जम्मू-कश्मीर में उपद्रवी जो सेना के काम में दखल देते हैं को सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत की चेतावनी से विवाद खड़ा हो गया है। हैरानी यह है कि कश्मीर के अलगाववादी तो भड़क ही रहे हैं विपक्ष के गुलाम नबी आजाद जैसे नेता भी जनरल की आलोचना कर रहे हैं कि इससे कश्मीर में स्थिति और खराब होगी। पर जनरल ने कहा क्या है? सैनिक कार्रवाई को बाधित करने वाले लोगों को कड़ी चेतावनी देते हुए जनरल रावत ने कहा है कि ऐसे लोग परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें और कश्मीर में पाकिस्तान तथा आईएसआईएस के झंडे लहराने वालों को देशद्रोही माना जाएगा।
जनरल राजनेता तो है नहीं। घुमा फिरा कर बात करनी सैनिकों को नहीं आती इसलिए साफ-साफ अपनी बात कह दी। इसमें आपत्तिजनक क्या है? अगर आप देश विरोधी गतिविधियों में संलिप्त नहीं हो तो आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है। जनरल की यह चेतावनी कश्मीर में दो दिन में छ: सैनिकों जिनमें एक मेजर भी शामिल थे की मौत के संदर्भ में देखी जानी चाहिए। वह इस सेना के कमांडर हैं। अपने लोगों की शहादत को वह चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर सकते।
सबसे शर्मनाक घटना हंदवाड़ा से है जहां मुठभेड़ में घायल 30 राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर सतीश दाहिया को समय पर अस्पताल नहीं ले जाया जा सका क्योंकि उग्र भीड़ ने न केवल सेना की गाड़ियों का रास्ता रोका बल्कि उन पर पथराव भी किया। सेना इन ‘बेकसूर’ नागरिकों पर फायरिंग नहीं कर सकती थी क्योंकि इसके आर्डर नहीं हैं पर जब तक मेजर दाहिया को श्रीनगर के अस्पताल में लाया गया तब तक अधिक खून के रिसाव के कारण उनकी मौत हो चुकी थी। कौन है इस मौत के लिए जिम्मेवार?
जनरल अब स्पष्ट कह रहे हैं कि ऐसी हरकतें बर्दाश्त नहीं होगी। इस बयान को ‘नागरिकों को धमकी’ कैसे कहा जा सकता है, जैसे एक अंग्रेजी के अखबार ने लिखा भी है? क्या नागरिकों का काम है कि वह आतंकवादियों की मदद करे और सेना को अपनी जिम्मेवारी पूरी न करने दें? संसद में कांग्रेस के नेता ज्योतिर्दित्या सिंधिया ने कहा है कि सुरक्षा बल यह निश्चित करें कि बेकसूरों पर अत्याचार न हो। पर क्या वह बेकसूर नागरिक हैं जिन्होंने सेना की गाड़ियों को घेर लिया ताकि गंभीर रूप से घायल मेजर को अस्पताल न ले जाया जा सके?
जहां मुठभेड़ चल रही है वहां भीड़ क्यों पहुंचे? सुरक्षाबलों पर पत्थर भी क्यों फैंके जाएं? जो पत्थर फैंकते हैं कल को पैट्रोल बम भी फैंक सकते हैं, जैसी अब सूचना भी है। क्या सेना ऐेसे लोगों के गले में हार डालेगी? सेना के लिए भी यह सर्दियां बहुत चुनौतीपूर्ण रही हैं। उरी तथा नगरोटा में सैनिक कैम्पों पर हमले हुए तथा आतंकियों तथा सेना के बीच कई बार गोलाबारी हुई। पाकिस्तान से घुसपैठ भी बढ़ी है। सरकारी सूचना के अनुसार वादी में कम से कम 300 विदेशी आतंकी हैं अधिकतर लश्करे तोयबा से हैं। ऐसी स्थिति में सेना अपने हाथ पीछे बांध कर मुकाबला नहीं कर सकती।
वहां कोर कमांडर रहे लै. जनरल सईद अता हसनन ने लिखा है, ‘‘गांवों तथा शहरों में छिपे आतंकवादियों के खिलाफ सर्जिकल आप्रेशन में अचानक इकट्ठी हुई भीड़ फसाद पैदा करती है जिससे सेना के हताहतों की संख्या बढ़ती है।’’ जनरल रावत ने केवल उस वर्ग को चेतावनी दी है कि जो देशद्रोही है। कश्मीरी मीडिया तथा हुर्रियत के लीडर इसे एक प्रकार से ‘युद्ध की घोषणा’ कह रहे हैं। लेकिन कैसे? जब संसद ने अपना प्रतिनिधिमंडल वहां भेजा तो पुराने पापी सईद अली शाह गिलानी ने उनके मुंह पर अपना दरवाजा बंद कर दिया। सीताराम येचुरी तथा गुलाम नबी आजाद जैसे नेता जो आज सेना की आलोचना कर रहे हैं तब अपना मुंह लटकाए वापिस लौट आए।
कश्मीर में जो स्थिति बनी है वह सेना ने नहीं बनाई। सेना के गले यह मुसीबत डाल राजनेता वर्ग एक तरफ बैठ गया है। आखिर यह स्थिति क्यों बने कि सेना के रास्ते में रुकावटें खड़ी हो रही हैं। जुर्रत कैसे हो गई? यह विभिन्न सरकारों की दुर्बलता का परिणाम है कि हम यहां तक पहुंच गए। सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी क्यों स्वीकार की गई? एक बार इसे बर्दाश्त कर लिया तो यह अगले कदम ही है। पत्थरबाजों को ‘निहत्थे’ प्रदर्शकारी का खिताब देकर उन्हें प्रोत्साहित क्यों किया गया?
कई पत्रकार सवाल कर रहे हैं कि कश्मीर में मिलिटैंसी क्यों बढ़ी है? एक महिला पत्रकार ने सवाल किया है कि ‘‘क्या रावत अब उन महिलाओं के खिलाफ गोली चलाएंगे जो अपनी हताशा व्यक्त कर रही हैं, क्योंकि वह एक मिलिटेराईज्ड क्षेत्र में दयनीय जीवन जीने के लिए मजबूर हैं?’’ यह सवाल सेनाध्यक्ष से क्यों पूछे जा रहे हो? जो हालात हैं वह सेना ने पैदा नहीं किए। यह हालात या राजनेताओं ने पैदा किए हैं या उन मीडिया वालों ने पैदा किए हैं जिन्होंने सदैव मिलिटैंसी को गौरवान्वित किया है और इसे भड़काने में पाकिस्तान की भूमिका की अनदेखी की है। आखिर इन पत्थरबाज़ों को पैसे कौन देता है? अलगाववादियों की दुकानें कौन चलाता है?
याद रखना चाहिए कि यही लोग कश्मीरी पंडितों को वहां से निकलने के लिए मजबूर करने के दोषी हैं। यह नस्ली सफाई के अपराधी हैं और आज तक कश्मीरी पंडितों की वापिसी में अडं़गा अड़ा रहे हैं। आखिर उन्हें क्यों निकाला गया? इसलिए कि वह कश्मीर को केवल मुस्लिम प्रदेश बनाना चाहते हैं। जो अब हो रहा है उसी प्रक्रिया का अगला कदम है।
समय आ गया है कि हम कश्मीर में चुनौती की गंभीरता और इसके स्वरूप को समझें। यह देश के खिलाफ साजिश है जिसमें हमारी नीति स्पष्ट नहीं। पीडीपी-भाजपा सरकार भी किसी मर्ज़ की दवा नहीं है। आखिर हम हुर्रियत कांफ्रैंस के नेताओं से सरकारी महमानों की तरह बर्ताव क्यों करते हैं? यह वह लोग हैं जो हमारे सैनिकों को नहीं बुरहान वानी को शहीद कहते हैं। हम भारत के नागरिक नहीं चाहते कि हमारे पैसे से इन्हें सुरक्षा दी जाए। यह तत्काल बंद होनी चाहिए।
शाहबाज कलंदर दरगाह पर आत्मघाती हमले के बाद एक दिन में पाकिस्तान की सेना ने 130 मिलिटैंट मार गिराए। एक ने शिकायत नहीं की। यहां जो राजनेता या वह मीडिया वाले जो जनरल रावत की आलोचना कर रहे हैं उनसे मुझे कहना है कि एक दिन अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकल कर शहीद परिवारों के साथ बिताएं। दिल्ली में अपने सुरक्षित घरों में बैठ कर ज्ञान देना बहुत आसान है। जाएं मेजर दाहिया के घर और उनके परिवारजनों से मिलें। तब आपको कश्मीर की हकीकत समझ आ जाएगी और याद रखिए कोई भी जनरल अपने सैनिकों को ताबूत में देखना पसंद नहीं करता।
मेजर दाहिया को किसने मारा? (Who Killed Major Dahiya ?),