‘क्या आप ने एयरलिफ्ट देखी है?’
यह सवाल मुझ से दिल्ली में एक कश्मीरी पंडित महिला डाक्टर ने किया था। उनकी वहां अच्छी प्रैक्टिस है लेकिन कश्मीर को वह भूल नहीं सकीं। मैं उनसे कश्मीरी पंडितों की वापिसी के बारे पूछ रहा था। उन्होंने बताया कि किस तरह लगभग 25 वर्ष पहले सारा परिवार मारूति 800 में बैठ कर कश्मीर से निकला था। मारूति 800 में कितना सामान ले जाया जा सकता है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन उस वक्त तो जान बचाने और विशेष तौर पर महिलाओं की इज्जत बचाने का सवाल था।
मेरा अपना परिवार पाकिस्तान से उजड़ कर आया था इसलिए विस्थापितों का दर्द समझता हूं। और हां, मैंने एयरलिफ्ट देखी है। यह बढ़िया फिल्म आपको बेचैन छोड़ती है कि किस तरह मध्य-पूर्व में फंसे भारतीयों को रातों रात अपना सब कुछ छोड़ भागना पड़ा था। लेकिन उनकी तथा कश्मीरी पंडितों की स्थिति में एक अंतर है। वह विदेशी धरती से भागे थे, कश्मीरी पंडित अपनी उस सरजमीं से भागने को मजबूर किए गए जहां वह सदियों से रह रहे थे।
और यह देश चुपचाप सब कुछ देखता रहा। हम कश्मीरी पंडितों की नसली सफाई बर्दाश्त कर गए।
मैंने एयरलिफ्ट ही नहीं जम्मू कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के लिए बनाए गए कैम्प भी देखे हैं। जो समुदाय शत प्रतिशत पढ़ा लिखा है उसके सदस्यों के चेहरों पर लाचारी और नाउम्मीदी देखी है। जिनके पास बंगले थे उन्हें तम्बुओं में रहते देखा है। और 25 वर्ष से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी उनकी समस्या का समाधान यह सुपरपावर बनने वाला देश निकाल नहीं सका।
और आज फिर इस बात को लेकर बहस हो रही है कि इन्हें कहां बसाया जाए? जम्मू कश्मीर की सरकार का कहना है कि ‘वह अलगाववादियों से सलाह करेगी कि इन्हें कहां बसाया जाए।’
जम्मू कश्मीर की सरकार की नीति तो यह प्रतीत होती है कि कातिलों को ही मुकद्दमे का फैसला करने दो। कश्मीरी पंडित कह सकते हैं कि,
जो मेरे कत्ल का इंसाफ करने वाले हैं,
उन्हीं के हाथ में खंजर है क्या किया जाए?
अलगाववादी नेता जो कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के गुनाहगार हैं वह ही फैसला करेंगे कि पंडित कहां बसें? वास्तव में न केवल अलगाववादी नेता बल्कि फारूक अब्दुल्ला से लेकर मुफ्ती मुहम्मद सईद तक सारे कश्मीरी नेता कश्मीरी पंडितों की इस त्रासदी के सह अपराधी हैं। न यह कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा दे सके, न इनका पलायन रोक सके और न ही इनके कश्मीर में पुनर्वास का ही प्रबंध कर सके। उलटा जब भी केन्द्र की सरकार ने इनके पुनर्वास की बात शुरू की तो असंभव शर्तें लगा दीं।
शिक्षा मंत्री नईम अख्तर का कहना है कि सईद अली शाह गिलानी का भी कहना है कि पंडितों की वापिसी होनी चाहिए क्योंकि यह हमारे समाज का हिस्सा हैं। यही बात यासीन मलिक भी कह रहा है लेकिन इनकी शर्त यह है कि इनका पुनर्वास किधर होना चाहिए, इसका फैसला हम करेंगे। कश्मीरियत की दुहाई दी जा रही है। ‘कश्मीरियत’ उस वक्त किधर थी जब वहां मस्जिदों से इन्हें निकल जाने के आदेश दिए जा रहे थे? जब इनके घर जलाए जा रहे थे तब आपकी कश्मीरियत सुप्त क्यों रही थी?
अगर कश्मीरी पंडितों की वापिसी होनी है तो इसका फैसला उन पर छोड़ देना चाहिए कि वह कब और कहां रहना चाहते हैं लेकिन ऐसी शर्तें लगाई जा रही हैं कि वह वापिस ही न आएं। कड़वी हकीकत है कि कश्मीरी नेता चाहे वह अलगाववादी हों या किसी राजनीतिक पार्टी से सम्बन्धित हों, वह वादी के मुस्लिम स्वरूप में कमी नहीं चाहते इसलिए नहीं चाहते कि कश्मीरी पंडित लौट आएं। जिस तरह पाकिस्तान ने अपनी अल्पसंख्यक समस्या का समाधान किया है उसी तरह कश्मीर में हो रहा है।
सरकार इनके लिए अलग कालोनियां बनाना चाहती है। उत्तर, दक्षिण तथा केन्द्रीय कश्मीर में ऐसी कालोनियों के लिए जगह भी चिन्हित कर ली गई है। लेकिन इसी को लेकर शोर मचाया जा रहा है कि कश्मीरी समाज को साम्प्रदायिक तौर पर बांटा जा रहा है। पर कश्मीरी पंडित कश्मीर में कहां रहते हैं, यह किसी और का मामला कैसे बन गया? आज कश्मीरी मुस्लिम नेता कह तो रहे हैं कि वह अपने कश्मीरी पंडित ‘भाईयों’ की वापिसी चाहते हैं लेकिन उन्हें कहना चाहूंगा,
तेरे रहते लुटा है चमन बागवां
कैसे मान लूं कि तेरा इशारा नहीं था?
सईद अली शाह गिलानी तथा यासीन मलिक का कहना है कि ‘नई साम्प्रदायिक सरकार जल्द से जल्द अपनी पूरी ताकत तथा मशीनरी से जम्मू कश्मीर की जनसंख्या का स्वरूप बदलना चाहती है।’ केन्द्र सरकार तो ‘कम्यूनल’ है पर यह धूर्त धर्मनिरपेक्ष हैं? और क्या कश्मीरी पंडितों का कश्मीर में पुनर्वास जनसंख्या का स्वरूप बदलने का प्रयास कहा जा सकता है? 2008 में भी अमरनाथ यात्रा के दौरान कुछ अस्थायी शैड डालने को लेकर इन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया था। अब फिर ऐसा माहौल बनाया जा रहा है।
कितनी विडम्बना है कि जो पाक के झंडे लहराएं उनका तो कश्मीर है पर जो तिरंगा लहराना चाहते हैं वह दर-दर की ठोकर खाएं? कश्मीरी नेताओं को भी सावधान हो जाना चाहिए कि सारा देश देख रहा है। जो बर्ताव आप कश्मीरी पंडितों के साथ कर रहे हैं उसका असर देशभर में हो रहा है।
विशेष दर्जा अब जम्मू कश्मीर के गले का मील पत्थर बन चुका है। इसका फायदा केवल अलगाववादी तथा उनके समर्थक उठा रहे हैं जो दोनों तरफ से पैसा वसूल कर रहे हैं जो बात ए.एस. दुल्लत ने अपनी किताब ‘कश्मीर, द वाजपेयी ईयर्ज़’ में भी स्पष्ट की थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान से लेकर अब तक पहले जनसंघ और अब भाजपा ने कश्मीर को लेकर बहुत वायदे किए हैं, इन्हें पूरा करने का समय अब है जब केन्द्र तथा प्रदेश सरकार दोनों आपके हाथ में हैं।
सुरक्षित कालोनियों में कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास इस सरकार की जिम्मेवारी बनती है। अलगाववादी यह फैसला नहीं कर सकते कि कश्मीरी पंडित किधर रहें। वह अपने मुहल्लों में नहीं लौटेंगे। सरकार के हर सही प्रयास में अलगाववादी बाधा डालेंगे आखिर दुकान चलाने का मामला है। उनके साथ, उनके बिना, और जरूरत पड़े तो इनके बावजूद, देश को तो कश्मीरी पंडितों के प्रति अपना धर्म निभाना है।