
अमेरिका में नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प व्हाइट हाउस में रहने लगे हैं और उनके शपथ ग्रहण के तत्काल बाद पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा व्हाइट हाउस छोड़ गए। ऐसा भारत में भी होता है। नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह के साथ पूर्व राष्ट्रपति राष्ट्रपति भवन छोड़ देते हैं। लेकिन एक बड़ा अंतर है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति व्हाइट हाउस छोड़ कर अपने निजी आवास में चले जाते हैं जबकि भारत में एक राष्ट्रपति ‘पूर्व’ बनने के बाद एक और विशाल सरकारी बंगले में शिफ्ट हो जाते हैं जहां अंत तक उनका खर्चा करदाता उठाता रहता है।
बराक ओबामा अब वाशिंगटन में कालोरामा के एक बंगले में दो साल रहेंगे। यह एक विशाल 8200 वर्ग फुट का मकान है जिसमें सब सुविधाएं हैं। लेकिन हमारे लिए अनोखी बात यह है कि यह किराए का मकान है जिसका किराया खुद ओबामा देंगे। इसी प्रकार पूर्व उप राष्ट्रपति जो बिडेन अपना ब्रीफकेस उठाकर ट्रेन द्वारा अपने घर विलमिंगटन लौट गए। जो बिडेन के बारे बताया जाता है कि उनके पास अपने पुत्र के कैंसर के महंगे इलाज के लिए पैसे नहीं रहे तो उन्होंने अपना घर बेचने का फैसला किया। उस वक्त राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने निजी खाते से उन्हें उधार में पैसे दिए ताकि उनका घर बिकने से बच जाए। दुर्भाग्यवश बेटा बचा नहीं। ऐसी मिसालें हमारे देश में देखने को क्यों नहीं मिलतीं?
अभी से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के लिए रिटायरमैंट के बाद रहने के लिए सरकारी बंगले की तलाश हो रही है। अगर दोबारा राष्ट्रपति नहीं बनते तो महामहिम नई दिल्ली के 10 राजाजी मार्ग के सरकारी बंगले में रहेंगे जहां पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी रह चुके हैं।
यह मकान 11776 वर्ग फुट में फैला हुआ है अर्थात् रिटायरमैंट के बाद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति के आवास से भी बहुत बड़ा होगा। दूसरा अंतर है कि श्री मुखर्जी को इसका खर्चा वहन करने की जरूरत नहीं क्योंकि राष्ट्रपति के पैंशन नियम 1962 कहते हैं कि ‘एक पूर्व राष्ट्रपति किराया दिए बिना भारत में किसी भी जगह अपनी बाकी जिन्दगी के लिए एक पूरी तरह से सुसज्जित बंगले के अधिकारी होंगे जो उनकी पसंद पर निर्भर करेगा। उन्हें पानी या बिजली का खर्चा नहीं देना पड़ेगा।’
‘भारत में किसी भी जगह’ का फायदा उठाते हुए पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने खजाने के करोड़ों रुपए खर्च करवा पुणे में अपने लिए एक भव्य बंगला बनवाया था। आमतौर पर पूर्व राष्ट्रपति या पूर्व प्रधानमंत्री तो राजधानी के पॉश लयूटन क्षेत्र में ही रहना पसंद करते हैं जहां इनके लिए विशाल बंगले मौजूद हैं। और जब यह वीवीआईपी स्वर्गवास हो जाते हैं तो इन्हीं बंगलों को उनके स्मारक में परिवर्तित कर दिया जाता है। आजादी के बाद तीन मूर्ति मार्ग प्रधानमंत्री का बंगला नेहरू जी के देहांत के बाद उनके स्मारक में बदल दिया गया। क्या उसे स्थायी प्रधानमंत्री का आवास नहीं बनाया जा सकता था और नेहरू की लाइब्रेरी इत्यादि कहीं और शिफ्ट कर दी जाती?
दुख यह है कि किसी भी माननीय ‘पूर्व’ ने आज तक यह नहीं कहा कि करदाता ने मेरी बहुत सेवा की है। बहुत हो गया अब अपना खर्चा मैं खुद वहन करूंगा। मुझे उनके सादा अतीत को देखते हुए डा. मनमोहन सिंह से बहुत आशा थी कि पद छोड़ने के बाद वह निजी बंगले में चले जाएंगे पर वह भी नई दिल्ली के मोतीलाल नेहरू मार्ग के विशाल बंगले में पहुंच गए। शायद सरकारी शानो-शौकत की आदत पड़ जाती है।
दुख होता है कि किसी ने भी ओबामा वाला रास्ता नहीं चुना। जब ब्रिटेन का प्रधानमंत्री ‘पूर्व’ हो जाता है तो नए प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण के तत्काल बाद सरकारी आवास 10 डाउनिंग स्ट्रीट छोड़ जाता है, अपने निजी आवास के लिए। वह सरकारी दामाद बन कर ताउम्र नहीं रहता। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरान भी सरकारी निवास खाली करने के बाद किराए के मकान में चले गए हैं क्योंकि उनका अपना मकान किराए पर है। कोई धौंस नहीं, कोई नखरा नहीं। ओबामा ने तो बताया है कि व्हाइट हाउस में रहते हुए सारे निजी खर्चे टायलेट पेपर समेत वह खुद उठाते थे। हर महीने के अंत में राशन का बिल वह खुद चुकाते थे। यहां कौन नेता ऐसा करता है? यह चित्र भी प्रकाशित हुआ है जहां पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ट्रेन पकड़ने के लिए बेंगलुरु स्टेशन के प्लेटफार्म पर ही अपनी कार ले गए। आखिर नेताजी पैदल चल कर कैसे जा सकते थे!
लेकिन यहां मुफ्तखोरी की ऐसी आदत बन गई है कि हालत माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम बनती जा रही है। और जो नई दिल्ली में होता है वह प्रदेशों में भी दोहराया जाता है। राज्यपालों के लिए विशाल राजभवन हैं। पूर्व मुख्यमंत्रियों को बड़ा सरकारी बंगला सरकारी खर्चे पर मिलता है। और कई मंत्री सरकारी आवास में चिपक कर बैठ जाते हैं। पंजाब में राजेन्द्र कौर भट्ठल के उपमुख्यमंत्री पद से हटने के लगभग 20 साल बाद भारी मशक्कत के बाद उनसे सरकारी बंगला खाली करवाया गया। और उसके लिए भी हाईकोर्ट को दखल देनी पड़ी।
लेकिन सबसे बुरी हालत राजधानी दिल्ली की है जहां एकड़ों में फैले बंगलों में नेता, सांसद, बड़े अफसर और न्यायाधीश रहते हैं। एक एक बंगले की कीमत 100 करोड़ से कम नहीं होगी। लेकिन ऐसी वीवीआईपी संस्कृति है कि अंग्रेजों के जाने के बाद हमारे ‘ब्राउन साहिब’ हावी हो गए हैं। (अगर आप केवल वीआईपी हों तो कुछ नहीं, तुच्छ हो, नई दिल्ली में केवल वीवीआईपी की कीमत है।)
लयूटन की दिल्ली में जनसंख्या का घनत्व प्रति एकड़ केवल 10.15 है जो खचाखच भरी दिल्ली में सबसे कम है। बहुत बार योजना का जिक्र हुआ कि इन बंगलों का रखरखाव बहुत महंगा है इनकी जगह माननीय के रहने के लिए बहुमंजिली इमारतें बना दी जाएं लेकिन योजना कागजों में ही रह जाती है क्योंकि निर्णय लेने वाले या उस पर अमल करवाने वाले सभी अपने बंगले नहीं छोड़ना चाहते।
हालत यह है कि एक सरकारी बंगला सोनिया गांधी के पास है, एक राहुल के पास और एक प्रियंका के पास। यह गैरकानूनी भी नहीं क्योंकि नियम तो ऐसे लोगों ने ही बनाए या बनवाए हैं। प्रियंका वाड्रा भी यह मानने को तैयार नहीं कि उन्हें सरकारी बंगला नहीं चाहिए क्योंकि उनके पति का कारोबार बढ़िया चल रहा है। उलटा प्रियंका तो कह चुकी हैं कि वह पूरा सरकारी किराया नहीं दे सकतीं क्योंकि यह उनकी ‘क्षमता से बाहर है’ जबकि शिमला के नजदीक मशोबरा में वह अपना बहुत बड़ा बंगला बनवा रही हैं।
देश की सवा करते यह सब बेचारे माननीय इस बहती गंगा में नहा रहे हैं। सब वह सुविधाएं प्राप्त हैं जो कभी अंग्रेजों को प्राप्त थीं। विशेष तौर पर नई दिल्ली में एक अनौपचारिक क्लब सा है जिसके सदस्य केवल वीवीआईपी हैं और जो ऐसे नियम बनाते हैं और ऐसी परम्पराएं कायम करते हैं जो केवल उनका ध्यान रखते हैं। गनीमत है कि शरद पवार को भारत रत्न से सम्मानित नहीं किया गया!
नेता, उनके और हमारे (Leaders: Theirs and Ours) ,