65 साल के बाद भी आरक्षण?
पिछले बुधवार को संसद में जो कुछ हुआ वह लोकतंत्र को शर्मिंदा करने वाली घटना थी। प्रोमोशन में आरक्षण देने वाले विधेयक को पेश करते समय समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के दो सांसद आपस में गुत्थम गुत्था हो गए और हंगामे में राज्यसभा स्थगित हो गई। राज्यसभा के सांसद विशिष्ट समझे जाते हैं पर यहां टीवी कैमरों के सामने दो ‘माननीय’ सांसद इस तरह भिड़ रहे थे जैसे वे गली के मुशटंडे हों; और उल्लेखनीय है कि दोनों अपने किए पर शर्मिंदा नहीं। देश से माफी मांगने को तैयार नहीं। इस घटना से हमारे संसदीय लोकतंत्र की गरिमा और कम हुई है। पहले ही संसद नहीं चल रही थी। एक दिन यह सवाल अवश्य खड़ा होगा कि क्या संसदीय परीक्षण असफल हो रहा है और अगर संसद चलनी नहीं तो इसकी जरूरत क्या है? सरकार ही फैसले कर सकती है, कानून बना सकती है। भाजपा के नेताओं को अपनी नीति पर फिर से गौर करना चाहिए। संसद में व्यवधान डालना एक सीमा के बाद उलटा पड़ता है, ‘काऊंटर प्रडक्टिव’ हो जाता है। अगर सारी बहस संसद के बाहर होनी है तो संसद अप्रासंगिक हो जाएगी। जो संसद में होता है वह नीचे तक भी दोहराया जाता है। स्कूल के बच्चे भी कहते हैं कि अगर सांसद अनुशासनहीन हो सकते हैं, मर्यादा की परवाह नहीं करते तो हमसे ऐसा न करने को क्यों कहा जा रहा है? एक टीवी चैनल ने सबसे बुरे ऐसे दस दृश्य दिखाए हैं जिनमें पिछले बुधवार का संसद में दंगल दूसरे नम्बर पर रहा है। सबसे बुरा दृश्य उत्तरप्रदेश विधानसभा का रहा है, जहां एक बार इतनी लड़ाई हुई थी कि विधायकों को मेजों तथा कुर्सियों के नीचे छिप कर खुद को बचाना पड़ा था।
जिस तरह सरकार ने प्रोमोशन में आरक्षण का विधेयक पेश किया उसमें इस टकराव के बीज थे। कोयला घोटाला से ध्यान हटाने के लिए सरकार ने नया मामला उछाल दिया है, ठीक जिस तरह वीपी सिंह ने मंडल का मामला उछाला था। अपनी चमड़ी बचाने के लिए अंग्रेजों की तरह समाज को बांटने का प्रयास किया जा रहा है। संविधान में संशोधन करवाना इतना हल्का नहीं लिया जाना चाहिए। दो तिहाई समर्थन किधर है? राष्ट्रीय स्वीकार्यता नहीं है। इस पर लम्बी बहस चाहिए, विशेषतौर पर जब इसका विरोध भी है और पहले सुप्रीम कोर्ट ऐसे प्रयास को रद्द कर चुका है और अटौरनी जनरल ने जल्दबाजी में कदम उठाने के खिलाफ सावधान भी किया था। आजादी के 65 वर्ष के बाद ऐसे कदम नहीं उठाए जाने चाहिए जो समाज को और विभाजित करें।
इस देश में अनुसूचित जाति-जनजाति को आरक्षण देने पर आम सहमति है, चाहे खुद अम्बेदकर इसे असीमित लटकाने के पक्ष में नहीं थे। अगर वे जीवित होते तो तरक्की में आरक्षण का निश्चित विरोध करते; क्योंकि किसी को जीवन में आगे बढ़ाने के लिए नौकरी में आरक्षण देना तो समझ आता है पर यह बात समझ नहीं आती कि उसे तरक्की में भी आरक्षण दिया जाए। यह लिखते हुए मुझे यह अहसास है कि सचिव स्तर पर केंद्रीय सरकार में एक भी अफसर अनुसूचित जाति-जनजाति से नहीं है। अर्थात् अभी आरक्षण से वह ऊंचले स्तर तक नहीं पहुंच सके लेकिन किसी को ऊपर उठाने के लिए किसी और का हक छीनना तो जायज नहीं है। इससे प्रशासन का मनोबल गिरेगा। जो जूनियर है वह अपने ही सीनियर के सीनियर बन जाएंगे। दुनिया भर में तरक्की का एक ही मापदंड है। तरक्की मैरिट अर्थात् योग्यता तथा क्षमता के आधार पर मिलती है, पर यहां तरक्की को व्यक्ति की पैदायश तथा उसकी जाति से जोड़ा जा रहा है। इससे सारे प्रशासनिक वर्ग में असंतोष फैलेगा। उत्तर प्रदेश के 15 लाख सरकारी कर्मचारी तो हड़ताल पर पहले ही चले गए थे। इस प्रयास के पीछे सोच क्या है यह समझना बहुत मुश्किल है लेकिन इसमें सार्वजनिक क्षेत्र तथा सरकारी सेवा के क्षेत्र को अस्थिर करने की पूरी क्षमता है, सरकारी कामकाज ठप्प हो सकता है। दलितों को ऊपर उठाने के हर प्रयास का समर्थन होना चाहिए पर इस प्रक्रिया के दौरान दूसरों का हक नहीं छीना जाना चाहिए। किसी को जाति के आधार पर तरक्की दे कर आप दूसरों का अधिकार छीन रहे हो। यह सही नहीं होगा, और न ही संविधान की भावना के अनुसार होगा। और न ही हम प्रशासन की क्षमता को नजरंदाज कर सकते हैं। इस प्रकार तरक्की में आरक्षण का प्रावधान कर आप एससी-एसटी अफसरों की प्रशासनिक क्षमता तथा कुशलता का अपमान कर रहे हो कि ये खुद तो ऊपर उठ नहीं सकते इसलिए इन्हें तरक्की में आरक्षण की बैसाखी चाहिए। घोटालों में फंसी सरकार इनसे निकलने के लिए नई-नई मुसीबतें आमंत्रित कर रही है। ऐसी स्थिति में तो बचा खुचा शासन भी तबाह हो जाएगा। वैसे भी जैस-जैसे देश तरक्की कर रहा है रोजगार के नए रास्ते खुल रहे हैं, आरक्षण का आकर्षण कम हो रहा है। कानून के आगे सब बराबर होने चाहिए। केवल जो गरीब है उनकी मदद होनी चाहिए। जो आयकर देते हैं उनके लिए आरक्षण का प्रावधान क्यों हो? वोट बैंक से ऊपर उठ कर नई सोच की जरूरत है। जाति-धर्म पर आधारित कोटे की आजके भारत में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अगर सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण जायज है तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में क्यों नहीं?
इस सब का कितना राजनीतिक फायदा होगा कहा नहीं जा सकता पर नुकसान अवश्य होगा; क्योंकि इससे सामाजिक सामंजस्य में रूकावट खड़ी होगी और एक बार फिर प्रदर्शित हो जाएगा कि हमारे राजनीतिज्ञ अपनी राजनीति के लिए कुछ भी कर सकते हैं, प्रशासनिक सेवा को जाति के आधार पर बांट कर इस में घोर असंतोष पैदा कर सकते हैं। याद रखना चाहिए कि डा. अम्बेदकर को इतना ऊंचा उठने के लिए किसी आरक्षण की जरूरत नहीं थी। आज सर्वेक्षण उन्हें गांधी के बाद सबसे महान् भारतीय घोषित कर रहे हैं।
सभी राजनीतिक दलों को अपने आचरण पर गौर करना चाहिए। यह सब मिल कर संसद को नष्ट कर रहे हैं। संसद से शक्तिशाली तो अब टीवी स्टूडियो हैं। जो हालत बन गई है इसके लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिम्मेवार हैं। वे देश के नेता हैं। संसद को सही चलाना उनकी जिम्मेवारी है। उनके कार्यकाल में केवल सरकार का अवमूल्यन ही नहीं हुआ, संसद का भी हो गया। जवाहरलाल नेहरू सारा वक्त संसद में बैठकर उसकी कार्रवाई में दिलचस्पी से हिस्सा लेते थे। वे ‘सायलेंट मोड’ पर नहीं थे। वे जानते थे कि वे भविष्य की नींव रख रहे हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री के बारे तो कहा जा सकता है,
किश्तियां टूट चुकी हैं सारी,
अब लिए फिरता है दरिया हम को!
वह तो मात्र मुसाफिर बन कर रह गए हैं। ‘कारवां निकल गया गुब्बार देखते रहे हम’, वाली बात है। वाशिंगटन पोस्ट ने उनके बारे जो लिखा है उसे लेकर सरकार तड़प रही है। उन्हें निष्प्रभावी तथा ‘ट्रैजिक फिगर’ तक लिखा गया है। उन्हें भ्रष्ट सरकार का मुखिया कहा गया है। कांग्रेस इसके लिए वाशिंगटन पोस्ट से माफी मांगने की मांग कर रही है, जो उसने मांगने से इंकार कर दिया है। पर इस मामले में इतना भूचाल क्यों आया? अखबार ने ऐसा क्या लिख दिया जो हम भारतवासी पहले नहीं जानते?
-चन्द्रमोहन