कश्मीर के गुनहगार
पानी उतर रहा है। लोग धीरे-धीरे अपने घरों को लौट रहे हैं लेकिन जम्मू कश्मीर के लोगों के जख्म भरने में अभी वर्षों लग जाएंगे क्योंकि लोगों का पुनर्वास करना है और उन्हें महामारी से बचाना है। आगे सर्दियां हैं। यह सब काम भी केन्द्रीय सरकार को ही करना होगा क्योंकि जम्मू कश्मीर की सरकार तो सिद्ध कर गई है कि विनाश की घड़ी में जब लोगों को सबसे अधिक जरूरत थी, वह लापता थी। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि उनके पास तो सरकार ही नहीं थी। उमर ने कहा कि उनकी सरकार ने मस्जिदों से यह घोषणा करवाई थी कि पानी बढ़ रहा है, सावधान हो जाइए पर खुद वह सावधान क्यों नहीं हुए? अगर उन्हें मालूम था कि पानी बढ़ रहा है तो वैकल्पिक प्रशासनिक व्यवस्था कायम क्यों नहीं की गई? जम्मू कश्मीर, विशेष तौर पर कश्मीर, की समस्या है कि यहां सही प्रशासन देने का प्रयास ही नहीं किया गया। जब उड़ीसा में चक्रवात आया तो उससे पहले नवीन पटनायक की सरकार ने तटीय इलाकों से 7 लाख लोगों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया था। न्यूनतम जनहानि हुई। ऐसी कुशलता जम्मू कश्मीर में क्यों नहीं दिखी? इसका जवाब है कि प्रशासन देना तो उनका साइड बिजनेस है वहां के राजनेता या राजनीति करते हैं या जेबें भरते हैं। भावनात्मक मुद्दे उठा कर अपनी कुर्सी कायम रखी जाती है। साफ सुथरी विकासशील सरकार देने की तो कोशिश ही नहीं की जाती। उमर साहिब से भी कश्मीर के विलय या धारा 370 की जरूरत पर आप कितनी भी बहस कर लो, वह तैयार हैं, पर प्रशासन सही चलाने की तरफ ध्यान नहीं। भावनात्मक मुद्दे उठा कर लोगों को गुमराह करने में यह लोग विशेषज्ञ लेकिन जब जरूरत पड़ी तो विलाप करने लग पड़े कि मेरे पास तो सरकार ही नहीं थी। क्या इस हालत की नैतिक जिम्मेवारी आपकी नहीं है? बाद में एक अच्छे Boy Scout की तरह उमर को हैलिकाप्टर से राहत सामग्री नीचे फेंकते दिखाया गया पर मुख्यमंत्री की जिम्मेवारी आसमान से सामान गिराना नहीं, उनकी जिम्मेवारी जमीन पर राहत कार्यों का संचालन करना है और यह भी सच्चाई है कि कश्मीर से जम्मू का क्षेत्र बेहतर प्रशासित है। वहां जल्द स्थिति नियंत्रण में आ गई है क्योंकि वहां उस तरह की भावनात्मक राजनीति नहीं होती जैसी हम कश्मीर में देखते हैं। और विडम्बना देखिए कि जिस सेना को गालियां निकाली जाती थीं, उमर जिसे वहां से हटाने की मांग बार-बार करते रहे, जिसे अलगाववादी ‘कब्ज़ाधारी बल’ कहते थे वह ही इस विपत्ति की घड़ी में काम आई है।
और जब विपत्ति आई तो वह अलगाववादी नेता कहां थे जो कश्मीर को पृथक रखने के लिए सदा प्रयासरत रहते हैं? कहां थे मौलवी उमर फारूख? यासिन मलिक? साजिद लोन? शब्बीर शाह? और सईद अली शाह गिलानी? उस वक्त वह लोगों को राहत पहुंचाने के लिए आगे क्यों नहीं आए? इसका जवाब भी यही है कि यह बेचारे तो भाड़े के टट्टू हैं जिन्हें पाकिस्तान हांकता रहता है। यह किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी कैसे संभाल सकते हैं? यासिन मलिक को सेना ने बाढ़ में से निकाला लेकिन बाद में इसी शख्स ने बटमालू क्षेत्र में अपने समर्थकों के साथ मिल सेना की किश्तियां नहीं चलने दीं कि कहीं सेना को श्रेय न मिल जाए। इस संकट की घड़ी में भी यह घटिया लोग राजनीति कर रहे हैं शर्म नहीं आती इन्हें? सईद अली शाह गिलानी को पाक टीवी पर सेना को गालियां निकालते दिखाया गया। उसका कहना था कि सेना केवल अपने लोगों, टूरिस्ट तथा प्रवासियों को बचा रही और कुछ ही कश्मीरियों को बचाया गया और यह सब प्रचार के लिए किया जा रहा है।
2,00,000 लोगों को बचाया गया। भारतीय सेना अपना धर्म निभा रही है। अपने फंसे लोगों की चिंता किए बिना, पानी से डूबे अपने कैम्पों की चिंता किए बिना वह 24&7 राहत के कार्यों में जुटी है और यह बदमाश कह रहे हैं कि यह प्रचार के लिए किया जा रहा है? गिलानी का इंटरव्यू उसी कार्यक्रम का हिस्सा था जिसमें हाफिज सईद को भी जहर उगलते दिखाया गया। सवाल उठता है कि यह बदमाश रुकावट डाल भी क्यों रहे हैं? एनडीआरएफ के दो कर्मचारियों की पिटाई की गई। क्यों? सेना श्रेय के लिए तो काम कर नहीं रही वह तो लोगों को बचाने के लिए जी जान से जुटी हुई है। जनरल दलबीर सिंह ने कहा है कि जब तक अंतिम आदमी निकाल नहीं लिया जाएगा, वह लगे रहेंगे। और यह घटिया लोग रुकावट डाल रहे हैं? उन्हें चिंता नहीं कि लोग बचें या न बचें, चिंता है कि सेना को श्रेय न जाए। इसीलिए पथराव भी करवाया गया। दुनिया में यह पहला उदाहरण है जहां राहत का काम बुलेटप्रूफ जैकेट डाल कर किया जा रहा है। जो हैलिकाप्टर राहत सामग्री लेकर पहुंच रहे हैं उन पर पथराव की घटनाएं हो चुकी हैं। यह कैसी मनोवृत्ति है? पहले दिन से यह आशंका थी कि मिलिटैंट्स लोगों में घुलमिल कर समस्या खड़ी करेंगे। वही हो रहा है।
अरशद रसूल जरगर जो एनडीटीवी के पत्रकार हैं लिखते हैं, ‘जिस क्षेत्र में मैं था वहां से सेना की टीमों ने हजारों को बचाया था…मेजर एस एस नेगी ने खाए पिए बिना लम्बे समय तक राहत कार्य किया और लोगों के गुस्से का सामना करने में भारी संयम दिखाया।’ यह एक निष्पक्ष रिपोर्ट है पर इसके बारे भी कहा गया कि वह मीडिया हाउस को खुश करने के लिए ऐसी रिपोर्ट भेज रहे हैं। कुछ पत्रकार भी इस समय जब सेना राहत में जुटी हुई है ‘फर्जी मुठभेड़ों’ को उछाल रहे हैं। सेना के कथित ‘अत्याचार’ का वर्णन किया जा रहा है। यह कश्मीर की त्रासदी है। इस प्रदेश को सामान्य रहने ही नहीं दिया जाता। लोगों का गुस्सा प्रदेश सरकार के प्रति तो समझ आता है, सेना या राहत कर्मियों पर पथराव क्यों किया जा रहा है? अब यह भी घबराहट है कि दिल्ली से भेजे गए पैसे का हिस्सा फिर नेताओं तथा अफसरों की जेबों में न चला जाए। बहुत जरूरी है कि यह निगरानी रखी जाए कि केन्द्र द्वारा भेजी गई राहत तथा देशभर में इकट्ठी की जा रही सामग्री का सही इस्तेमाल किया जाए। सारा देश राहत कार्यों में जुटा है। गुरुद्वारों में लंगर तैयार हो रहे हैं। मंदिरों में पैसे इकट्ठे किये जा रहे हैं। प्रधानमंत्री खुद मॉनीटर कर रहे हैं फिर ऐसी हरकतें क्यों? इसका कारण है कि कश्मीर को सदैव उबलते रखा गया है। पाकिस्तान समर्थक तत्व तथा लालची राजनेता अपनी कुर्सी के लिए वहां अलगाववाद की भावना को बल देते रहे लेकिन जब जरूरत की घड़ी आई तो सब गायब थे। यह सब कश्मीर के गुनहगार हैं। इनकी दिलचस्पी है कि कश्मीर पिछड़ा रहे और देश से भावनात्मक तौर पर कटा रहे ताकि उनकी दुकान चलती रहे। लेकिन देश को तो अपना धर्म निभाना है। इनके साथ, इनके बिना, इनके बावजूद।