जमाना झुकता है झुकाने वाला चाहिए

ज़माना झुकता है झुकाने वाला चाहिए

आखिर अमेरिका को नरेंद्र मोदी के प्रति अपना रवैया बदलना ही पड़ा। 2005 में गुजरात दंगों के कारण ‘धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन’ की शिकायत पर मोदी का वीज़ा रद्द कर दिया गया था। उल्लेखनीय है कि दंगे 2002 में हुए अमेरिका की अंतरात्मा को तड़पने में तीन साल क्यों लग गए? अगर इन दंगों पर उन्हें तकलीफ थी तो तत्काल प्रतिक्रिया की जाती लेकिन तीन साल के बाद अचानक अमेरिका के कथित सिद्धांत उसे तड़पाने लगे। उल्लेखनीय यह भी है कि उस देश ने कभी भी क्रूर तानाशाहों या शासकों के साथ दोस्ती करने से परहेज़ नहीं किया जब तक यह उसके हित में हो। पाकिस्तान के हर सैनिक तानाशाह जिसने लोकतंत्र का गला घोट दिया था को अमेरिका पसंद करता रहा क्योंकि वे इस क्षेत्र में अमेरिका की नीति के अनुसार चलते रहे। तीसरा, गुजरात में 2002 में जो कुछ भी हुआ वह हमारा मामला है। अमेरिका की इसमें दखल कैसे बन गई? गुजरात की जनता ने बार-बार मोदी को समर्थन दिया है और न्यायपालिका ने एक भी मामले में उन्हें दोषी नहीं पाया फिर अमेरिका कहां से टपक गया? क्या अमेरिका खुद को हमारी अदालतों से भी बड़ी अदालत समझता है? और अब क्या बदल गया कि खुद अमेरिकी राजदूत नैंसी पावेल चल कर मोदी से मिलने गांधीनगर पहुंच गई है? वह तो दिल्ली में मुलाकात चाहती थी लेकिन मोदी ने उन्हें गांधीनगर आने पर मजबूर कर दिया। दुनिया झुकती है झुकाने वाला चाहिए। अब अमरीकियों को ‘धार्मिक स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघन’ की चिंता नहीं। असली बात है कि वे बहुत व्यवहारिक लोग हैं। उन्होंने समझ लिया कि नरेंद्र मोदी भारत के अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं इसलिए सभी आपत्तियों को रद्द करते हुए नैंसी पावेल गांधीनगर पहुंच गई। अब उन्हें मोदी में कुछ बुरा नज़र नहीं आ रहा।

अमेरिका से पहले बाकी पश्चिमी देश मोदी के प्रति अपना रुख नरम कर ही चुके हैं। गुजरात के दंगों के बाद अमेरिका के इलावा, ब्रिटेन और यूरोपियन संघ ने मोदी के साथ सम्पर्क खत्म कर दिए थे लेकिन धीरे-धीरे सब बदलने लगे। जनवरी 2013 में नई दिल्ली में जर्मनी के राजदूत ने उनके लिए भोज रखा जिसमें यूरोपियन संघ के सभी राजदूत शामिल हुए। राजदूतों ने माना कि उनकी नज़रों में 2002 के दंगो का अध्याय खत्म हो चुका है। असली बात है कि इन देशों ने देख लिया था कि भारत के अंदर निवेश के लिए सबसे उपयुक्त स्थान गुजरात है और वह गुजरात के मुख्यमंत्री को नाराज़ कर वहां निवेश नहीं कर सकते। उसके बाद से स्थिति मोदी के पक्ष में झुकती गई। अब वे भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं और इस समय वे फ्रंट रन्नर हैं। इसलिए अब अमेरिका बदला है। सभी कथित सिद्धांत छू मंतर हो गए हैं चाहे अमेरिका के प्रवक्ता का कहना है कि मोदी के प्रति अमेरिका के रुख में बदलाव नहीं आया। अर्थात् नखरे अभी भी कायम हैं पर सवाल उठता है कि अगर ‘बदलाव’ नहीं आया तो नैंसी पावेल गांधीनगर क्या करने गई थी? यह भी उल्लेखनीय है कि इस मुलाकात का निवेदन अमेरिका की तरफ से आया है। एक बार अवश्य राजनाथ सिंह ने अपनी अमेरिका की यात्रा के दौरान कहा था कि वे मोदी को वीज़ा दिए जाने के लिए लाबी करेंगे लेकिन देश में हुई प्रतिक्रिया के बाद राजनाथ सिंह भी खामोश हो गए।

खैर अब यह अध्याय तो खत्म हुआ लेकिन कड़वाहट जरूर छोड़ गया। हमारे मामले में अमेरिका का दखल मंजूर नहीं। यह पश्चिम के देश अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए दूसरों को धमकाते रहते हैं। देवयानी खोबरागड़े के बारे भी ऐसा ही किया गया। यह तो संतोष की बात है कि इस बार भारत सरकार की इतनी सख्त प्रतिक्रिया हुई थी कि अमेरिका को झुकना पड़ा लेकिन जो नरेंद्र मोदी के साथ हुआ या देवयानी के साथ हुआ वैसा बर्ताव अमेरिका चीन या रूस के साथ करने की हिम्मत नहीं करता। तिब्बतियों के उत्पीड़न के बावजूद चीनी नेताओं का बहिष्कार नहीं किया गया। क्योंकि वहां बराबर की सख्त प्रतिक्रिया होती। यह तो सही है कि व्यक्तिगत शिकायतें राष्ट्रीय हित के आगे कमज़ोर पड़ जाती हैं पर अगर मोदी कल को प्रधानमंत्री बनते हैं तो रिश्ते बढ़ाने में उनके साथ किया गया सलूक रूकावट जरूर डाल सकता है। बेहतर होगा कि अमेरिका अपना घर संभाले तथा हमारे मामले में दखल देना बंद करें। मोदी की तरफ अमेरिका के बड़े हाथ पर हमारे यहां जो आपत्ति की गई है वह भी खुद आपत्तिजनक है। समाजवादी पार्टी ने भारत के ‘आतंरिक मामले में दखल’ करार दिया है। उल्लेखनीय है कि जब पाबंदी लगाई गई तब उन्हें दखल नज़र नहीं आई। वामदलों का कहना था कि ऐसा कारप्रेट घरानों के दबाव में किया गया। जनता दल (यू) का कहना था कि दुनिया भर के मानवाधिकार संगठनों ने मोदी को दोषी ठहराया है। पर क्या यह कथित संगठन हमारी न्यायपालिका के ऊपर है? सबसे बड़ी हैरानी है कि इस मुलाकात पर विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद भी दु:खी है। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमेरिका को नसीहत देते हुए गुजरात दंगों की याद दिलाने का प्रयास किया। अफसोस है कि विदेशमंत्री ही अमेरिका की दखल को आमंत्रित कर रहे हैं।

बहरहाल भारत-अमेरिका के रिश्तों में एक असुखद अध्याय खत्म हो रहा है, लेकिन यह कड़वाहट जरूर छोड़ गया है। हमें अमेरिका की दखल बिल्कुल स्वीकार नहीं। एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के साथ ऐसा सलूक अस्वीकार्य है और ऐसा वह देश कर रहा है जिसका अपना रिकार्ड मिश्रित है। आज भी अगर तालिबान उनकी बात मानने को तैयार हो जाए तो मानवाधिकारों का यह कथित ध्वजारोही, अमेरिका, उनसे भी हाथ मिलाने के लिए तैयार हो जाएगा।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.