यह वीडियो देखना बहुत कष्टदायक था। हमारी नई ख़ूबसूरत संसद की छत से पानी टपक रहा था। पानी गिर कर संसद के मकर द्वार तक पहुँच गया था। टपकते पानी के नीचे नीली बाल्टी रखी गई थी पर पानी बाल्टी भरने के बाद फ़र्श पर फैल गया था। पानी के नीचे बाल्टी रखना भारतीय घरों में सामान्य बात है। हमारी छतें बरसात में टपकती है। पर यह तो हमारी नई संसद है, आजाद भारत की आकांक्षाओं की प्रतीक है। इसकी भी छत टपकने लगी। लोकसभा के सचिवालय ने सफ़ाई दी कि भारी बारिश के कारण संसद की लॉबी के उपर लगे शीशे के गुंबद को फ़िक्स करने वाले एडहेसिव (चिपकाने वाले पदार्थ) के हट जाने से लॉबी में ‘पानी का मामूली रिसाव’ हो गया था जिसका इलाज कर लिया गया है और अब वह रूक गया है। यह तो सही है पर सवाल तो है कि एडहेसिव खिसका क्यों? 1000 करोड़ रूपए की लागत से बने संसद भवन, जिसका उद्घाटन एक साल पहले प्रधानमंत्री मोदी ने धूमधाम से किया था, में ऐसी लापरवाही क्यों हो कि सोशल मीडिया पर संसद भवन के अंदर पानी सैर करता नज़र आए? इसके बग़ल में पुराना संसद भवन है, कृषि भवन है, रेल भवन है। सब ठीक ठीक हैं।
यह मामला गम्भीर इसलिए है कि हाल ही में ऐसी घटनाऐं लगातार हो रही है जिससे पता चलता है कि जिसे वर्क कल्चर अर्थात् कार्य संस्कृति कहा जाता है, उसकी देश में कितनी शोचनीय हालत है। बिहार में पन्द्रह दिनों में 12 पुल बह गए। सरकार ने 15 इंजीनियर निलंबित कर दिए पर सवाल है कि ऐसे हादसे हो ही क्यों? पहले क्यों नहीं देखा गया कि यह पुल खतरें में है? निश्चित तौर या तो घटिया मटीरियल लगाया गया होगा या नीचे खदान के कारण नींव कमजोर हो गई थी। दोनों में ही उच्च स्तर की मिलीभगत लगती है। और निलम्बन से भी क्या होगा? जब मामला ठंडा पड़ जाएगा तो चुपचाप उन्हें बहाल कर दिया जाएगा। आख़िर इस हमाम में सब नंगे है, कौन किस पर सख़्त एक्शन लेगा? ज़रूरत तो थी कि अरबों रूपए बर्बाद करने वालों को जेल भेजा जाता पर जैसे बाइबल में कहा गया है, पहला पत्थर वह उठाए जो खुद पाक साफ़ हो !
जिसे इंफ़्रास्ट्रक्चर कहा जाता है, उस पर हमारे देश में बहुत काम किया गया पर जिसे क्वालिटी कहा जाता है उससे समझौते के भी समाचार मिलते रहतें हैं। मार्च 2016 में कोलकाता में निर्माणाधीन विवेकानन्द फ़्लाइओवर का 150 मीटर का स्टील-स्पैन गिर गया। 27 मारे गए और 80 घायल हो गए। हाल ही में दिल्ली के प्रसिद्ध इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एयरपोर्ट के टी-1 की छत का एक हिस्सा बरसात के पहले दिन टूट कर गिर गया और एक व्यक्ति मारा गया। इस एयरपोर्ट को एक प्रतिष्ठित कम्पनी बना रही है। उसके बाद जबलपुर, रायकोट के एयरपोर्ट की भी छत गिर गई। यह सब तीन दिन में हुआ। पहले गुआहाटी और पोर्ट ब्लेयर एयरपोर्ट में भी छत ढह चुकी है। इस सरकार ने बहुत एयरपोर्ट बनाए और देश के कोने कोने तक उड़ानें पहुँचाई पर कुछ एयरपोर्ट की छतें गिरना तो अविश्वास पैदा करता है। यह एयरपोर्ट तो कम से कम 75 वर्ष के लिए सुरक्षित होने चाहिए।
अयोध्या में नवनिर्मित रामपथ में बरसात में जगह जगह गड्ढे पड़ गए। कई जगह से मार्ग धँस गया। राम मंदिर के मुख्य पुजारी का कहना है कि पहली बरसात में मंदिर में जल भराव हो गया। यह कैसी लापरवाही है कि इतने उत्साह और श्रद्धा के साथ जो निर्माण हुआ है वह भी कमी रह गई ? जिस भव्य ‘भारत मंडपम’ में जी-20 सम्मेलन हुआ वहाँ पानी भर गया और कुछ समय के लिए वह बंद करना पड़ा। बरसात हर साल आती है पर हम बेतैयार क्यों पाए जाते हैं? हमारा हर महानगर पानी में डूब जाता है। मुम्बई, बैंगलोर, दिल्ली तो कुख्यात है। मुम्बई में हर साल दो तीन बड़ी इमारतें गिरती हैं। बैंगलोर में हम देख चुकें हैं कि जिनके घरों में करोड़ों रूपए की कारें खड़ी थी उन्हें ट्रैक्टर ट्रॉली में बैठा कर बाढ़ से निकाला गया। दिल्ली में सड़कों पर बाढ़ के पानी के कारण चार होनहार जाने चलें गईं है। नीलेश राय जो यूपीएससी की तैयारी कर रहा था, अपने कोचिंग सैंटर के पास पानी से गुजरते वक़्त इलैक्ट्रोक्यूट हो गया। फिर एक कोचिंग सैंटर की बेसमेंट में पानी भरने से तीन और छात्र डूब गए। यह भी सामान्य है कि जो बेसमेंट पार्किंग या किसी और काम के लिए बनाई जाती है उसका दूसरे कामों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस बेसमेंट में लाईब्रेरी बननी थी, पर रिहायश के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। जब सड़क से बह कर पानी एक दम दाखिल हो गया तो बच्चे बाहर नहीं निकल सके। और व्यवस्था का हाल देखिए कि इस हादसे के लिए एक वाहन चालक को गिरफ़्तार किया गया कि उसने वाहन इतनी तेज़ी से चलाया कि पानी उछल कर अंदर घुस गया! उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं जिन्होंने सड़कों पर पानी इकट्ठा होने दिया या बिजली की नंगी तारें छोड़ दी। इस चालक को तो रिहा कर दिया गया है पर सरकारी तंत्र के अपराधियों से ध्यान हटाने के प्रयास पर अदालत ने भी कटाक्ष किया, अब आप पानी का चलान करोगे?
हमारा जर्जर होता बुनियादी ढाँचा चिन्ता का विषय है। मुम्बई और दिल्ली जैसे शहर और दबाव सहन नहीं कर सकते। दोनों का इंफ़्रास्ट्रक्चर लगभग वही है जो आज़ादी के समय था। हर शहर में ड्रेनेज सिस्टम ख़राब है जबकि इतिहास बताता है कि प्राचीन और मध्यकालीन व्यवस्था में भी पानी की निकासी का विशेष प्रबंध किया जाता था। मुम्बई में हर बरसात में उसकी लाइफ़लाइन, स्थानीय रेल व्यवस्था, ठप्प हो जाती है। बेंगलोर ने तो सुसाइड कर लिया है। एक समय यह शहर उभर रहे भारत का प्रतीक था। दुनिया की सब बड़ी आईटी कम्पनियों के दफ़्तर यहाँ हैं पर अत्याधिक निर्माण के कारण शहर ने खुद को तबाह कर लिया। पानी के निकास की जगह नहीं रही। बहुत से तालाब हुआ करते थे अधिकतर पर निर्माण हो चुका है। परिणाम है कि जहां बरसात में बैंगलोर पानी में डूब जाता है वहाँ गर्मियों में प्यासा रह जाता है और पानी टैंकरों से सप्लाई करना पड़ता है। दिल्ली तो मृत्यु शय्या पर लगता है। या लोग गर्मी में झुलस रहें है, या प्रदूषण से दम घुट रहा है, या पानी में डूब रहें है। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी टिप्पणी की है कि ऊँची इमारतों की तो इजाज़त दी जा रही है पर सही नाली नहीं बनती। उपर से एलजी और सीएम के राजनीतिक द्वन्द्व के कारण प्रशासन अनिश्चित है। सीएम जेल में हैं, पर ऐसे तो प्रशासन नहीं चल सकता।
उपर से जलवायु परिवर्तन अपनी तबाही ला रहा है। वायनाड में भूस्खलन से पूरा गाँव मलबे में दब गया। लोग सो रहे थे कि आफ़त आगई। बहुत समय से केरल को चेतावनी दी जा रही है कि उसका पर्यावरण और परिस्थिति नाज़ुक है इसलिए निर्माण पर नज़र रखने की ज़रूरत है। लगभग आधे केरल में पहाड़ और पहाड़ी क्षेत्र है जहां नाज़ुक ढलान है लेकिन इसके बावजूद अनियंत्रित निर्माण किया जा रहा है। गृहमंत्री का कहना है कि प्रदेश सरकार को चेतावनी दी गई थी कि वायनाड जैसी घटना हो सकती है पर मुख्यमंत्री इसका प्रतिवाद करतें है। यह हमारी एक और कमजोरी है कि हर बात पर राजनीति होती है, हादसों पर भी। हमारे ढहते शहर तुच्छ राजनीति का मामला नहीं। दो और प्रदेश हैं जहां बहुत प्राकृतिक मार पड़ रही है, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश। हिमाचल में फिर भुस्खलन से जाने गईं है। गाँव बह गया। पार्वती नदी में बड़ी इमारत को गिरते देखा गया। निर्माण करते वक़्त लोग भी ध्यान नहीं रखते। विकास और सड़कों के लिए जो तोड़ फोड़ की जा रही है वह कई बार महँगी साबित होती है। जिन पगडंडियों पर कभी खच्चर चलते थे वहाँ अब कारें दौड़ती हैं। तबाही तो होगी ही।
2024 में जितने पेपर लीक हुए हैं पहले कभी नहीं हुए। सुप्रीम कोर्ट ने नैशनल टेस्टिंग एजंसी(एनटीए) को बड़ी फटकार लगाई है। नीट-यूजीसी परीक्षा में 24 लाख बच्चे बैठे थे पर कई जगह से पेपर लीक हो गया। यह एक नया रैकेट है जहां भ्रष्ट अधिकारी और अध्यापक, कोचिंग सैंटर वालों से मिल कर बच्चों की सफल होने की बेताबी का फ़ायदा उठातें हैं। कोचिंग सैंटर ही कोई सौ करोड़ का धंधा बन चुकें हैं। कोटा में लगातार हो रही आत्महत्या के बावजूद इन्हें नियंत्रित करने का कोई गम्भीर प्रयास नहीं किया जाता। हमारी शिक्षा व्यवस्था का पतन हो रहा है। विकेंद्रीकरण की बहुत ज़रूरत है। वन नेशन-वन एवरीथिंग नहीं होने वाला। अगर देश ने तरक़्क़ी करनी है तो इस तरफ़ बहुत सोच की ज़रूरत है।
असली समस्या है कि समाज में पतन आ गया है जिसके चारों तरफ़ दुष्परिणाम निकल रहें हैं। हमारे नगर निगम और पालिकाएँ भ्रष्टाचार और अकुशलता के गढ़ बन चुकें हैं। अनियंत्रित और अवैध निर्माण की बाढ़ आगई है। सरकारी अफ़सर भी पुराने जैसे समर्पित नहीं रहे। जिस तरह फ़र्ज़ी और झूठे दस्तावेज से पूजा खेडकर आईएएस में प्रवेश पाने में सफल रही, से भी पता चलता है कि व्यवस्था का दुरूपयोग कितना आसान है। सवाल यह भी है कि पूजा खेड़ेकर जैसे और फ्राड हमारी सिविल सर्विस में कितने है? और वह इतनी आसानी से धूल झोंकने में कैसे सफल रही ? क्या कोई इलाज है? कांग्रेस के सांसद मणिकम टैगोर ने पोस्ट डाली है, ‘पेपर लीक बाहर और पानी लीक अंदर’। यह अतिशयोक्ति हो सकती है पर यह भी सही है कि लीक होती व्यवस्था के कारण इसकी कार्यकुशलता और शुद्धता पर सवाल उठ रहें है। इन्हें गम्भीरता से लेना चाहिए। जवाबदेही सख़्ती से तय होनी चाहिए। यह न हो कि बरसात के ख़त्म होने पर सब कुछ भुला दिया जाए और अगले साल फिर देश को नए हादसों का गवाह बनना पड़े। या नई नीली बाल्टी देखनी पड़े।