कोई जालन्धर से देसी घी की पिन्नियां भेज रहा है तो कोई होशियारपुर से मट्ठियाँ। जींद के जुलाना ब्लाक के गाँवों से कविंटलों में लड्डू जा रहें है। मुक्तसर के कुछ युवा टिकरी सीमा पर डटे हुए किसानों के लिए वॉटर प्रूफ़ टैंट ले कर गए हैं। दिसम्बर की ठिठुरती सर्दी में अनगिनत किसान खुले आकाश के नीचे सोने के लिए मजबूर हैं इसलिए फतेहगढ़ साहिब से 3000 कम्बल भेजे गए हैं। कोई मुफ़्त में लंगर लगा रहा है तो मानसा के सिविल अस्पताल के डाक्टर मुफ़्त मैडिकल कैम्प लगाए हुए है। मौड़ मंडी के एक पेट्रोल पम्प का मालिक आन्दोलन के लिए जा रहे किसानों के ट्रेक्टरों में मुफ़्त डीज़ल डाल रहा है। पंजाब में विशेष तौर पर कलेक्शन सेंटर बन चुकें हैं जहाँ दिल्ली सीमा पर पहुँचाने के लिए आटा, चावल, दाल की बोरियाँ भेजी जा रहीं हैं। कुरूक्षेत्र से बिसलेरी से भरा कैंटर लेकर कुछ युवक पहुँच चुकें हैं। कई काजू और बादाम तक पहुँचा रहें है ताकि ‘साडे वीरां विच ताकत आवे ते ठंड घट लग्गे’।
कई किसान अपने घरों को ताले लगा कर दिल्ली सीमा की तरफ़ कूच कर गए हैं और खेत महिलाएँ और बच्चे सम्भाल रहें है। हरियाणा के गाँव वाले लंगर लगा रहें है या सामान भेज रहें हैं। हरियाणा की 50 से अधिक खाप पंचायतों ने किसानों के समर्थन की घोषणा की है। सिंघू बार्डर पर न कोई जात पूछ रहा है, न धर्म, न प्रदेश की बात हो रही है और न ही राजनीति हो रही है। पूरा आन्दोलन शांतिमय और अराजनैतिक है। निहंग सेना सुरक्षा पर नज़र रखे हुए है ताकि असमाजिक तत्व शरारत न करें। राजनेताओं को तो किसान अपने मंच से बोलने भी नही देते। जनसमर्थन का ऐसा सैलाब बहुत देर के बाद देखने को मिला है। जिस तरह किसानों को हरियाणा सीमा पर रोकने की कोशिश की गई और इस सर्दी में उन पर पानी की बौछार की गई उससे उनके प्रति भारी सहानुभूति है।
कुछ लोग जिस तरह इस आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश कर रहें है उसने मामला और जटिल बना दिया है। बदनाम करने के लिए उन्हें ‘खालिस्तानी’ कहा गया, ‘नक्सल’ और ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ कहा गया। इनमें एक महिला किसान नेता हरिन्दर कौर बिंदु भी है। जब वह केवल 13 वर्ष की थी तो उनके पिता मेघराज भगतुआना की बब्बर खालसा ने हत्या कर दी थी। आज हरिन्दर कौर पूछतीं हैं कि वह खालिस्तानी हो गईं? इस आन्दोलन में बहुत से ऐसे परिवार शामिल है जिन्होंने उस वक़्त देश तोड़ने की माँग का विरोध किया था और कीमत चुकाई थी। अफ़सोस है कि मीडिया का एक वर्ग शिकारी कुत्तों में परिवर्तित हो चुका है जो उनके ख़िलाफ़ टूट पड़ता है जिन्हें वह अपने मालिकों का विरोधी समझतें हैं। आज जो किसान आन्दोलन कर रहें हैं उन्हीं के बेटे सीमा पर देश की सुरक्षा के लिए डटे हुएँ हैं। इसी तरह 85 वर्ष की माता महेंद्र कौर का मज़ाक़ उड़ाने की कोशिश की गई। क्या तमीज़ बिलकुल ख़त्म हो गई? क्या नज़र नही आता कि अपना घर बार खेत सब छोड़ कर किस मजबूरी में किसान यहाँ पहुँचें है? और खालिस्तान का हौवा उठा कर देश के बाहर सदा तैयार बैठे शरारती तत्वों को मौक़ा क्यों दिया जा रहा है जबकि यह किसी तरह की कोई साज़िश नही, शुद्ध किसान आन्दोलन है। मेरा तो मानना है कि इस आन्दोलन पर खालिस्तानी का लेबल चिपकाने वाले ख़ुद देश-विरोधी हैं।
सरकार कहती है कि इन नए क़ानून से कृषि के क्षेत्र में क्रान्ति आ जाएगी। पर क्या सरकार किसान से अधिक जानती है कि उसके हित में क्या है या किसानी को किस से फ़ायदा होगा? जिस क़दम को उपर से थोपना हो उसे ‘रिफार्म’ क़रार दिया जाता है ताकि कोई विरोध न कर सकेऔर तोते की तरह मीडिया का एक वर्ग भी ‘रिफार्म’, ‘रिफार्म’ रटता जाता है। हर आर्थिक क़दम जो बिग बिज़नेस की मदद करता है सुधार नही होता। क्या नोटबंदी ‘रिफार्म’ थी जैसे तब प्रस्तुत किया गया? अगर सुधार था तो करोड़ों रोज़गार क्यों प्रभावित हुए और लाखों धंधे क्यों बंद हो गए? नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत का तो कहना है कि ‘देश में बहुत अधिक लोकतन्त्र रिफार्म के रास्ते में रूकावट है’। वह यहाँ क्या चाहते हैं, अधिक तानाशाही और निजी अधिकारों का हनन? इन कथित ‘रिफार्म’ को लेकर भी किसान इसीलिए इतना आशंकित है और शकील बदायूनी को दोहराता प्रतीत होता है,
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर तेरा क्या भरोसा चारागर,
यह तेरी नवाजिश-ए-मुख़्तसर मेरा दर्द और बढ़ा न दे !
किसान की घबराहट है कि इस चिकित्सक का नुस्ख़ा उसकी तकलीफ़ और बढ़ा देगा। वह घबरा रहा है कि उनके बाज़ार में बड़े बड़े औद्योगिक घराने घुस जाएँगे और यह मगरमच्छ उन्हें निगल जाएँगे। किसान समझतें हैं कि एक दिन सरकार बीच से हट जाएगी और वह बिग बिसनस के पंजे में फँस जाऐंगे। पश्चिम में भी किसान शिकायत कर रहें है कि वॉलमार्ट और टैस्को जैसी कम्पनियाँ उन्हें दबा रहीं हैं। कृषि मंत्री कह तो रहें हैं कि एमएसपी ख़त्म नही होगी पर इसे क़ानूनन अनिवार्य बनाने को तैयार नही। किसान का सीधा सवाल है कि अगर मंडी सिस्टम बंद हो गया या कमज़ोर पड़ गया और सरकारी ख़रीद बंद हो गई तो एमएसपी की गारंटी कौन देगा? चंडीगढ़ से विशेषज्ञ प्रमोद कुमार लिखतें हैं, “इसमें कोई शक नही कि इन क़ानूनों से कृषि और कार्यकुशल बन जाएगी पर इस से किसान हाशिए पर धकेल दिए जाएँगे। अर्थात चाहे कृषि का विकास हो पर किसान बर्बाद हो सकता है”।
खेत छोटे हो गए और खेती लाभदायक नही रही। किसान समझता है कि जो कुछ बचा है उसे भी छीनने का प्रयास हो रहा है और उसकी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य खतरें में है। लॉकडाउन के बाद कृषि एक मात्र सेक्टर था जिसने घाटा नही दिखाया था अब उस पर भी कोरोना के मध्य में सरकार ने अनिश्चितता की तलवार लटका दी हैं। भविष्य के प्रति किसान की जो सामूहिक घबराहट है उसी का प्रदर्शन हम दिल्ली के आसपास देख रहें हैं। जिस तरह उनसे सलाह किए बिना धड़ाधड़ यह क़ानून बनाए गए उसने आशंका को और बल दिया है। आख़िर अध्यादेश लाने की क्या जल्दी या ज़रूरत थी? संसद में सामान्य विधेयक क्यों नही पेश किया गया? मामला अवर समिति को भेजा जा सकता था और वहाँ पूरी बहस हो सकती थी। फिर राज्य सभा में ध्वनि मत से इसे पास करवाया गया। सब की सहमति लेने का प्रयास क्यों नही किया गया? पंजाब में दो महीने प्रदर्शन चलते रहे पर केन्द्र सरकार उस वक़्त तक हरकत में नही आई जब तक किसान दिल्ली के दरवाज़े तक नही पहुँच गए।
जब मैं यह लिख रहा हूँ तब तक बैठकों का कोई नतीजा नही निकला दोनों अड़े हुए हैं पर केन्द्र सरकार को अपनी बन रही छवि के प्रति चिन्तित होना चाहिए। यह प्रभाव फैल रहा है कि सरकार को किसान,खेत मज़दूर, आढ़तियों और छोटे दुकानदारों की चिन्ता नही। अभी तक कृषि क्षेत्र और किसान के लिए सरकार ने जो भी किया उस पर पानी फिर गया है। लोकतन्त्र में ऐसा बड़ा क़दम उठाने का एक क़ायदा है,पर सरकार विरोध के प्रति अधीरता और असहिष्णुता का प्रदर्शन कर रही है। केवल एक्सपर्ट राय काफ़ी नही। संघीय ढाँचे मे प्रांतों से भी बात होनी चाहिए विशेष तौर पर जब कृषि जैसे क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन करना हो। जरूरी नही कि हर मामले में भारी बहुमत वाली सरकार ही सही हो।
सरकार ने किसानों के आक्रोश और उनकी चिन्ता की गहराई को नही समझा परिणाम है कि यह अब जनआंदोलन में बदल गया है। सरकार को इसे प्रतिष्ठा का सवाल नही बनाना चाहिए और सारे मामले पर ठंडे दिमाग़ से पुनर्विचार करना चाहिए। अपने लोगों की माँग मानने में प्रतिष्ठा का हनन नही होता। 19 नवम्बर के अपने लेख में ‘यह गतिरोध टूटना चाहिए’ में मैने लिखा था, “यह भी याद रखना चाहिए कि किसान की आन्दोलन करने की क्षमता बहुत है। उसे न ऐ सी चाहिए न हीटर…उसे समझा बुझा कर शांत करने की ज़रूरत है”। लेकिन पहले सरकार ने इस तरफ़ देखा ही नही। अब यह लड़ाई वह जीत नही सकते। अगर सरकार झुकती नही और निराश किसान वापिस घरों को लौट जाते हैं तो भी सरकार और भाजपा की ग़रीब हितैषी छवि को भारी धक्का पहुँचेगा।
सरकार को समय की नज़ाकत को समझना चाहिए। राजहठ छोड़ किसान को गले लगाने की ज़रूरत है और उसकी शंकाएँ ख़त्म करनी चाहिए चाहे इसके लिए यह क़ानून निरस्त क्यों न करने पड़ें। फिर से संवाद शुरू कर नया कानून लाया जा सकता है। एमएसपी को क़ानूनी जामा पहनाना होगा यह देखते हुए कि दुनिया का हर देश, अमेरिका समेत, किसान को सब्सिडी देता है।प्लेट में पड़ा भोजन किसी भी देश में मुक्त बाज़ार का उत्पाद नही है,हर देश में उसके पीछे सरकारी सहयोग है। फिर हमारी सरकार हाथ पीछे क्यों खींचे या यह प्रभाव क्यों दे कि वह हाथ खींचना चाहती है? किसान स्वभावत: व्यवस्था विरोधी होता है उसे समझाकर साथ लेजाना पड़ता है उस पर पानी बरसा उसे मनाया नही जा सकता। रंग बिरंगे विपक्ष की चिन्ता नही, किसान का दर्द समझने की ज़रूरत है। क्या अपने लोगों का दर्द मिटाने और उनके दिल जीतने के लिए सरकार झुकेगी ?