कैलाश सत्यार्थी कौन?
इस वर्ष नोबल शांति पुरस्कार संयुक्त रूप से भारत के कैलाश सत्यार्थी तथा पाकिस्तान की मलाला यूसफजई को दिया गया है। नोबल कमेटी का यह भी कहना है कि एक हिन्दू तथा एक मुसलमान को सम्मान दिया गया है। ऐसे सम्मान के लिए धर्म कब से महत्वपूर्ण हो गया? 17 वर्षीय मलाला यूसफजई को तो सब पहले से जानते थे कि किस प्रकार इस बहादुर लड़की ने लड़कियों की शिक्षा के अधिकार को लेकर तालिबान का विरोध किया और तालिबान ने उसके सिर पर गोली मार दी जिसके बाद उसे इंगलैंड लाया गया और उसे बचा लिया गया। हैरानी है कि उग्रवादियों की इतनी बड़ी जमात एक छोटी लड़की तथा उसकी किताब से डरती है। पाकिस्तान में भी कई लोग उसे विदेशी एजेंट कहते हैं। यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि उन्हें हर कोने में साजिश नज़र आती है लेकिन अब उनके वजीर-ए-आज़म नवाज शरीफ ने मलाला को ‘पाकिस्तान का गौरव’ कहा है। मलाला उस पुरानी कहावत को चरितार्थ करती है कि ‘कलम तलवार से अधिक ताकतवर है।’
मलाला के बारे तो हम सब जानते हैं पर कैलाश सत्यार्थी को कितने जानते हैं? अब तो दिल्ली में कालकाजी के उनके फ्लैट पर बधाई देने वालों का तांता लगा है। कहा जा रहा है कि कैलाश सत्यार्थी ने 80,000 बाल मजदूरों को बचाया है। तीन दशकों से वह इस काम में लगे हुए हैं लेकिन फिर भी जब उन्हें नोबल सम्मान की घोषणा हुई तो पहली प्रतिक्रिया यही थी कि कैलाश सत्यार्थी कौन? अब तो सब उनके सम्मान पर गर्व कर रहे हैं पर गर्व करने से पहले यह सवाल जरूर किया गया कि यह है कौन? हमारे लिए तो यह प्रश्न और भी असुखद है कि हम पाकिस्तान की नोबल विजेता के बारे तो जानते हैं पर अपने घर में काम कर रहे ऐसे व्यक्ति के बारे कोई जानकारी नहीं। हमें नर्मदा बचाओ आंदोलन के बारे तो जानकारी है पर ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के बारे हमने कभी सुना ही नहीं। मीडिया भी अपराध बोध से ग्रस्त है कि विदेशियों ने तो हमारे बीच कैलाश सत्यार्थी के समाज कल्याण के काम को ढूंढ निकाला लेकिन हम नेताओं/क्रिकेटरों/अभिनेताओं/मॉडल्स से इतने ग्रस्त हैं कि हमें अपने बीच असली काम कर रहे लोगों के बारे जानकारी नहीं है। हमारे मानसपटल पर राजनीति विशेष तौर पर हावी हो चुकी है। जब मंगलयान ने सफलता हासिल की तब भी एक अंग्रेजी के प्रमुख चैनल पर इसका श्रेय लेने को लेकर भाजपा तथा कांग्रेस के प्रवक्ताओं को लड़वाया जा रहा था जबकि श्रेय तो सिर्फ वैज्ञानिकों का बनता है।
हम बाल मजदूरों की दर्दनाक स्थिति के बारे आंखें मूंदे हुए हैं। असंख्य लोग हैं जो समाज के पिछड़े तथा कुचले वर्ग के बीच काम कर रहे हैं। कई एनजीओ हैं जो विवादित हैं पर बहुत सही काम कर रहे हैं और उनके दबाव में सरकार को सामाजिक एजेंडे की तरफ ध्यान देना पड़ रहा है। नानाजी देशमुख जैसे लोग भी रहे हैं जो राजनीति को अलविदा कह कर लोगों के बीच बस गए और उन्होंने पिछड़ों को उठाने का प्रयास किया। बताया जाता है कि घरों में काम कर रहे नौकरों में से तीन चौथाई 12 से 16 वर्ष के बच्चे हैं। इनमें से 90 प्रतिशत लड़कियां हैं। बाल मजदूरी का मामला वैसे भी बहुत उलझा हुआ है। अपने बच्चों से काम करवाना कई परिवारों की मजबूरी है। जालन्धर में रोटरी क्लब ने गरीब बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने के लिए जब स्कूल शुरू किया जहां उन्हें दोपहर का भोजन भी दिया जाता था, तो पाया कि बहुत परिवार इसके प्रति दिलचस्पी नहीं रखते क्योंकि अगर बच्चा स्कूल जाएगा तो कमाई कम हो जाएगी। आखिर में इन परिवारों को मासिक पैसे देने पड़े तब वह अपने बच्चे स्कूल भेजने के लिए तैयार हुए। यह हमारी मजबूर हकीकत है।
गरीब बच्चे कई प्रकार के शोषण का शिकार होते हैं। कइयों को तो एक प्रकार से बंधक या गुलाम बना कर रखा जाता है। एक भारत है जिसकी झलक हम प्रधानमंत्री के अमेरिका दौरे के दौरान मैडिसन स्कवेयर गार्डन में देख कर हटे हैं लेकिन एक दूसरा भारत भी है जिसे हम अपनी आंखों से दूर रखते हैं क्योंकि यह बदसूरत है। आंखें बंद कर हम समझते हैं कि हकीकत ओझल हो जाएगी। भारत में दुनिया में सबसे अधिक छ: करोड़ बाल मजदूर हैं। कानून जरूर है लेकिन कानून तो इस देश में हर बुराई के खिलाफ है। सरकार के विभाग भी कुछ ठोस नहीं कर पाए इसलिए कैलाश सत्यार्थी जैसे लोगों का हमें धन्यवादी होना चाहिए जो उनके बचाव में लगे हुए हैं। उनका दावा है कि वह 80,000 बाल मजदूरों को बचाने में सफल रहे हैं मेरा मानना है कि अगर वह 8000 को भी बचा चुके हैं तो भी यह समाज के प्रति विशाल योगदान है। अफसोस यही है कि अपने ऐसे समाज सेवियों की हम परवाह नहीं करते। हम उन्हें गले लगाने के लिए तब दौड़ते हैं जब उन्हें पश्चिम में मान्यता मिलती है।