजुट होना चाहिए। पर ऐसी आवाज़ पहली बार नही उठ रही। 1959-1962 में भारत तथा चीन के बीच युद्ध के समय भी ऐसी आवाज़ उठी थी कि भारत को अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबन्धन में शामिल हो जाना चाहिए। बुरी तरह से घिरे हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी से मदद की गुहार की थी पर शीघ्र चीन ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी और उनकी सेना 20 किलोमीटर पीछे हट गईं और नेहरू अपनी प्रिय गुटनिरपेक्षता में लौट गए। महत्वपूर्ण है कि तब भी अमेरिका का मानना था कि चीन विश्व शान्ति को स्थाई ख़तरा है।

 राष्ट्रपति कैनेडी ने तो सार्वजनिक तौर पर वकालत की थी कि चीन के विस्तारवादी रवैये को रोकने के लिए भारत और जापान मिल कर नेतृत्व करें। अमेरिका के प्रमुख राजनयिक एडलाई स्टीवनसन ने तब भारतीय पत्रकारों से कहा था, “अपने नेहरू से कह दो हम दक्षिण पूर्वी एशिया में उनकी लड़ाई लड़ रहें हैं। उन्हें कम से कम यह तो समझना चाहिए कि उनके देश के हित में क्या है”। पर नेहरू अपनी गुट निरपेक्षता पर अडिग थे और कैनेडी जो नेहरू के बहुत प्रशंसक थे ने बाद में कहा था कि वह भारतीय नेता के रवैये से ‘बहुत निराश’ हैं। कैनेडी नेअपनी चार्मिंग पत्नि जैकलिन को भारत यात्रा पर भेजा था।  नेहरू ने बहुत ख़ातिर की, ताजमहल दिखाया लेकिन गुट निरपेक्षता की नीति नही बदली।

 आज फिर इतिहास दोहराया जा रहा है। आज फिर चीन हमलावर है। अमेरिका फिर समझता है कि वह देश विश्व शान्ति को ख़तरा है और चाहता है कि भारत और जापान जैसे देश मिल कर इस ख़तरे का सामना करें। अमेरिका मदद करेगा। हमारे देश में भी यह अहसास बढ़ रहा है कि चीन की बदमाशी का सामना शायद हम अकेले नही कर सकेंगे इसलिए हमें दूसरे देशों का सहयोग लेना और सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था तैयार करनी चाहिए।  हमने अमेरिका और सोवियत यूनियन के बीच बराबर दूरी रखी थी जो 1971 में हमारा काम भी आई जब निक्सन का अमेरिका ‘उस महिला’ अर्थात इंदिरा गांधी के भारत को सबक़ सिखाना चाहता था। लेकिन अब चुनाव अमेरिका और रूस के बीच नही, अमेरिका और चीन के बीच है।

 अमेरिका के दबाव के बावजूद इराक़ के युद्ध से ख़ुद को अलग रख, अफ़ग़ानिस्तान में अपने सैनिक न उतार, रूस के साथ मज़बूत सम्बन्ध रख, ईरान पर अमेरिका की चिल्लाहट को अनसुना कर, हमारे नीति निर्धारित करने वालों ने न केवल अपनी निरपेक्षता प्रदर्शित की बल्कि समझदारी भी दिखाई। लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। रूस बड़ी ताक़त नही रहा। चीन रूस का सबसे बड़ा व्यापार पार्टनर है और चीन हमारे दरवाज़े पर खड़ा हमें धमका रहा है। सोवियत यूनियन का नज़रिया अंतराष्ट्रीय था जबकि शी जिंनपिंग इस नई उछलती साम्राज्यवादी ताक़त के आजीवन सम्राट बनना चाहते हैं।  पर मेरा मानना है कि शी जिंनपिंग ज़रूरत से अधिक बेधड़क हैं। इतना काट लिया है कि चबाना मुश्किल होगा।

चीन ने चारों तरफ़ मोर्चे खोल दिए है। लेकिन वह भूलतें है कि यह महामारी सदा नही रहेगी और नवम्बर में ट्रंप की जगह जो बिडेन के चुने जाने की सम्भावना है जो बहुत प्रभावशाली तो नही लेकिन ट्रंप की तरह सनकी भी नहीं और अमेरिका को स्थिर शासन और स्पष्ट नीति दे सकते हैं। और जैसे विशेषज्ञ सी राजामोहन ने भी लिखा है, भारत के प्रति  ‘वाशिंगटन में चीनी आक्रमण को देखते हुए विदेश नीति और रक्षा व्यवस्था का ऊचा समर्थन है’। अर्थात नया राष्ट्रपति कोई भी हो नीति यही रहेगी। यह भी नही भूलना चाहिए कि अमेरिका सुपर पावर है। यह वह देश जिसने नाज़ी जर्मनी और साम्राज्यवादी जापान को पराजित किया और शीत युद्ध में सोवियत यूनियन को पराजित कर उसका पतन करवाया। अमेरिका चीन को ज़बरदस्त चुनौती देने की स्थिति में है।  शी जिनपिंग से पहले बड़े और समझदार चीनी नेता डेंग जियाओपिंग ने कहा था, “ध्यान से देखो, अपनी स्थिति मज़बूत करो, मामलों से शान्ति से पेश आओ, अपनी क्षमता को छिपा कर रखो और समय का इंतज़ार करो…कभी नेतृत्व का दावा न करो’।

इस नेक सलाह को त्यागते हुए शी जिनपिंग  समय से पहले दुनिया का नेतृत्व झपट लेने की कोशिश में कूद पड़े है और अब ट्रंप के बावजूद अमेरिका बताने में लगा है कि कथित सम्राट के पैर पक्के नही हैं। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने चीन की गतिविधियों को ‘भारी खतरा’ बताते हुए जानकारी दी है कि अमेरिका जर्मनी से अपनी सेना हटा कर भारत और एशियाई देशों की सुरक्षा के लिए तैनात कर रहा है। यह भी महत्वपूर्ण समाचार है कि तीन अमेरिकन एयरक्राफ़्ट कैरियर चीन के नज़दीक प्रशांत महासागर में भेज दिए गए हैं। अमेरिका ने यह चेतावनी भी दी है कि उसकी सब पनडुब्बी पानी में उतर चुकीं हैं। चीन पर सामरिक विशेषज्ञ मोहन मलिक का कहना है कि, “युद्ध की स्थिति में यह एयरक्राफ़्ट कैरियर मल्लका स्ट्रेट (जो प्रशांत महासागर तथा हिन्द महासागर को जोड़ता है) तथा बंगाल की खाड़ी में दाख़िल हो सकते हैं… अमेरिका भारत पर चीन और पाकिस्तान के संयुक्त हमले को रोक सकता है”।

लद्दाख में चीनी दख़लंदाज़ी का एक मक़सद भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती निकटता को रोकना था लेकिन उनके दुस्साहस के कारण उलटा हो रहा है। मोदी सरकार अमेरिका के नज़दीक जा सकती है। भारत पहले ही अमेरिका तथा जापान के साथ मालाबार नौसैनिक अभ्यास कर रहा है। अमेरिका चाहता है कि भारत अमेरिका-भारत-जापान-आस्ट्रेलिया के बीच ‘क्वाड’ (चतुर्भुज) गठबन्धन में शामिल हो जाए। अभी तक चीन की संवेदनशीलता को देखते हुए भारत सरकार हिचकिचाती रही है। अब यह हिचकिचाहट ख़त्म होगी क्योंकि नई दिल्ली से यह ही संकेत और संदेश उठ रहें हैं कि बहुत हो चुका, हम हर संभावना के लिए तैयार हैं।

भारत का अमेरिका की तरफ़ झुकाव अब अपरिहार्य नज़र आता है। एक ही बड़ी रूकावट है, रूस जो पुराना दोस्त है। जब सोवियत यूनियन का बड़ा प्रभाव था तो उनके नेता निकिता कुरश्चेव ने घोषणा की थी, “हम हिमालय के उस पार हैं। हमें आवाज़ दोगे तो हम भागे आएँगे” लेकिन 1962 के युद्ध के समय रूस पीछे हट गया। उस वक़्त भारत उन के लिए ‘मित्र’ था और चीन ‘भाई’। भारत अपना 60-70 प्रतिशित रक्षा सामान रूस से मंगवाता है। रुस वह देश है जिसने हमें परमाणु पनडुब्बी भी दी है यह जानते हुए कि अगर इसका इस्तेमाल हुआ तो चीन के ख़िलाफ़ होगा। सप्लाई के मामले में अमेरिका का अविश्वसनीय रिकार्ड है जबकि रूस की तरफ़ से अधिक समस्या नही आती। रक्षा के क्षेत्र में भारत और रूस के बीच भाईचारा है लेकिन रूस का प्रभाव कम हो चुका है। वर्तमान टकराव में यह सम्भावना कम है कि चीन रूस की सलाह को सुनेगा इसलिए हमारे अमेरिका और जापान जैसे बराबर सोच वाले देशों के साथ अधिक सामरिक घनिष्ठता का एक ही विकल्प नज़र आता है। अगर हम चीनी उत्पात से सही नही निबटे तो हमारी प्रतिष्ठा और समर्थन कम होगा पर अगर इस टकराव में से हम सर ऊँचा रख निकल आए तो हमारा अंतरराष्ट्रीय स्टॉक आसमान पर पहुँच  जाऐगा। दुनिया हमारी तरफ़ देख रही है।

अंत में: मैंने पिछले लेख में लिखा था कि राहुल गांधी को सवाल उठाने का लोकतान्त्रिक अधिकार है। पर यह अधिकार उन्हीं को ही नही, उनके विरोधियों को भी है। मनमोहन सिंह सरकार के समय राजीव फ़ाउन्डेशन को चीन द्वारा मिले पैसे को लेकर गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी कटघरे में खड़े नज़र आते हैं। बाद में ऐसे निर्णय लिए गए जिससे चीन को फ़ायदा हुआ। भाजपा जो सवाल पूछ रही है उनका जवाब मिलना चाहिए। यह जवाब नही हो सकता कि क्योंकि हम लद्दाख की स्थिति पर सवाल पूछ रहें हैं इसलिए कोई हम से सवाल नही कर सकता। जो सवाल करता है उसकी ज़िम्मेवारी भी बनती है कि जब उससे सवाल पूछें जाऐ तो इधर उधर की बात न कर सीधा जवाब दे, कि चीन से पैसे लेने की क्या मजबूरी थी?

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.