
तनाव में युवा
जालन्धर के शिवाली आत्महत्या मामले में इंसाफ कर दिया गया है। पंजाब सरकार के आदेश पर मुख्य आरोपी पुलिस इंस्पैक्टर बलविंद्र कौर तथा दो मीडिया कर्मियों के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज कर लिया गया है। आईजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि सब बराबर जिम्मेवार हैं। संतोष है कि आखिर न्याय हो गया क्योंकि बहुत जरूरी है कि पुलिस और मीडिया दोनों को अपनी अपनी लक्ष्मण रेखा समझ आ जाए।
शिवाली का कसूर केवल यह था कि वह अपने दोस्त के साथ कार में जा रही थी। उस कार की किसी और कार के साथ टक्कर हो गई पर मौके पर पहुंची ट्रैफिक पुलिस इंस्पैक्टर बलविन्द्र कौर ने उसे जलील करना शुरू कर दिया। उसे घसीट कर कार से निकाला गया। उलटे सीधे सवाल पूछे गए और मीडिया को फोन कर बुला कर उसकी तस्वीरें खींचवानी शुरू कर दी। शिवाली ने पूछा भी कि मेरा क्या कसूर है कि मेरी तस्वीरें खींची जा रही हैं पर बलविन्द्र कौर तथा वह कैमरामैन उसे जलील करने के लिए बाज़िद थे। शिवाली ने सावधान भी किया कि अगर मेरा उत्पीड़न रोका नहीं गया तो मैं आत्महत्या कर लूंगी पर न पुलिस रुकी और न ही कैमरामैन उसकी तस्वीर खींचने से ही बाज़ आए। वायदे के अनुसार आधे घंटे के बाद सार्वजनिक तौर पर प्रताड़ित शिवाली ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली। इस प्रकार पुलिस तथा मीडिया के एक हिस्से की संवेदनहीनता एक जवान जिंदगी के अंत का कारण बनी। जहां तक पुलिस का सवाल है देश भर की पुलिस के खिलाफ शिकायत है कि वह संवेदनहीन है। ताकत में घमंडी है। विशेष तौर पर युवाओं से निपटने के मामले में वह लापरवाह और कई बार भ्रष्ट है। यह बहुत नाजुक उम्र होती है। वे गलती भी कर सकते हैं। उन्हें समझा कर उन्हें सही रास्ते में डालना है। यह जिम्मेवारी मां-बाप की होनी चाहिए पुलिस की नहीं। बहुत किस्म के दबाव हैं। जिसे सोशल नैटवर्किंग कहा जाता है वह ही युवाओं को बेचैन किए हुए है। नए-नए प्रभाव आ रहे हैं। पश्चिम का भी प्रभाव बढ़ रहा है। कई बार मां-बाप भी बेपरवाह होते हैं और उन्हें तब ही मालूम पड़ता है जब कोई हादसा हो जाता है। संयुक्त परिवार प्रणाली कमजोर हो गई है। बच्चों को संभालने वाले दादा-दादी नहीं रहे। कई परिवार टूट रहे हैं इसलिए युवा बहुत अधिक दबाव में हैं। कानून के अनुसार अगर कोई गलत काम करता है तो कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन अगर लड़का-लड़की कार में जा रहे हैं या पार्क में बैठे हैं तो पुलिस की क्या मुसीबत है कि वह दखल दे? अगर वे वयस्क हैं और कुछ अनुचित नहीं कर रहे तो पुलिस को उनके मामलों से दूर रहना चाहिए। एक विवाहिता ने बताया है कि जब वह अपने पति के साथ घूमने निकलती है तो चूड़ा डाल कर जाती है। अर्थात् प्रमाणपत्र साथ होता है। हमारे देश में ऐसे लोग भरे हुए हैं जो समझते हैं कि उन्हें दूसरों को सही करने का अधिकार है, या दूसरों की जिंदगी में दखल देने का अधिकार है। मुंबई, बैंगलोर, मैंगलोर आदि स्थानों में हम ऐसा देख चुके हैं। कई खाप पंचायते भी यही करती हैं। आजकल सहशिक्षा आम हो गई है। अगर लड़के-लड़कियाँ इकट्ठास पढ़ेंगे तो वे स्कूल के बाहर भी मिल सकते हैं। लव मैरिज आम हो गई हैं। टीवी तक में चुंबन दिखाया जा चुका है। इस तरह बदलते समाज में मॉरल पुलिसिंग की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। पुलिस की ट्रेनिंग में भी कुछ कमजोरियां नजर आ रही हैं।
इसी तरह मीडिया की भूमिका है। अफसोस है कि मीडिया का एक वर्ग हर जगह सनसनीखेज को ढूंढता है। कुछ टीवी चैनल तो बाकायदा कहते हैं कि ठहरें, अभी हम और सनसनी दिखा रहे हैं। उन्हें भी दूसरे की संवेदनशीलता की चिंता नहीं। मीडिया का हमारे देश में विस्फोट हो रहा है। बहुत नए अखबार तथा टीवी चैनल निकल रहे हैं। यह शुभ संकेत है, लोकतंत्र के लिए हितकर है पर मीडिया का विस्तार कई जगह उसकी गरिमा को कम कर रहा है। पूरा प्रशिक्षण दिए बिना, नियंत्रण रखे बिना, युवा लड़के-लड़कियों को कलम या कैमरा पकड़ा बेलगाम कर दिया जाता है। वे भी अपने वाहन पर PRESS लगा कर इतराते रहते हैं कि वे सबसे ऊपर हो गए।
आत्महत्या की प्रवृत्ति भयावह बनती जा रही है। जालन्धर में पिछले एक महीने में 16 लोगों ने आत्महत्या की थी। यह लगभग सभी पढ़े-लिखे खाते-पीते परिवारों से थे। आत्महत्या करने वालों में एक 13 वर्ष का सातवीं कक्षा का छात्र भी है। 13 वर्ष की कच्ची उमर में ही वह जिंदगी से हताश हो गया? यह उमर तो हंसने-खेलने की है लेकिन यह बच्चा फंदा लगा कर लटक गया। निश्चित तौर पर समाज में बहुत कुछ गड़बड़ हैं। अब एक और विस्फोट हो रहा है। आपसी प्रेम रिश्तों में तनाव आत्महत्या का मामला बन रहा है। उत्तर पश्चिम दिल्ली के स्वरूप नगर इलाके में दो युवकों ने पहले अपनी प्रेमिकाओं की हत्या की, फिर अपने घरवालों की हत्या की और फिर खुद को गोली मार दी। मामला एकतरफा प्यार का बताया जाता है। आजकल कई प्रेम कहानियां ट्रैजेडी में खत्म हो रही हैं।
दूसरे उदाहरण भी हैं। एक कर्मचारी ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसका अपने मालिक के साथ झगड़ा हो गया था। एक ने इसलिए कर ली क्योंकि जिस निजी बैंक में वह काम कर रहा था वहां उसे प्रमोशन नहीं दिया गया। अर्थात् प्रभाव यह मिलता है कि समाज में बहुत तनाव है, अवसाद है, हताशा है और जो कमजोर है वह जल्द टूट जाते हैं। आत्महत्या किसी समस्या का इलाज नहीं है। परिस्थिति का मुकाबला करना चाहिए। सोशल मीडिया के कारण नई समस्याएँ खड़ी हो गई हैं। हाल ही में सेना में एक मामला आया है कि एक मेजर ने अपने वरिष्ठ अफसर तथा उसकी पत्नीम के बैडरूम के निजी चित्र और वीडियो अपलोड कर दिए। युवा जानते नहीं कि सोशल मीडिया का ठीक इस्तेमाल कैसे किया जाए। भेड़चाल है। ‘एक दोस्त जरूरी होता है’, कई बार तनाव और टकराव का कारण बन जाता है। फेसबुक ही मुसीबत बन गई हैं जहां कई बार लड़कियों की अश्लील तथा आपत्तिजनक तस्वीरें अपलोड होने से वे अपनी जिंदगी का अंत कर लेती हैं। अपलोड करने वाले उनके ‘दोस्त’ थे।
अर्थात् पहले ससुराल से तंग, दहेज या जयदाद के मामलों से तंग आकर आत्महत्या होती थी; अब सामाजिक तनाव एक नया और घातक दुष्प्रभाव बन गया है। केवल 13 वर्ष के बच्चे का डिप्रैशन में आकर अपनी जान लेना बहुत चिंताजनक मामला हैं। युवाओं का एक वर्ग इतना अधीर क्यों हो रहा है कि वह समझता है कि जिंदगी में उन्हें न्याय नहीं मिलेगा, वे इंतजार क्यों नहीं करते।? परिवार के अंदर संवाद टूट गया है, जिस कारण जो कमजोर हैं वे समझ बैठते हैं कि यही एकमात्र रास्ता है। बेपरवाह मां-बाप भी इस स्थिति के लिए जिम्मेवार हैं। मेरा कई शिक्षण संस्थाओं से संबंध है। कई छात्र बताते हैं कि मां-बाप बिल्कुल परवाह नहीं करते। कईयों को तो यह भी मालूम नहीं कि बच्चा कहां पढ़ रहा है, और क्या कर रहा है। दूसरा एक रईस वर्ग है जो समझता है कि बच्चे को महंगा बाईक तथा महंगा मोबाईल खरीद कर, खुली पाकेट मनी दे कर उन्होंने अपनी जिम्मेवारी पूरी कर ली है। जब बच्चा भटक जाता है तो पता चलता है कि उसकी उदारता ने सत्यानाश किया है। अब स्कूलों में नई परंपरा शुरू हो गई है कि बच्चे को सजा नहीं दी जाए चाहे वह कैसा भी हो। वह लायक हो या नालायक हो उसे पास करते जाओ। पर अगर सजा का डर नहीं होगा तो बच्चे गंभीरता नहीं दिखाएंगे। समाज में बिगड़ रहे अनुशासन का एक कारण है कि स्कूली शिक्षा बहुत उदार हो गई है। कपिल सिब्बल नहीं चाहते कि किसी भी बच्चे को कुछ कहा जाए, जिससे कई बार बच्चे का भारी अहित होता हैं। लेकिन सबसे गंभीर यह आत्महत्या की प्रवृत्ति है। धर्मेंद्र की तरह कई सरकारी कर्मचारी मांगों को लेकर टंकी पर चढ़ जाते हैं। पुलिस, मीडिया, स्कूल तथा कालेज प्रबंधन को इस नई परिस्थिति का सामना करने के लिए अपने-अपने लोगों की कौंसलिंग करनी चाहिए। शिक्षा संस्थाओं को छात्रों को विशेष तौर पर समझाना चाहिए कि सोशल मीडिया के दबाव से कैसे निपटना है। लेकिन आखिर में मामला घर-परिवार का है। अगर घर का माहौल अच्छा होगा तो कुछ भी बाहरी प्रभाव हो, बच्चा भटकेगा नहीं। संस्कार अच्छे चाहिए। जब घर में संवाद टूट जाता है तो कई बार रिश्ते बहुत अप्रिय दिशा ले लेते हैं।
-चन्द्रमोहन